पेशावर स्कूल हमले के बाद भारत के अनेक लोगों ने यह आशा व्यक्त की है कि शायद इस हादसे के बाद पाकिस्तान की अक्ल ठिकाने आएगी और वह आतंकवाद को पालने-पोसने से बाज़ आएगा। लेकिन इसकी ज़रा भी संभावना नहीं है।
पेशावर के फ़ौजी स्कूल में बहे पाकिस्तानी फ़ौजियों के बच्चों का ख़ून और उनकी माँओं के आँसू अभी सूखे भी न थे कि लाहौर की एक अदालत ने मुंबई हत्याकांड के प्रमुख संचालक और लश्कर-ए-तोइबा के कमांडर ज़ाकिर रहमान लख़वी की ज़मानत पर रिहाई मंजूर कर ली।
यह शायद हमारे गृह मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा पाकिस्तान से मुंबई हत्याकांड के एक अन्य प्रमुख आरोपी हाफ़िज़ साईद को भारत के हवाले करने की माँग का परोक्ष उत्तर था। हाफ़िज़ पाकिस्तान में खुले आम घूम रहा है और अभी हाल में जब पाकिस्तानी फ़ौज कश्मीर में आतंकियों को घुसाने के लिए सरहद पर फ़ायरिंग कर रही थी, सरहद के पास भी इसे देखा गया था। इतना ही नहीं इसने कुछ ही दिन पहले लाहौर के मीनार-ए-पाकिस्तान के मैदान में एक बड़ी रैली भी आयोजित की, जिसके लिए लोगों को लाहौर लाने के लिए पाकिस्तान सरकार ने ख़ास रेलगाडियाँ चलाईं। इससे पता चलता है कि हाफ़िज़ एक तरह से पाकिस्तानी फ़ौज और वहाँ की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई का घर-जमाई है और पाकिस्तान का इन आतंकियों से नाता तोड़ने का कोई इरादा नहीं है।
पेशावर हमले की निंदा वहाँ के नेताओं और फ़ौज को मजबूरन करनी पड़ रही है, पर इससे पाकिस्तान की केंद्रीय नीति में कोई भी परिवर्तन आने के आसार नहीं है क्योंकि इसी नीति पर पाकिस्तानी मुल्क का वजूद टिका है। ध्यान रहे, पेशावर हमले की निंदा करते हुए तहरीख-ए-पाकिस्तान पार्टी के नेता इमरान खान पाकिस्तानी तालिबान का नाम लेने से साफ मुकर गए, हालाँकि इस हमले के लिए पाकिस्तानी तालिबान ने ज़िम्मेदारी क़बूल कर ली है और कहा है कि यह हमला वज़ीरिस्तान में पाकिस्तानी फ़ौज द्वारा मासूम पख्तून निवासियों को मारने के बदले में किया गया है।
पाकिस्तान जानता है कि सैनिक होड़ में वह भारत का मुक़ाबला नहीं कर सकता है, भले ही उसके पास परमाणु बम क्यों न हो। इसलिए शुरू से ही वह ग़ैर-सैनिक ज़रियों से भारत को कमज़ोर करने की नीति पर चलता आ रहा है। इसे वह हज़ार घावों से ख़ून बहाकर भारत को घुटनों पर लाने की नीति कहता है। इसे अंजाम देने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज ने और खास तौर से उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई ने दाऊद इब्राहीम, हाफ़िज़ साईद, और तालिबान जैसे अनेक ग़ैर-सरकारी ताकतों को पालकर खड़ा किया है और इन्हें वह भारत में आतंक फैलाने के लिए समय-समय पर छोड़ता रहता है।
तालिबान को उसने अमरीका की सहायता से तब खड़ा किया था जब सोवियत संघ ने अफ़गानिस्तान पर कब्ज़ा करके वहाँ नजीबुल्ला की पाकिस्तान-विरोधी सरकार स्थापित की थी। अफ़गानिस्तान को पाकिस्तान अपने ही मुल्क का पिछवाड़ा मानता है और वहाँ ऐसी किसी भी सरकार को बर्दाश्त नहीं करता है जिसकी बागडोर पाकिस्तान के फ़ौजी जनरलों या आईएसआई के हाथों में न हो। इसलिए नजीबुल्ला सरकार को गिराने के लिए उसने तालिबान को पाला पोसा और इस तालिबान ने ओसामा बिन लादेन जैसे सौउदी धन्ना-सेठ और कट्टर सुन्नी और वहबी इस्लामी विचारधारा के पैरोकारों की मदद से सोवियत संघ को अफ़गानिस्तान छोड़ने पर मजबूर कर दिया और वहाँ तालिबान की सरकार कायम कर दी।
इसके बाद पाकिस्तान के दुर्भाग्य से ओसामा बिन लादेन के अल-क़ायदा ने अमरीका में हवाई जहाजों को मिसाइलों के रूप में उपयोग करके न्यू योर्क में ट्विन-टावर को धराशायी कर दिया। इसमें 3,000 से अधिक अमरीकी नागरिक मरे। इससे भी बड़ी बात यह थी कि द्वितीय विश्व युद्ध में जापान द्वारा पर्ल हार्बर पर समुद्री हमले के बाद यह पहली बार अमरीका की ज़मीन पर किसी ने हमला किया था। अब तक अमरीका यही समझ रहा था कि उसके देश पर कोई भी हमला नहीं कर सकता है। न्यू योर्क हमले ने अमरीकियों की इस ख़ुश-फ़हमी को सदा-सदा के लिए खत्म कर दिया।
इस हमले का बदला लेने के लिए अमरीकी सेना अफ़गानिस्तान में उतरी और उसने तालिबान को काबुल से खदेड़कर हमीद करज़ई को राष्ट्रपति बना दिया। इस लड़ाई में उसने पाकिस्तान को भी शामिल होने के लिए मजबूर कर दिया। अमरीका ने पाकिस्तान को अल्टिमैटम दे डाला कि लड़ाई में शामिल हो जाओ, वरना हम पाकिस्तान पर इतने बम बरसाएँगे कि वह पत्थर युग में पहुँच जाएगा।
पाकिस्तान को इस धमकी को गंभीरता से लेने में ही समझदारी लगी और वहाँ के तानाशाह राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ़ ने अमरीकियों का साथ देना क़बूल किया, पर आधे मन से ही। वह अमरीकियों के साथ लड़ता भी रहा और तालिबान को बचाने के लिए यथा-शक्ति छिपी कोशिश भी करता रहा। यही कारण है कि अमरीका अफ़गानिस्तान में तालिबान को सफ़ाई के साथ हरा नहीं सका न ही वह ओसामा बिन लादेन को ही पकड़ सका क्योंकि वह पाकिस्तानी फ़ौज की एक छावनी अबोट्टाबाद में सुरक्षित रूप से पाकिस्तानी फ़ौज द्वारा छिपाया गया था जहाँ वह पाकिस्तानी फ़ौज के संरक्षण में अपनी बीवियों और बच्चों के साथ मज़े से रह रहा था। आखिर अमरीका को अपने सीलों को भेजकर रात के अँधेरे में इस तरह उसका वध करवाना पड़ा कि पाकिस्तानी फ़ौज को इसकी भनक तक न लग पाए।
जब तालिबान सरकार सत्ताच्युत हुई तो तालिबानी लड़ाकू पूरे अफ़गानिस्तान में और पाकिस्तान के सरहदी इलाकों में भागकर फैल गए और वहाँ से वे अमरीका के विरुद्ध छापेमार युद्ध लड़ते रहे। पाकिस्तान में जो तालिबान फैल गए थे, वे ही पाकिस्तानी तालिबान के रूप में जाने जाते हैं और उनका अफ़ागानी तालिबान के साथ घनिष्ट संबंध है। दोनों का अंतिम ध्येय है अफ़गानिस्तान में अमरीका द्वारा स्थापित सरकार को अपदस्थ करके तालिबानी सरकार दुबारा क़ायम करना। यही ध्येय पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई का भी है।
अमरीकी दबाव में आकर पाकिस्तानी फ़ौज को अफ़गानी तालिबान पर कुछ कार्रवाई करनी पड़ी है जिससे तालिबान उनसे काफ़ी रुष्ट हो गया है। इसी तरह तालिबान का पाकिस्तानी हिस्सा जब पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा को पार करने लगा, तब भी पाकिस्तानी फ़ौज को पाकिस्तानी तालिबान के विरुद्ध कार्रवाई करनी पड़ी है। ऐसा एक बार तब हुआ जब पाकिस्तानी तालिबान ने स्वात घाटी में अपना वर्चस्व फैला लिया और वहाँ शरीयत लागू करके अपराधियों का सिर कलम करना, हाथ काटना, कोड़े लगाना, पत्थर फेंककर मरवाना आदि इस्लामी दंड लागू करने लगा था। इसी तालिबान ने वहाँ लड़कियों को स्कूल जाने से भी मना कर दिया था और इस निषेध का उल्लंघन करने के लिए ही मलाला यूसुफ़ज़ई नामक 15 साल की लड़की के सिर पर एक तालिबानी कमांडर ने गोली दाग दी थी। ईश्वर की कृपा से वह बच गई और उसे लंदन में शरण मिल गई। इसी लड़की को अभी हाल में भारत के कैलाश सत्यार्थी के साथ नोबल पुरस्कार मिला है।
जब यह स्पष्ट होने लगा कि अमरीका अफ़ागन युद्ध में कहीं आगे नहीं बढ़ रहा है और जल्द वहाँ से बोरियाँ-बिस्तर बाँधनेवाला है, तो तालिबान का भी हौसला बुलंद होने लगा। वह अपनी शक्ति बटोरने लगा ताकि अमरीकी सेना के निकलते ही वह अफ़गानिस्तान पर फिर से कब्ज़ा जमा सके। इस नए हौसले ने पाकिस्तानी तालिबान को भी मदहोश कर दिया है और वह पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई द्वारा उस पर कसा गया नकेल तोड़ने के लिए कसमसा रहा है। उसे यह उम्मीद भी बनती जा रही है कि उसके लिए अफ़गानिस्तान पर ही नहीं बल्कि पाकिस्तान पर भी कब्ज़ा करना और इस तरह पाकिस्तानी फ़ौज के पास मौजूद परमाणु हथियार पर नियंत्रण पाना शायद मुमकिन है। परमाणु हथियार हाथ आते ही, उन्हें इराक में उनके बंधु-बांधव आईसिस के हवाले करके वहाँ से भी अमरीका को खदेड़ना संभव हो सकेगा। इस तरह आईसिस द्वारा घोषित ख़िलाफ़त की नींव और भी पक्की हो सकेगी। तालिबान ने पहले से ही आईसिस को अपना समर्थन घोषित कर दिया है।
इस विचार को अंजाम देने के लिए पाकिस्तानी तालिबान धीरे-धीरे कोशिश कर रहा है। अभी हाल में उसके एक कुमुक ने कराची हवाई अड्डे पर कब्ज़ा कर लिया था, और एक अन्य दल ने पाकिस्तानी नौसेना के एक युद्ध-पोत पर कब्ज़ा करने की कोशिश की थी।
तालिबान ने समस्त पाकिस्तान में इस्लामी और सुन्नी वहबी विचारधारा को भी इतना फैला दिया है कि वहाँ उसके इमरान खान जैसे शक्तिशाली समर्थक हो गए हैं। इमरान खान की तहरीख-ए-पाकिस्तान पार्टी खैबर-पक्तून ख्वाह प्रांत में सरकार चला रही है, और अभी हाल में उसने कनाडावासी इस्लामी मौलवी ताहिर उल कादिर के साथ मिलकर इस्लामाबाद में ऐसी जबर्दस्त हड़ताल आयोजित की कि कई दिनों तक पाकिस्तानी सरकार ठप्प पड़ गई और पाकिस्तान के सदाबहार मित्र चीन के राष्ट्रपति तक को अपनी पाकिस्तानी दौरा रद्द करना पड़ा। इमरान खान तालिबान और शरियत क़ानून का प्रबल समर्थक है और पाकिस्तानी युवाओं में उसकी काफी धाक है।
दूसरी ओर मुंबई हमले के कर्ता-धर्ता हाफ़िज़ साईड का संगठन लश्कर-ए-तोइबा का भी पाकिस्तान में काफी रुतबा है। यह संगठन पकिस्तान में हज़ारों मदरसे चलाता है जहाँ कट्टर वहबी इस्लामी विचारों का प्रचार होता है। यह संगठन बाढ़, भूकंप आदि विपदाओं में राहत कार्य चलाकर भी लोगों के दिलों में जगह बनाता है। उसे साउदी अरब से अकूत दौलत भी प्राप्त होती है। इतना ही नहीं, पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई भी उसे सभी सहूलियतें मुहैया कराती हैं। इसके बदले वह भारत के विरुद्ध आतंकी हमले आयोजित करता है और काश्मीर में अशांति फैलाकर पाकिस्तानी फ़ौज की मदद करता है।
इस तरह जिस पाकिस्तानी तालिबान ने पेशावर स्कूल में कत्ले-आम किया है, वह पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई का ही बनाया हुआ है और उसे बनाने के पीछे पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई के खास मकसद हैं। ये हैं अफ़गानिस्तान में पाक-समर्थक सरकार खड़ा करना और भारत के विरुद्ध ग़ैर-सैनिक आतंकी कार्रवाई कराने में उसकी मदद करना।
पर पाकिस्तानी फौज़ की बनाई हुई चीज़ होने पर भी तालिबान कई बार किसी उद्दंड संतान की तरह अपने ही पिता के निर्देशों का उल्लंघन कर देता है, और तब पाकिस्तानी फ़ौज उसे दंडित करके सही रास्ते पर ले आती है। ऐसा कई बार हुआ है, जैसे स्वात घाटी में और अभी वज़ीरिस्तान में जर्द-ए-अज़्ब नामक सैनिक कार्रवाई में, जिसके तहत सैकड़ों तालिबानी लड़ाकों को और हज़ारों पख्तून निवासियों को पाकिस्तानी फ़ौज ने मार डाला है।
इसी का बदला लेने के लिए पाकिस्तानी तालिबान ने पेशावर स्कूल हमला कराया है। पाकिस्तानी तालिबान चाहती है कि पाकिस्तानी फ़ौज भी वही दर्द और पीड़ा महसूस करे जो अपनों के मारे जाने पर होता है और जिसे वज़ीरिस्तान में पाकिस्तानी फ़ौजी कार्रवाई में मारे गए पख्तूनों के कारण तालिबान को महसूस हुआ था। इसीलिए पाकिस्तान ने पेशावर के सैनिक स्कूल को चुना था क्योंकि वहाँ पाकिस्तानी फ़ौजियों के बच्चे पढ़ते हैं और इन बच्चों के मारे जाने पर पाकिस्तानी फ़ौज को वही दुख-दर्द महसूस होगा जो तालिबान को वज़ीरिस्तान में पाकिस्तानी फ़ौज के हाथों अपनों के मारे जाने पर हुआ था।
इसलिए पेशावर हमले को आतंकी हमला मानना पूरी तरह से ठीक नहीं होगा। यह प्रतिशोध की कार्रवाई है, और दो ऐसे पक्षों के बीच की रस्सा-कशी है जो एक-दूसरे को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश में हैं। पाकिस्तानी फ़ौज चाहती है कि तालिबान वही करे जो उसका हुक्म हो, और तालिबान पाकिस्तान पर कब्ज़ा करके उसके परमाणु हथियारों और अन्य सैनिक साज-सामानों को हथियाना चाहती है ताकि उसकी मदद से उसके वैचारिक भाई आईसिस इराक में इस्लामी खिलाफ़त को सुदृढ़ बना सके।
युद्धरत पक्षों के बीच इस तरह की प्रतिशोधात्मक कार्रवाई अक्सर होती रहती है। जो महाभरत से वाकिफ़ हैं, वे जानते होंगे कि महाभारत युद्ध में भी ऐसी ही एक कार्रवाई को कौरवों ने अंजाम दिया था। युद्ध के अंतिम दिनों जब पांडवों ने एक अर्ध-सत्य का सहारा लेकर कौरवों की तरफ़ से लड़ रहे उनके गुरु और कौरव सेनापति द्रोणाचार्य की हत्या करा दी थी, तो द्रोणाचार्य के पुत्र और दुर्योधन के मित्र अश्वत्थामा ने कृतवर्मा और कृपाचार्य का साथ लेकर रात के अँधेरे में पांडवों के शिवर में घुसकर वहाँ सो रहे सभी को मारकर इसका बदला लिया था। मारे गए व्यक्तियों में द्रौपदी के पाँच बच्चे भी शामिल थे। पांडव इसलिए बच पाए क्योंकि वे उस समय वहाँ नहीं थे।
भारत के लिए यह सब अत्यंत चिंता का विषय है क्योंकि चाहे तालिबान जीते या पाकिस्तानी फ़ौज, दोनों स्थितियों में उसे नुकसान होनेवाला है। यदि तालिबान पाकिस्तान को हज़म कर जाए, तो परमाणु बम से लैंस एक ऐसी शत्रुतापूर्ण शक्ति भारत की सरहदों पर उभर आएगी, जो भारत के प्रति आज के पाकिस्तान से हज़ार गुना द्वेष रखती है। और यदि पाकिस्तानी फौज़ तालिबान को दंडित और अनुशासित करने में क़ामयाब होती है, तो आनेवाले दिनों में यह तालिबान और हाफ़िज़ साईद जैसे आतंकी पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई के इशारों पर भारत पर आजकल से कहीं अधिक विस्तार से हमले कराएँगे।
इसलिए पाकिस्तान के घटनाचक्र पर भारत को पैनी निगाह रखनी होगी और उसे हर स्थिति का मुक़ाबला करने के लिए मुस्तैद होना पड़ेगा।
4 Comments:
हालतों पर गंभीर चिंतन प्रस्तुति के लिए आभार!
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