Tuesday, March 10, 2009

पाकिस्तानी बम पर गढ़ी है तालिबानी नजर

तालिबान के कब्जे में पाकिस्तानी परमाणु अस्त्र का आना एक गंभीर और वास्तविक खतरा है, जिसके भारत के लिए और समस्त दुनिया के लिए दूरगामी परिणाम होंगे।

रणनीतिक दृष्टि से देखें, तो अमरीका से पिंड़ छुड़ाने के लिए तालिबान के पास पाकिस्तानी बम पर कब्जा करने के सिवा और कोई विकल्प रह भी नहीं गया है, क्योंकि वह अमरीका के साथ सीधी लड़ाई जीत नहीं सकता। इसलिए वह परमाणु बम प्राप्त करने की ओर पुर-जोर कोशिश करेगा।

पाकिस्तानी बम तालिबान के हाथ पड़ते ही अमरीका को अफगानिस्तान छोड़कर भागना पड़ेगा। अमरीका कभी भी परमाणु बम के खतरेवाले युद्ध में अपने सैनिकों को नहीं उतारेगा। वह युद्ध भूमि में अपने सैनिकों की इतनी मौतें कभी बर्दाश्त नहीं कर सकेगा।

पाकिस्तानी बम तालिबानों के हाथ लगते ही, पाकिस्तानी सेना में भी विभाजन हो सकता है। उसका एक भाग तालिबान को अजेय मानकर उसके साथ हो जाएगा। इस विभाजन से पाकिस्तानी सेना की लड़ने की क्षमता समाप्त हो जाएगी और तालिबान की उतनी ही मजबूत। तब उसे पाकिस्तान को हजम करने से कोई नहीं रोक सकेगा। यदि ऐसा हुआ तो एक बार फिर विभाजन के समय का और बंग्लादेश के बनने के समय का घटनाचक्र घूम उठेगा और लाखों पाकिस्तानी शरणार्थी तालिबान से भागते हुए गुजरात, राजस्थान, पंजाब आदि सरहदी क्षेत्रों में प्रवेश करेंगे। इस तरह इतिहास एक पूरा चक्कर घूम जाएगा, धार्मिक कट्टरता के आधार पर बने पाकिस्तान के नागरिक धर्मनिरपेक्ष भारत की शरण में आने को मजबूर हो जाएंगे, और दो राष्ट्रों के अपने सिद्धांत को उन्हें थूक कर चाटना पड़ेगा।

तालिबान के हाथ बम आते ही, वह उसका प्रयोग दिल्ली, अमृतसर या अन्य किसी भारतीय शहर पर कर सकता है। वह इसलिए ऐसा करेगा, क्योंकि पाकिस्तान के पास अभी ऐसे प्रक्षेपास्त्र नहीं हैं, जो इन अस्त्रों को न्यूयोर्क, वाशिंगटन या लंदन तक ले जा सकें। इसलिए तालिबान अपने निकट के अमरीकी मित्रों की कनपटी पर परमाणु बम रखकर अमरीका पर दबाव डालने की कोशिश करेगा। तालिबान के लिए सबसे नजदीक भारत ही है, जिसे वह अमरीका परस्त मानता है क्योंकि भारत अफगानिस्तान की वरतमान सरकार के साथ मिल-जुलकर काम कर रहा है। हां, इजराइल एक अन्य निशाना हो सकता है।
दिल्ली, इजराइल आदि पर एक आध बम गिराकर तालिबान अमरीका को अल्टीमैटम देगा कि अफगानिस्तान से तुरंत दफा हो जाओ वरना यही क्रम दुहराया जाएगा। जापान को हराने के लिए अमरीका ने भी यही रणनीति अपनाई थी। उसने हिरोशिमा, नागासाकी आदि पर परमाणु बम गिराए, और यह जाहिर कर दिया कि जब तक जापानी सेना हथियार न डाले, वह जापान के अन्य शहरों पर भी परमामु बम गिराता जाएगा और जापान को तबाह कर देगा। इस तरह दिल्ली के बाद चंडीगढ़, लखनऊ, इलाहाबाद, अहमदाबाद आदि का नंबर आ सकता है।

यदि पाकिस्तान का वजूद नष्ट हो जाए, तो ये सब घटनाएं संभव हैं। पाकिस्तन के पश्चिमी सरहदों में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के तालिबानी क्षेत्रों में एक नए कबीलाई राष्ट्र का उदय हो रहा है, लगभग उसी तरह जैसे मध्य युग में चंगेस खान मध्य एशिया में शक्तिशाली हुआ था। उसने तब स्पेन से लेकर चीन तक के विशाल भूभाग को हिलाकर रख दिया था।

तालिबान के कब्जे में पाकिस्तान के परमाणु अस्त्र आने को रोकने के लिए यदि इजराइल अथवा अमरीका पाकिस्तान के परमाणु जखीरों पर एहतियाती हमले करें, तो इससे तीसरे विश्व युद्ध की नौबत आ सकती है, क्योंकि इसके प्रतिकार में चीन जरूर पाकिस्तान के पक्ष में युद्ध भूमि में उतर पड़ेगा। चीन चाहता है कि तालिबान उसके अंकुश के अधीन रहे, क्योंकि यदि ऐसा नहीं हुआ, तो वह अपने मुसलमान इलाकों में तालिबानी विचारधारा को फैलने से रोक नहीं पाएगा। यदि तालिबानी विचारधाराएं चीन के मुसलमानों में फैल जाए, तो चीन के ये इलाके अलग होकर तालिबान से मिल सकते हैं अथवा स्वतंत्र राज्य बन सकते हैं। चीन यह कभी नहीं चाहेगा। इसलिए चीन तालिबान को शह देता जाएगा और उसे अपने वर्चस्व में रखने की कोशिश करेगा। चीन तालिबान का उपयोग अमरीका को कमजोर करने के लिए भी करना चाहता है। चीन अमरीका को अपना दीर्घकालिक प्रतिद्वंद्वी समझता है। जिस तरह रूस को कमजोर करने के लिए अमरीका ने तालिबान को मजबूत किया था, वैसे ही अब चीन अमरीका को कमजोर करने के लिए तालिबान का उपयोग कर रहा है। तालिबान को हथियार देकर वह अमरीका को अफगानिस्तान-पाकिस्तान में लंबे युद्ध में फंसाए रखने में सफल हो रहा है। यदि अमरीका को कुछ और सालों के लिए अफगानिस्तान-पाकिस्तान में फंसाकर रखा जा सके, तो वह आर्थिक रूप से तबाह हो जाए, और चीन को चुनौती देने की उसकी क्षमता कमजोर हो जाए।

ऐसे में अमरीकी अथवा इजराइली हमला होने पर यदि तालिबान चीन से मदद मांगे, तो चीन इनकार नहीं करेगा। चीन, तालिबान और पाकिस्तान के बीच के गठजोड़ के संकेत अभी से मिलने लगे हैं। चीन पाकिस्तानी सेना और तालिबान दोनों को ही हथियार बेचता है। चीन, पाकिस्तान और तालिबान का यह गठजोड़ द्वितीय विश्व युद्ध के समय जर्मनी, इटली और जापान के गठजोड़ के समान होगा, और उसके सामने होगी अमरीका, ब्रिटन, इजराइल आदि पश्चिमी देशों की सेनाएं। इससे अमरीका और चीन में सीधा युद्ध छिड़ जाएगा, कुछ-कुछ वैसे ही जैसे द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटन और जर्मनी के बीच युद्ध हुआ था। यानी इक्कीसवीं सदी की दो महाशक्तियां आपस में टकराएंगी। भारत या तो अमरीका के पक्ष में युद्ध में कूद पड़ेगा, अथवा ईरान, रूस, इंडोनीशिया, मलेशिया आदि की तरह तटस्थ रहेगा। लेकिन यदि युद्ध विश्व स्तर का छिड़ जाए, तो भारत अधिक दिन तक तटस्थ रह भी नहीं पाएगा। यदि भारत युद्ध में खिंच जाए, तो उसके दशकों के आर्थिक-औद्योगिक विकास पर पानी फिर जाएगा। इसकी भी संभावना रहेगी कि भारतीय सेना को विश्व युद्ध में उलझा पाकर नक्सली और माओवादी ताकतें पूरे देश पर अथवा देश के अधिकांश हिस्सों पर साम्यवादी स्वतंत्र राज्य बना लें। ऐसे राज्य को सफल नेतृत्व देने के लिए भारत में अनुभवी साम्यवादी दल पहले से ही मौजूद है। रूस में भी साम्यवादी क्रांति द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में ही हुई थी। याद रखना चाहिए कि चंद्रगुप्त मौर्य ने ढाई हजार साल पहले लगभग ऐसी ही परिस्थितियों का लाभ उठाकर इन्हीं प्रदेशों में यानी आजकल के बिहार-मध्य प्रदेश वाले इलाके में मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी जो समस्त उत्तर और मध्य भारत में लगभग ढाई सौ सालों तक राज्य करता रहा। उस समय सिकंदरी हमले से मगध के उत्तर-पश्चमी भागों में अराजकता फैली हुई थी, जैसे आज पाकिस्तान-अफगानिस्तान में फैली है।

इन सब गतिविधियों का भारत पर क्या असर पड़ सकता है, इसके बारे में सोचकर भी दिल कांप उठता है। तालिबानी हमले से बचने के लिए भारत को अपनी राजधानी दिल्ली से हटाकर नागपुर, पटना अथवा हैदराबाद ले जाना पड़े। यदि ऐसा हुआ, तो जैसे तुगलक के जमाने में हुआ था, दिल्ली एक बार फिर वीरान हो जाएगी।

हमें इतिहास से सबक लेना चाहिए। भारत पर पश्चिमी सरहदों से ही हमले होते रहे हैं, और हमने कई बार अपनी आजादी इन हमलावरों के हाथों खोई है। ऐसा न हो कि इक्कीसवीं सदी में भारत को तालिबान के रूप में एक और गजनी, गौरी, बाबर, या तैमूर का सामना करना पड़े।

भारतीय राज्य इतना अमरीका परस्त हो गया है कि वह पाकिस्तान-अफगानिस्तान में हो रहे इन बुनियादी परिवर्तनों का बस मूक दर्शक बना हुआ है, हालांकि उसमें उसकी भी तबाही के बीज विद्यमान हैं। वह सोच रहा है कि अमरीका इस समस्या का समाधान कर लेगा। नए अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा पर उसकी आशाएं टिकी हुई हैं। ईराक से अमरीकी सेना वापस बुला लेने को लेकर भी भारत उत्साहित है। वह सोच रहा है कि अब अमरीका अपनी पूरी ताकत अफगानिस्तान-पाकिस्तान में लगाएगा।
पर ये भारतीय आशाएं मिट्टी में मिल सकती हैं, यदि अमरीका का वर्तमान आर्थिक संकट बना रहा अथवा और गहराता गया। ऐसी स्थिति में अमरीका में इतनी कुव्वत बची नहीं रहेगी कि वह अफगानिस्तान-पाकिस्तान में एक लंबा युद्ध छेड़ता जाए। ईराक-अफगानिस्तान में अब लगभग सात-आठ सालों से वह युद्ध में फंसा हुआ है, जो हर साल उसके लिए अरबों डालर का खर्च करा रहा है। क्या आर्थिक महासंकट से कंगाल हुआ अमरीका इस स्तर का खर्च अधिक समय जारी रख सकेगा?

यदि अर्थ-संकट गहराने से अमरीका मजबूर होकर अफगानिस्तान-पाकिस्तान से हाथ खींच ले, तो यह तालिबान और चीन की स्पष्ट विजय होगी। अमरीका के हटते ही, तालिबान पाकिस्तान-अफगानिस्तान पर अपना एकछत्र वर्चस्व स्थापित कर लेगा और पाकिस्तान को हजम कर लेने के बाद वह चीनी शहजोरी में अपनी विनाशकारी नजर भारत की ओर करेगा।

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