Wednesday, March 18, 2009

अच्छा तालिबान, बुरा तालिबान

ओबामा सरकार अमरीका की अफगान नीति को नए सिरे से गढ़ रही है। जो छिटपुट खबरें आ रही हैं, उनसे ऐसा मालूम पड़ रहा है कि अमरीका अफगानिस्तान में लंबे युद्ध में फंसने से बचने के लिए तालिबान से समझौता करने की दिशा में कदम बढ़ा रहा है।

अमरीका के ट्विन टावर पर विमान-बम से हमला करके लगभग 5,000 अमरीकियों की जान लेने वाले अलकायदा का तालिबान के साथ चोली-दामन का रिश्ता है। इस तालिबान से अमरीका भली-भांति परिचित है। अफगानिस्तान से सोवियतों को खदेड़ने के लिए अमरीका ने ही इसे हथियारों से लैस किया था।

तालिबान का दूसरा संरक्षक अमरीका का ही मित्र पाकिस्तान है। उसका खुफिया संगठन आईएसआई और स्वयं पाकिस्तानी सेना तालिबान को अपना धर्म-भाई मानते हैं। भारत के साथ युद्ध होने पर पाकिस्तान अफगानिस्तान को भौगोलिक गहराई प्राप्त करने के लिए उपयोग करना चाहता है। इसलिए अफगानिस्तान में तालिबानी सरकार स्थापित करना उसकी रणनीति का एक अंग है। दुर्भाग्य से नायन-लेवन के बाद उसे इस रणनीति को ताक पर रखकर अमरीकी दबाव में तालिबान पर ही बंदूक तानना पड़ा है। पर परोक्ष रूप से तालिबान को समर्थन देना पाकिस्तान ने कभी नहीं छोड़ा।

नायन-लेवन के बाद अमरीका ने अपने पुराने युद्ध साथी तालिबान पर हमला बोल दिया और उसे काबुल से खदेड़ दिया। संकट के इस पल में तालिबान के लिए यह स्वाभाविक था कि वह पाकिस्तान में शरण ले। पहले तालिबान अफगानिस्तान-पाकिस्तान की सरहद की बीहड़ पहाड़ियों तक सीमित रहा, परंतु धीरे-धीरे वह पाकिस्तान भर में अपना प्रभाव बढ़ाता गया। नवीनतम खबर यह है कि पाकिस्तान की स्वात घाटी उसके कब्जे में आ गई है। अब लगभग आधे पाकिस्तान पर उसका कब्जा है, और ऐसा माना जा रहा है कि जल्द ही कराची, पेशावर, रावलपिंडी, इस्लामाबाद, और लाहौर, यानी लगभग संपूर्ण पाकिस्तान में उसकी तूती बोलेगी।

तालिबान के साथ लड़ाई में अमरीका ने एक गंभीर गलती की। नयन-लेवन के बाद उसने तालिबान को काबुल में गद्दी से उतार तो दिया, पर मसले का पूर्ण समाधान होने से पहले ही ईराक पर हमला करके अपने ऊपर दो-दो युद्धों का भार थोप लिया। यह दूसरा युद्ध खाड़ी के तेल संसाधनों पर अमरीकी प्रभाव बनाए रखने के लिए था। दो-दो युद्ध एक साथ लड़ने से अमरीका की शक्ति बंट गई। समस्त मुस्लिम जगत में अमरीका के प्रति घृणा की भावना तेज हो गई। इससे तालिबान को मुस्लिम देशों से आर्थिक और नैतिक समर्थन प्राप्त होने लगा।

चीन, जो बड़ी तेजी से महाशक्ति के रूप में उभर रहा है, भली-भांति समझता है कि अमरीका द्वारा ईराक में युद्ध छेड़ने का उद्देश्य वहां के तेल संसाधनों को अमरीकी कब्जे में रखना है। यह चीन को मंजूर नहीं है क्योंकि वह स्वयं इस संसाधन को अपने प्रभाव में लाना चाहता है। पर चीन अमरीका से सीधा वैर मोल नहीं ले सकता था। इसलिए अमरीका को कमजोर करने के इरादे से उसने तालिबान को समर्थन बढ़ा दिया।

उधर नायन-लेवन के बाद पाकिस्तानी सेना को अमरीकी दबाव में आकर अपने धर्म-भाइयों पर ही सैनिक कार्रवाई करनी पड़ी। इससे पाकिस्तानी सेना की साख न केवल तालिबानों में गिरी, बल्कि पाकिस्तान की जनता भी अपनी सेना को विश्वासघाती के रूप में देखने लगी। वह सवाल करने लगी, पाकिस्तानी सेना अमरीका का युद्ध क्यों लड़े और तालिबान को क्यों मारे, जो आखिर मुसलमान ही तो हैं?

इस सवाल का सीधा सा जवाब यह है कि पाकिस्तानी सेना को इसके बदले अरबों डालर मिल रहे हैं, जिसके बिना पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था कब की लुढ़क चुकी होती। पर यह बेबाक उत्तर पाकिस्तानी जनता को कैसे दिया जा सकता था? अतः आईएसआई और पाकिस्तानी सेना एक दोगली नीती पर चलने लगी जिसे अंग्रेजी कहावत रनिंग विथ द हेर एंड हंटिंग विथ द डोग्स के रूप में अच्छी तरह व्यक्त किया जा सकता है। यह नीति कुछ यों थी -- पाकिस्तानी सेना अमरीका से तो कहती गई कि वह अफगान युद्ध में उसका साथी है, और अमरीका से अरबों डालर इसके एवज में ऐंठती रही, पर जब तालिबान से लड़ने की बारी आई तो वह खोमोश बैठी रही।

नतीजा यह हुआ कि तालिबान को पाकिस्तान में बेरोकटोक अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर मिल गया। अब ऐसा लगता है कि उसकी शक्ति इतनी बढ़ चुकी है कि वह पाकिस्तानी सेना या आईएसआई के नियंत्रण के बाहर हो चुका है। इतना ही नहीं पाकिस्तानी सेना के निचले स्तर के जवान तालिबानी संस्कृति में इतने रंग गए हैं कि वे तालिबान पर कभी हथियार नहीं उठा सकते। वे एक तरह से तालिबान के ही सदस्य जैसे हो गए हैं। यदि पाकिस्तानी फौज के आला अफसर तालिबान के विरुद्ध कार्रवाई का हुक्म भी दें, तो निचले स्तर के पाकिस्तानी जवान इस हुक्म की तामील न करें।

इस तरह अमरीका की मूर्खता, चीन की कूटनीति और पाकिस्तानी सेना और आईएसआई की मिली भगत से तालिबान इतना मजबूत हो गया है कि अब उसे अमरीका के लिए हरा पाना लगभग असंभव है।

अब भेद नीति ही बची रह गई है। नए अमरीकी राष्ट्रपति ने इसी का सहारा लेना तय किया है। अमरीका द्वारा अच्छे तालिबान और बुरे तालिबान में अंतर करने के पीछे यही रहस्य है। जो तालिबान अमरीकी डालरों के लिए बिकने को तैयार हैं, वे अच्छे तालिबान, और जो लड़ने पर उतारू हैं, वे बुरे तालिबान। अमरीका तालिबान को भीतर से तोड़कर कमजोर करना चाहता है। तालिबान विभिन्न अफगान कबीलों से बना है, जिनमें आपसी फूट भी है। अमरीका इस फूट का लाभ उठाकर उनमें से कुछ कबीलों को अपने साथ मिलाना चाहता है।

शायद पाकिस्तान ने ही अमरीका को यह पाठ पढ़ाया है। जब जनरल कियानी हाल में वाशिंगटन गया था, उसने अमरीका को साफ-साफ बता दिया होगा कि उसकी सेना के लिए अब तालिबान को अंकुश में रखना संभव नहीं है। हो सकता है कि पाकिस्तान ने यह भी कहा हो कि स्वयं पाकिस्तानी राज्य को तालिबान से खतरा है। पाकिस्तानी राष्ट्रपति जरदारी तो बारबार कह ही रहे हैं कि पाकिस्तान में तालिबान कभी भी सत्ता-पलट कर सकता है। पीकिस्तान में स्थिति के इस हद तक बिगड़ने से अमरीका घबरा उठा होगा क्योंकि यदि पाकिस्तन पर तालिबान का कब्जा हो जाए, उसके हाथों में पाकिस्तान का परमाणु बम भी आ जाएगा। परमाणु बम हाथ लगते ही तालिबान सचमुच अजेय हो जाएगा और अमरीका को अफगानिस्तान छोड़कर भागना पड़ेगा। यह सामरिक दृष्टि से अमरीका की करारी हार होती क्योंकि अफगानिस्तान से वह ईरान, चीन, रूस और भारत जैसे बड़े बड़े देशों को नियंत्रण में रखने की मंशा रखता है।

अफगानिस्तान से अमरीकी प्रभाव समाप्त होने के बाद ईरान और तालिबान के बीच मेल-जोल बढ़ सकता है। इससे खाड़ी क्षेत्र के अमरीका के अन्य मित्र देशों को भारी खतरा पैदा हो जाएगा। इनमें प्रमुख है इजराइल। दूसरी ओर अमरीका के इस क्षेत्र से पलायन करते ही ईरान और तालिबान को चीन अपनी छत्रछाया में ले लेगा, जिससे इस भूभाग के विशाल तेल संपत्ति पर उसका नियंत्रण हो जाएगा।

इस सब घटनाचक्र से भारत सब ओर से घाटे में रहेगा। पाकिस्तान पर तालिबान का कब्जा होने पर कश्मीर के अलगाववादियों में नया जोश भर जाएगा। उधर पाकिस्तान से शरणार्थी भारी मात्रा में भारत में घुसने लगेंगे। तालिबान के हाथों परमाणु बम आने से काबुल में अमरीका-पोषित वर्तमान सरकार गिर जाएगी और तालिबान वहां सत्ता संभाल लेगा। इससे अफगानिस्तान से भारतीय प्रभाव एक बार फिर समाप्त हो जाएगा। भारत की पश्चिमी सरहद पर पाकिस्तान से भी ज्यादा भारत से शत्रुता रखनेवाला तालिबान नजर आने लगेगा जिसका भारत के एक अन्य शत्रु चीन के साथ बड़े ही मधुर संबंध होंगे। इस संबंध का प्रयोग करके चीन भारत पर दबाव डालने लगेगा। संभव है कि भारत को कमजोर स्थिति में पाकर वह अरुणाचल आदि के संबंध में प्रतिकूल संधियां भी करा ले। खाड़ी प्रदेश में चीन, ईरान और तालिबान का प्रभाव बढ़ने से भारत को वहां से तेल मिलने में कठिनाई का समाना करना पड़ सकता है।

पर बात यहां तक आकर नहीं रुकेगी। अफगानिस्तान और पाकिस्तान पर अपना राज्य स्थापित करके तालिबान शांत नहीं होगा, बल्कि विजय दर्प में भारत, अमरीका, इजराइल आदि पर हमले करने की भी कोशिश करेगा, क्योंकि उसे चीन और ईरान के समर्थन का भरोसा होगा। इससे तृतीय विश्व युद्ध की नौबत आ सकती है।

इसलिए तालिबान से खिलवाड़ करने से पहले अमरीका को दो बार सोच लेना चाहिए। यदि वह इतिहास से कुछ सीखना चाहे, तो द्वितीय विश्व युद्ध में भी ब्रिटन आदि पश्चिमी देशों ने नाजी जर्मनी के साथ ऐसे ही समझौते किए थे और हर समझौते से हिटलर और मजबूत हो उठा था। अंत में उसने सारे यूरोप में अपनी सेनाएं भेजकर भयंकर नरसंहार मचा दिया था।

अब लगता है कि अमरीका वही पुरानी गलती दुहरा रहा है। स्थिति वही है केवल खिलाड़ियों ने स्थान बदल लिए हैं। नाजी जर्मनी की जगह तालिबान है, नाजियों से समझौते करनेवाले ब्रिटेन की जगह अमरीका है, युद्ध के लगभग अंत तक तटस्थ रहते हुए अपनी शक्ति बरकरार रखनेवाले अमरीका की जगह चीन है। यदि युद्ध छिड़ जाए, तो जिस तरह जर्मनी और ब्रिटन दोनों ही तबाह हुए थे, वैसे ही तालिबान और अमरीका और उसके मित्र देश तबाह हो जाएंगे, और इस विध्वंस से चीन उसी तरह अधिक शक्तिशाली होकर उभरेगा जैसे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमरीका उभरा था।

इस तरह ऐसा लगता है कि आनेवाले वर्षों में भारी उथल-पुथल मचने वाला है जो दुनिया के नक्शे को ही और वर्तमान शक्ति-संतुलन को ही बदलकर रख देगा। द्वितीय विश्व युद्ध के विजेताओं ने अपने पक्ष में जो तंत्र रचा था, लगता है, उसका समय अब बीतने वाला है। उसकी जगह एक नया शक्ति संतुलन आ सकता है जिसमें चीन का स्थान सर्वोपरि होगा। (समाप्त)

1 Comment:

RAJNISH PARIHAR said...

तालिबान का एक ऐसा होव्वा खडा कर दिया है..अमेरिका ने....पूरे मिडिया में ये छाया हुआ है...जबकि आपने जो संदेह व्यक्त किये है...वैसा कुछ होने वाला है नहीं...!अमेरिका का डूबना और चीन का उभरना...आदि संभव तो है..मगर....बहुत मुश्किल से ही हो पायेगा ये सब...क्यूंकि समीकरण रोजाना बनते..बिगड़ते है...

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