संजय दत्त को पाँच साल की जेल सज़ा होने की ख़बर आते ही अख़बारों में इसी की चर्चा छायी रही। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में भी यही बात थी। उसमें छपी एक ख़बर ने विशेषरूप से मेरा ध्यान आकर्षित किया और मैं सोचने के लिए मजबूर हुआ कि यह अख़बर इस तरह का घिनौना काम क्यों कर रहा है।
यह ख़बर थी, उर्दू अख़बारों में संजय दत्त के मामले में क्या कहा गया है इसकी समीक्षा। अब टाइम्स ऑफ़ इंडिया आए दिन तो उर्दू अख़बारों में क्या छपा है इसकी समीक्षा प्रकाशित नहीं करता है न ही अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर उर्दू अख़बारों को याद करता है – उदाहरण के लिए लगभग इसी समय इतालवी कमांडो को इटली से वापस न भेजने का इटली की संसद का निर्णय भी एक मुख्य सुर्खी रही थी, पर टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने इस मुद्दे पर उर्दू अख़बारों की राय की तलब नहीं की।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया की यह करतूत कितनी राष्ट्रविरोधी और घातक है यह उन सभी को मालूम होगा जो यह जानते हैं कि उर्दू मात्र मुसलमानों की भाषा नहीं है बल्कि वह उत्तर और दक्षिण भारत (जहाँ उर्दू साहित्य का उद्भव और प्ररंभिक विकास हुआ था) के शिष्टजनों की भाषा है, जिनमें हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, दलित आदि सभी शामिल हैं। उर्दू को मुसलमानों की भाषा के रूप में प्रचारित करना अंग्रेजों की बाँटो और राज करो कूटनीति का अंग था, जो भयानक रूप से सफल हुआ और मानव इतिहास के सबसे बड़े नरसंहार को जन्म दे बैठा और देश को दो (और बाद में तीन) टुकड़ों में बाँट बैठा, और यह नरसंहार अब भी थमा नहीं है – पाकिस्तान में जो नरमेध मचा हुआ है वह इसका सबूत है।
तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया द्वारा उर्दू अख़बारों की तलब केवल मुसलमानों से संबंधित विषयों में करना अंग्रेज़ों की इसी बाँटो और राज करो वाली घातक नीति को तूल देना है और उर्दू को मात्र मुसलमानों के साथ जोड़कर उसकी असमय मृत्यु के लिए रास्ता साफ करना है। आज यदि इस देश में उर्दू की हालत खस्ता है, तो इसका मुख्य कारण उसे मुसलमानों की भाषा समझना और देश-विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण के लिए उसे जिम्मेदार ठहराना है। जिस भाषा का संबंध देश विभाजन से हो और पाकिस्तान जैसे शत्रुतापूर्ण देश से संबंधित हो, उसे देशवासियों के दिलों में कैस स्थान मिल सकता था। पर यह निष्कर्ष एक ग़लत प्रचार पर आधारित है। उर्दू न तो मात्र मुसलमानों की भाषा है न ही वह किसी ग़ैर-भारतीय उपज है। वह इस देश में पैदा हुई नवीनतम भाषा है जिसमें गज़ब की अभिव्यक्ति शक्ति है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह इस देश की सबसे लोक-प्रिय और आम भाषा है, और यह हिंदी का ही एक परिष्कृत रूप है। जिस तरह हनुमान शाप-वश अपनी ही ताकत़ भूल गए थे, उसी तरह हिंदी भी अंग्रेजों की बाँटो और राज करो कूटनीति के शाप के प्रभाव से अपने ही परिष्कृत रूप उर्दू को भूल ही नहीं गई है बल्कि उसे अपना शत्रु मानने लगी है, यद्यपि कई जांबवानों ने हिंदी को अपने भूले-बिसरे रूप उर्दू की याद दिलाई है – डा. रामविलास शर्मा ने कई दशक पहले यह काम किया था, और अब न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू यह काम कर रहे हैं। आइए, इसे समझें कि हिंदी और ऊर्दू को, जो एक भाषा हैं, अलग क्यों और कैसे किया गया।
1857 के संग्राम में हिंदू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों से लड़े थे और उनका लगभग इस देश से खात्मा कर दिया था। यदि पंजाब, नेपाल आदि कुछ रियासत अंग्रेजों की फ़ौजी मदद न करते और दक्षिण के रियासत इस संग्राम में शामिल हो गए होते तो अंग्रेजों का बोरिया-बिस्तर तभी बंध चुका होता और आज भारत का इतिहास, और विश्व का इतिहास भी, कुछ और ही हुआ होता। पर इस संग्राम को दबाने में अंग्रेज सफल हुए और वे समझ गए कि इस देश पर अपनी हुकूमत कायम रखनी हो, तो यहाँ के लोगों को विभिन्न परस्पर वैमनस्यपूर्ण गुटों में तोड़ना होगा। इनमें से प्रमुख गुट हिंदुओं और मुसलमानों के थे। इनमें दरार डालने की कूटनीति अंग्रेजों ने बड़े ही संगठित तरीके से शुरू कर दी। इस कूटनीति की आधारशिला भारतीय जनता की उस समय की साझी भाषा हिंदुस्तानी को दो अलग-अलग भाषाओं में विभाजित करना थी। अंग्रेज जानते थे कि कौमी एकता का एक प्रमुख खंभा भाषा होता है और भाषा को बाँटते ही कौम भी बँट जाता है।
इस नीति के तहत फोर्ट विलयम में स्थापित भाषा कोलेज में भाषाविद गिलक्राइस्ट के नेतृत्व में हिंदी और उर्दू को अलग करने की साजिश को अंजाम दिया गया। गिलक्राइस्ट ने पंडित सदासुखलाल जैसे लेखकों की मदद से संस्कृत बहुल भाषा में कुछ पुस्तकें प्रकाशित करवाईं, और इसी प्रकार उर्दू-फारसी बहुल भाषा में और फारसी लिपि में कुछ अन्य किताबें छपवाईं और यह घोषित कर दिया कि हिंदी हिदुओं की भाषा है और उर्दू केवल मुसलमानों की। इसके अलावा अंग्रेजों ने अनगिनत मौलवियों और पंडितों को भी इस घातक धारणा को प्रचारित करने के काम में लगा दिया। कुछ ही दशकों में उनका यह प्रचार रंग लाने लगा और लोग हिंदी और उर्दू को अलग-अलग भाषाएँ समझने लगे। इतना ही नहीं हिंदी को मात्र हिंदुओं की और उर्दू को मात्र मुसलमानों की भाषा मानने लगे। इसकी परिणति देश-विभाजन और देश के विभाजन से जुड़े भयानक नर-संहार में हुई।
हिंदी-उर्दू अलग-अलग भाषाएँ हैं, यह बात कितनी बेबुनियाद है यह इस पर विचार करने से स्पष्ट हो जाएगा कि हमारे प्रेमचंद हिंदी और उर्दू दोनों में ही लिखते थे। इसके अलावा मंटो, फिराक, राजिंदर सिंह बेदी, आदि अनेक उर्दू के लेखक मुसलमान नहीं हैं। आज भी यदि आप उत्तर प्रदेश या बिहार के देहाती इलाकों में चले जाएँ और लोगों की बातें सुनें, तो आप कह नहीं पाएँगे कि वे हिंदी बोल रहे हैं या उर्दू। उर्दू-हिंदी में केवल उच्च स्तरीय लेखन और लिपि में फ़र्क है, और इस फ़र्क को दूर करना कोई मुश्किल काम नहीं है। लिपि की समस्या कुछ हद तक आज कम होती जा रही है क्योंकि अब बहुत सी उर्दू रचनाएँ देवनागरी लिपि में भी प्रकाशित हो रही हैं और खूब बिक रही हैं क्योंकि देवनागरी लिपि में आने से वे हिंदी भाषियों को भी सुलभ हो जाती हैं।
अब अंग्रेजों के यहाँ से गए साठ से अधिक वर्ष हो गए हैं और हममें से कई लोग इस बात को समझने लगे हैं कि अंग्रेजों ने हमें कैसे उल्लू बना दिया था। पर इन समझनेवाले लोगों में टाइम्स ऑफ़ इंडिया शामिल नहीं है। वह अब भी यह राग अलाप रहा है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है और उर्दू अख़ाबार की राय उन्हीं विषयों में लेने की ज़रूरत है जिनका संबंध मुसलमानों से है। आश्चर्य की बात यह है कि यही अख़बार बड़े ज़ोर-शोर से अमन की आशा नाम का अभियान चला रहा है जिसका कथित उद्देश्य भारत और पाकिस्तान के बुद्धि जीवियों को निकट लाना है। पर इस अख़बार को यह मामूली बात भी अब तक समझ में नहीं आ सकी है कि भारत और पाकिस्तान को निकट लाने का सूत्र दोनों की भाषा में बनाई गई कृत्रिम दरारों को दूर करने में निहित है। भारत और पाकिस्तान को पास लाने का पहला सोपान हिंदी और उर्दू का एकीकरण है। और यह एकीकरण तब तक संभव नहीं है जब तक उर्दू को मात्र मुसलमानों की भाषा समझा जाता जाएगा। उर्दू समस्त भारत की उपज है। वह हिंदुओं और मुसलमानों, सिक्खों और अन्य समुदायों की साझी विरासत है। उसमें भाषाई नज़ाकत चरम स्थिति तक पहुँचा दी गई है और इस भाषा में गज़ब की अभिव्यक्ति शक्ति है। इस अभिव्यक्ति शक्ति से अपने आपको वंचित करने के कारण ही हिंदी वह भव्यता नहीं प्राप्त कर पाई है जो वह प्राप्त कर सकती थी। हिंदी में संस्कृत के शब्द भरने और उससे आम बोलचाल के शब्दों को उर्दू के शब्द मानकर निकालने की जो ग़लती की गई, उससे उसकी अभिव्यंजना शक्ति काफी हद तक कुंठित हुई। इतना ही नहीं, उसे फिर से परिमार्जीत करने में दशकों लग गए। अब भी यह नहीं कहा जा सकता है कि वह संपूर्ण रूप से परिमार्जित हो गई है। यह इस बात से स्पष्ट है कि हिंदी की कविताएँ - और भाषा अपने सबसे अधिक निखरे हुए रूप में कविताओं में ही दिखाई देती है - अब भी आम आदमी के लिए दुरूह हैं। क्या आप किसी आम आदमी को निराला, जय शंकर प्रसाद, नागार्जुन, मुक्तिबोध आदि की कविताओं का रसास्वादन करते हुए सोच सकते हैं? इनके लिए इन महान कवियों की कविताएँ दुरूह और कठिन ही बनी हुई हैं। इसकी तुलना में उर्दू की गज़लें, ग़ालिब की रचनाएँ और और अन्य उर्दू शायरों की कविताएँ, आम लोगों की ज़ुबानों पर चढ़ चुकी हैं, उनके कई अंश मुहावरों का रूप ले चुके हैं। उर्दू के कहानी-किस्से भी लोगों में अत्यंत लोकप्रिय हैं। समस्त हिंदी फिल्म और फिल्मी गानों की भाषा अधिकांश में उर्दू है और उनकी लोकप्रियता को लेकर कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है।
यदि हिंदी और उर्दू में कृत्रिम दरारें नहीं डाली गई होतीं, तो इस मिली-जुली भाषा ने मुग़लों के अंतिम समय में जो आश्चर्यजनक कथन शैली विकसित कर ली थी, वह अनायास ही हिंदी को प्राप्त हो गई होती और उसे कई दशक बिताकर नए सिरे से अपनी अभिव्यंजना शक्ति विकसित नहीं करनी पड़ती और हिंदी आज जहाँ पहुँच सकी है, उससे कई दशक आगे की मंजिल प्राप्त कर गई होती।
यह बात बरसों पहले डा. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तकों में कही थी, और एक अनोखे संयोग से आज लगभग उन्हीं की बातों को एक समकालीन विचारक दुहरा रहे हैं। ये हैं सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू जो प्रेस कांउसिल के अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने अपने ब्लॉग सत्यम ब्रूयत में दो महत्वूपूर्ण लेख लिखे हैं जिनका विषय उर्दू और देश-विभाजन हैं। अपने उर्दू वाले लेख में उन्होंने लगभग वे बातें दुहराई हैं जो डा. शर्मा पहले कह चुके हैं, कि उर्दू मात्र मुसलमानों की भाषा कतई नहीं है बल्कि वह भारत में रहनेवाले लोगों की साझी विरासत है, जिनमें हिंदू, मुसलमान, इसाई, सिक्ख, दलित सभी शामिल हैं। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा इस साझी भाषा को तोड़ने की कूटनीति का भी विस्तार से वर्णन किया है। अपने दूसरे महत्वपूर्ण लेख में उन्होंने पाकिस्तान को एक कृत्रिम देश करार देते हुए भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को फिर से एक होने का आह्वान किया है। यह भी डा. शर्मा अपनी पुस्तकों में कह चुके हैं।
इन देशों का फिर से एक होना आज एक असंभव सी बात लग सकता है, पर यही इन देशों का प्रारब्ध है जिसे उन्हें आनेवाले पचास-सौ सालों में साकार करना होगा। आज हर युवक और विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य बनता है कि वह इस सपने को सत्य में बदलने के लिए अपना योगदान करे। शुरुआत वह उर्दू सीखकर और उर्दू साहित्य से अपना परिचय बढ़ाकर कर सकता है। इससे उसे यह अच्छी तरह समझ में आ जाएगा कि ये दोनों भाषाएँ एक ही हैं और ये दोनों भाषाएँ बोलनेवाले लोग भी वास्तव में एक ही कौम के अंश हैं, भले ही वे अलग-अलग धर्मों में विश्वास करते हों। दो धर्म, दो देश वाली विचारधारा अंग्रेजों द्वारा इस देश को कमज़ोर करने और तोड़ने के लिए फैलाया गया विषवृक्ष है। यह पाकिस्तान के बनते ही उसके दो टुकड़ों में बटने से और पाकिस्तान के आज की हालात से बखूबी स्पष्ट है। आज पाकिस्तान नाम के लिए मुसलमानों का देश है पर वहाँ मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं। सुन्नी शिया को मार रहे हैं, अफगान पाकिस्तानियों को मार रहे हैं और पाकिस्तानी अफगानों, अहमदियों, बोहरा मुस्लिमों और महिलाओं पर अत्याचार ढो रहे हैं।
हम सबको इस विष-वृक्ष की जड़ें काटकर इस देश को (जिसमें उसके दो भटके टुकड़े भी शामिल हैं) मजबूत करना होगा।
12 Comments:
जब समाचारों पर भी बाज़ार हावी हो जाये तो क्या कीजियेगा।
bhai ji hmare desh men prsarit hone waalw kafi sare news chanel or akhbar bharat ke nhi hen ye sab videshiyon ke hen to inse umid bhi kya rakhi jaskti he
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