महाराष्ट्र के विधान सभा चुनाव के दौरान भाजपा-शिव सेना गठबंधन को तोड़ते हुए शिव सेना ने भाजपा पर अफ़ज़ल खान की सेना होने का आरोप लगाया था। उस समय शिव सेना चुनाव में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त थी और महाराष्ट्र में वरिष्ठ हिंदुत्ववादी पार्टी होने का उसे घमंड भी था।
चुनाव परिणाम आते ही शिव सेना की सारी आशाएँ चौपट हो गईं, क्योंकि इतिहास को नकारते हुए अफ़ज़ल खान की सेना शिव सेना पर विजय हासिल कर गई। जैसा कि हारी हुई सेना के साथ अक्सर होता है, शिव सेना को अपनी हार के बाद एक के बाद एक करके अनेक अपमान सहने पड़े। शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने उम्मीद की थी कि चूँकि चुनाव में स्पष्ट बहुमत किसी भी पार्टी को नहीं मिला है, भाजपा उसके सहयोग के बिना सरकार नहीं बना पाएगी, और इस सुखद परिस्थिति का लाभ उठाकर वे भाजपा से मनमाना दाम वसूल कर सकेंगे। चुनाव के तुरंत बाद ही उद्धव ने अपने लिए उप-मुख्यमंत्री पद तक माँग लिया।
पर घटनाएँ अलग ही मार्ग पर चल पड़ीं। चाणक्य-बुद्धि रखनेवाले शरद पवार ने चुनाव परिणाम आते ही, बिना किसी शर्त भाजपा को अपनी पार्टी का बाहरी समर्थन घोषित कर दिया। इससे विधान सभा में भाजपा के पास विधायकों की इतनी संख्या हो गई कि वह किसी भी दूसरे दल की सहायता के बिना सरकार बना सके। इस तरह शरद पवार ने भाजपा के लिए विधान सभा में शिव सेना के समर्थन को बिलकुल महत्वहीन कर दिया। एक बार फिर उद्धव की सारी आशाओं पर पानी फिर गया।
दरअसल उद्धव की हालत अत्यंत हास्यास्पद और शोचनीय हो गई है। सबके सामने यह स्पष्ट हो गया है कि उद्धव में उतनी राजनीतिक परिपक्वता और चतुराई नहीं है जितनी शरद पवार जैसे मँजे हुए नेताओं में है, या उनके ही पिता बाल ठाकरे में थी। बाल ठाकरे का रुतबा इतना था कि अटल बिहारी वाजपायी और आडवानी जैसे चोटी के नेता तक उनके सामने झुक जाते थे। उद्धव ने यह मानने की गलती की कि अपने पिता का यह रुतबा उन्हें विरासत में मिल गया है और भाजपा के वरिष्ठ नेता भी मातोश्री (ठाकरे परिवार का निवास स्थान) में जी-हुज़ूरी करने आ पहुँचेंगे।
पर जिस तरह की राजनीति शिव सेना खेलती है, उसका नरेंद्र मोदी के उदय के बाद पैदा हुई भाजपा की नई परिस्थितियों में कोई स्थान नहीं था। नरेंद्र मोदी गठबंधन वाली सरकारों की खामियाँ-बुराइयाँ खूब देख चुके थे – स्वयं अपनी पार्टी के अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधान मंत्रित्व के समय और कांग्रेस की यूपीए सरकार के समय। आम चुनाव में ही उन्होंने एक ही पार्टी (यानी भाजपा) की बहुमत पर टिकी सरकार बनाने का लक्ष्य रख लिया था। अमित शाह के कुशल नेतृत्व में और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विशाल भारत-व्यापी नेटवर्क की मदद से वे अपना लक्ष्य हासिल भी कर सके।
अब पूरे देश में राजनीतिक समीकरण बदल गया था, और क्षेत्रीय दलों के दिन लद से गए थे। हरियाणा और महाराष्ट्र में भी भाजपा अपने दम पर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। अब उसकी निगाहें जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, तमिल नाड, केरल आदि राज्यों पर गढ़ी हैं जहाँ आनेवाले महीनों में चुनाव होनेवाले हैं और जहाँ सब भाजपा सबसे प्रमुख दल के रूप में उभरना चाहती है।
इसके लिए यह आवश्यक है कि भाजपा अपनी सोच को क्षेत्रीय दायरों से उठाकर राष्ट्रव्यापी स्तर पर ला टिकाए। यहीं भाजपा की राजनीति शिव सेना जैसे क्षेत्रीय दलों की राजनीति से अलग पड़ती है। शिव सेना मराठी मानुस के इर्द-गिर्द राजनीति खेलती है और मराठी भाषियों में अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए निरंतर ग़ैर-मराठियों पर धावे बोलती है। उसकी इस कुत्सित राजनीति के शिकार अलग-अलग समयों में मद्रासी, गुजराती, मुसलमान, बिहारी आदि बन चुके हैं। जब तक भाजपा विपक्ष में थी, इस तरह की राजनीति खेलनेवाली किसी पार्टी के साथ उठने-बैठने से उसका कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होता था। लेकिन जब केंद्र में देश की बागडोर उसके हाथ में आ गई है और उसका लक्ष्य देश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरना बन गया है, तब इस तरह की बाँटने और और भाई को भाई से लड़ानेवाली राजनीति उसके लिए काफी महँगी साबित हो सकती है।
महाराष्ट्र के चुनावों के दौरान भी भाजपा की निगाहें उत्तर प्रदेश और बिहार के चुनावों पर टिकी हुई थीं। उत्तर प्रदेश और बिहार में चुनाव जीतने के लिए बिहारियों और उत्तर प्रदेशियों पर ज़ुल्म करनेवाली शिव सेना जैसी पार्टियों से नाता तोड़ना बिलकुल आवश्यक था, वरना इन राज्यों के चुनाव प्रचार के दौरान वहाँ के मतदाता भाजपा से शिव सेना जैसे उन्हें उत्पीड़ित करनेवाले दल के साथ भाजपा के संबंध को लेकर टेढ़े और कठिन सवाल पूछ सकते थे। इसलिए शिव सेना से नाता तोड़ना भाजपा के लिए ज़रूरी हो गया था।
और भाजपा के लिए शिव सेना की उपयोगिता भी जाती रही थी। अब भाजपा महाराष्ट्र में शिव सेना का पिछलग्गू न होकर मोदी लहर पर तैरते हुए प्रमुख शक्ति बन चुकी थी। अब शिव सेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की उसे कोई आवश्यकता नहीं थी। उल्टे शिवा सेना उसके लिए गले में पड़ा सिल का पत्थर (अनावश्यक बोझ) बन चुकी थी और महाराष्ट्र में भाजपा के स्वाभाविक विस्तार को रोक रही थी। इसलिए भाजपा के लिए न केवल शिव सेना से पिंड छुड़ाना बल्कि उस पर नकेल भी कसना एक राजनीतिक आवश्यकता बन चुकी थी। यही बात राजनीति में कच्चे उद्धव समझ नहीं सके। वे यही सोचते रहे कि अब भी शिव सेना बाल ठाकरे के जमाने में जैसी थी वैसी ही शक्तिशाली है, और वह भाजपा को अपनी इच्छाओं के अनुसार नचा सकती है।
भाजपा ने न केवल शिव सेना से नाता तोड़ा है, बल्कि देश के अन्य भागों में भी, जैसे पंजाब और हरियाणा में, अपने पहले के सहयोगी दलों से अलग हो रही है। पंजाब में अकाली दल और हरियाणा में अजीत सिंह का लोक दल इसके उदाहरण हैं। इन सभी जगहों में भाजपा अकेले दम लड़ने की नीति पकड़ ली थी। यह प्रवृत्ति लोक सभा चुनाव से भी पहले दिखाई देने लगी थी जब उड़ीसा में नवीन पटनायक और बिहार नितीश कुमार से उसने तलाक ले लिया था।
दक्षिण में भी भाजपा यही नीति अपनाएगी। तमिल नाड में दोनों प्रमुख द्रविड पार्टियाँ लोगों की नज़रों में इतनी गिर चुकी हैं कि अगले चुनाव में भाजपा को वहाँ अपने लिए मौका दिखने लगा है। वहाँ भी भाजपा अकेले दम पर चुनाव लड़ने का निर्णय ले सकती है। सच तो यह है कि उसके पास और कोई विकल्प भी नहीं रह गया है। महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब आदि में शिव सेना, लोक दल, अकाली दल आदि क्षेत्रीय दलों के साथ भाजपा ने जो किया है उससे सहमकर तमिल नाड की छोटी-बड़ी पार्टियाँ भाजपा को शक की नज़र से देखने लगी हैं और उसके साथ गठबंधन में उतरने से कतरा रही हैं। इसलिए मज़बूरन भाजपा को वहाँ अकेले चलना पड़ सकता है। इसकी संभावना कम लगती है कि तमिल नाड में, कम से कम आगामी चुनाव में, भाजपा कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन कर पाएगी, लेकिन वहाँ यदि वह मुट्ठी भर सीटें भी जीत जाती है, तो यह एक बहुत बड़ी जीत मानी जाएगी क्योंकि वहाँ दशकों से भाजपा अपना खाता नहीं खोल सकी है। यदि वहाँ चुनाव के बाद किसी भी पार्टी को बहुमत न मिले, तो थोड़ी सीटें होने पर भी भाजपा बड़ी भूमिकाएँ निभा सकती है और अपना पाँव इतना फैला सकती है कि इसके बाद होनेवाले चुनाव में वह और भी मजबूत स्थिति हासिल कर सके। भाजपा लंबी दूरी के धावक के रूप में मैदान में उतरी है और आनेवाले दस-पंद्रह वर्षों तक वही लगभग पूरे भारत में राजनीति के नियम-क़ानून स्थापित करेगी।
मेरे विचार से इसे सकारात्मक दृष्टि से ही देखना ठीक होगा। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश को एक-जुट रखने के लिए दृढ़ केंद्रीय शक्ति की आवश्यकता है, वरना राज्य अलग-अलग दिशाओं में खींचते हुए देश को कमज़ोर कर देंगे। इसके उदाहरण हमें बंगाल और तमिल नाड में मिलते हैं जहाँ क्षेत्रीय दलों की सरकारें हैं। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने बंग्लादेश के साथ केंद्र सरकार द्वारा की गई राष्ट्र-हित को आगे बढ़ाने वाली संधियों को खटाई में डलवा दिया है, और तमिल नाड की द्रविड पार्टियों ने श्रीलंका के साथ अच्छे संबंध स्थापित करने के मार्ग में अड़चनें पैदा की हैं जिसका फायदा उठाकर चीन वहाँ पाँव पसारने लगा है।
हमें यही आशा करनी चाहिए कि भाजपा उसके हाथ आई राजनीतिक शक्ति को समझदारी और विवेक के साथ और संपूर्ण राष्ट्र के हित के लिए उपयोग करेगी और भारत को विश्व में गौरवपूर्ण स्थान दिलाएगी।
4 Comments:
Proton Ki Khoj Kisne Ki
Electron Ki Khoj Kisne Ki
RFID in Hindi
Solar Cooker in Hindi
Energy in Hindi
Air Conditioner in Hindi
Non Metals in Hindi
Metals in Hindi
Scientific Instruments in Hindi
ISRO in Hindi
Gravitational Force in Hindi
Frequency Meaning In Hindi
Fiber Optic in Hindi
Radiation in Hindi
Rajasthan in Hindi
India in Hindi
Digital India in Hindi
Indian Ocean in Hindi
Indian Satellite in Hindi
Goa in Hindi
Mean Sea Level in Hindi
Independence Day in Hindi
Swachh Bharat Abhiyan
Aadhar Card in Hindi
Bharat Ratna Winners in Hindi
Indian Nobel Prize Winners in Hindi
Indian States and their Capitals in Hindi
Union Territory in Hindi
IRCTC in Hindi
Post a Comment