Monday, January 21, 2013

उपभोक्ता चयन का महत्व

अधिकांश शहरी उपभोक्ताओं के समान मैं भी आजकल बड़े मॉलों में उपलब्ध एक ही तरह की चीज़ के अनेक विकल्पों से कुछ परेशान सा रहता हूँ। चाहे वह साबुन हो, या टूथपेस्ट, पंखा हो या मोबाइल, दर्जनों विकल्प उपलब्ध रहते हैं, और सब एक से बढ़कर एक बढ़िया या घटिया। ऐसे में यह तय कर पाना कठिन होता है कि किस विकल्प को चुनें।

अपने बचपन की एक मिसाल दूँ तो बात अधिक स्पष्ट होगी। जहाँ तक मुझे याद है, ठेठ बचपन से लेकर मेरे कॉलेज के दिनों तक घर में एक ही प्रकार का साबुन उपयोग किया जाता था, मैसूर सैंडल। इसकी तुलना में आज मेरे बच्चे एक साथ कई साबुन उपयोग करते हैं – बालों के लिए एक, हाथ धोने के लिए दूसरा, स्नान करने के लिए तीसरा। इसके अलावा अनेक प्रकार के शैंपू, हैंडवाश, लोशन, क्रीम आदि, आदि, सब अलग। इतना ही नहीं हर महीने उनकी पसंदें बदलती रहती हैं। आज पिएर्स साबुन है तो कल डोव और परसों गोदरेज। लगता है आजकल के युवा-जन विज्ञापनों के आधार पर या दोस्तों, सहपाठियों, रिश्तेदारों की देखादेखी चयन करते हैं।

एक समय वह था जब हम अपने उपभोक्ता चयनों से सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन लाने की कोशिश करते थे। हमारे ही देश के स्वाधीनता संग्राम को ही लीजिए जब अंग्रेजों को यहाँ से खदेड़ने के एक कारगर तरीके के रूप में उनके देश में बने कपड़ों और अन्य वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन गाँधी जी और अन्य नेताओं ने चलाया था, और जिसका विकसित रूप, स्वदेशी आंदोलन, आज भी हमारी राजनीति को थोड़ा-बहुत प्रभावित करता है। पर ऐसा लगता है कि आजकल के युवक अपने उपभोक्ता चयनों में किसी ऊँचे आदर्श को बीच में लाने को या तो नापसंद करते हैं या उनकी राजनीतिक जागरूकता इतनी विकसित नहीं हुई है कि वे इसकी ताकत को पहचान सकें।

मैं समझता हूँ कि उनकी इस आदर्शहीन उपभोक्ता चयन समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने के एक शक्तिशाली जरिए से उन्हें वंचित कर रहा है और वे जाने अनजाने उपभोक्ता संस्कृति के हाथों कठपुतले बनते जा रहे हैं। उपभोक्ता संस्कृति चाहती है कि हम ज्यादा से ज्यादा उपभोग करें, चाहे हमें उपभोग की जा रही वस्तुओं की आवश्यकता हो या नहीं। तभी इन उपभोक्ता वस्तुओं को बनानेवाली कंपनियों को निरंतर मुनाफा प्राप्त होता रह सकेगा। पर क्या उनका निरंतर मुनाफा प्राप्त करते जाना अधिक व्यापक मानव समाज के लिए अच्छा है? पृथ्वी के सीमित साधनों का क्या यह दुरुपयोग नहीं है? जो चीज़ वर्षों चल सकती हो, उसे कुछ ही महीने के उपयोग के बाद फेंककर, उसी के जैसी नई वस्तु खरीदकर लाना क्या आत्म-तुष्टि का चरम उदाहरण नहीं है? जब हमारे चारों ओर इतने व्यापक पैमाने पर गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा और संरचनात्मक विघटन हो, तो यह कहाँ तक उचित है कि हम अपनी कल्पित इच्छाओं की पूर्ति करते जाएँ? महात्मा बुद्ध ने सही ही कहा था कि हमारी इच्छाओं का कोई अंत नहीं है, उन्हें परिश्रम से दबाना होगा, और उसे निहायत जरूरी चीजों तक सीमित करना होगा। उन्होंने यह निर्वाण प्राप्त करने के संदर्भ में कहा था, पर यह आज समतापूर्ण समृद्धि प्राप्त करने के संदर्भ में अधिक प्रासंगिक है।

पूँजीवादी संस्कृति की मुख्य कमी भी यही है। वह उपभोक्तावाद को उकसाता जाता है, मनुष्यों और मानव समाजों की वास्तविक ज़रूरतों से उसका कोई तालमेल नहीं रहता है। इसलिए, एक ओर अमरीका जैसे अमीर देश फिजूल-खर्ची और अंधाधुंध प्रौद्योगिकीय विकास को बढ़ाते जाते हैं, जैसे चाँद पर आदमी उतारना, या मंगल ग्रह में उपग्रह भेजना, परमाणु हथियार बनाना आदि, तो दूसरी ओर भारत, अफ्रीका, अफ़गानिस्तान आदि गरीब देशों में करोड़ों लोग भूख से व्याकुल हैं, उनके पास पहनने के लिए ढंग के वस्त्र नहीं हैं, उनके बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, और उनके शहरों में आधारभूत अधिसंरचनाएँ (सड़कें, रेल, मकान, आदि) बहुत ही खराब हालत में हैं। यदि अमरीका और अन्य विकसित देश चाहें तो उनके पास मौजूद दौलत और प्रौद्योगिकी से इन सबको क्षण-भर में ही दूर कर सकते हैं, पर पूँजीवादी संस्कृति का मुख्य ध्येय मुनाफा कमाना होता है, न कि मनुष्यों की तकलीफों को दूर करना।

इसीलिए पूँजीवादी संस्कृति को नियंत्रित करने और उसे मानव कल्याण की ओर मोड़ने के लिए बाहरी ताकतों की आवश्यकता होती है वह चाहे राज्य की शक्ति हो, या उपभोक्ताओं का संगठित प्रयास (उपभोक्ता चयन), या विप्लव या साम्वाद। इनमें से केवल उपभोक्ता चयन ही एक ऐसा जरिया है जिससे आम आदमी (यानी आप और मैं) पूँजीवादी संस्कृति को नियंत्रित कर सकता है और उसे जन-कल्याणकारी कामों में लगा सकता है।

तो हमें अपने उपभोक्ता चयनों को उच्च आदर्शों के साथ समेकित करना होगा। कोई चीज़ खरीदने से पहले यह सोचना होगा कि क्या हमें उसकी जरूरत है? उसका कोई अन्य विकल्प बेहतर हो सकता है? क्या उसे बड़े मॉल से खरीदना अधिक जन-हितकारी है या नुक्कड़ के किराने की दुकान से खरीदना? क्या उस उत्पाद में निहित नैतिक और सामाजिक मूल्य जन-हितकारी हैं या अहितकारी? उदाहरण के लिए, यदि उस चीज़ के विज्ञापन में कोई ऐसी बात दर्शाई जा रही हो जो समाज के लिए नुकसानदेह है, तो हमें उस वस्तु को खरीदने से इन्कार कर देना चाहिए, भले ही वह कितना ही अधिक किफायती, उपयोगी, तकनीकी दृष्टि से बेहतर या अन्य रीति से हमारे लिए लाभदायक हो। मान लीजिए कि किसी टूथपेस्ट के विज्ञापन में मिहलाओं को अभद्र और आपत्तिजनक रूप से दर्शाया गया हो। इससे उस विज्ञापन को देखनेवाले व्यक्तियों, विशेषकर युवा जनों पर हानिकारक नैतिक प्रभाव पड़ सकता है, जिससे समाज के नैतिक मूल्यों का ह्रास हो सकता है। तो ऐसे विज्ञापनों को रोकने का हमारे पास एक ही साधन है कि हम उस विज्ञापन में दर्शाई गई चीज़ को न खरीदने का निर्णय लें और उस चीज़ के निर्माता को अपने निर्णय से अवगत कराएँ। और इससे आगे बढ़कर हम उन लोगों को भी जिन पर हमारा नियंत्रण या प्रभाव है इस चीज़ को न खरीदने या उपयोग करने की सलाह दें। इससे होनेवाले आर्थिक नुकसान से घबराकर उस चीज़ का निर्माता उस विज्ञापन को बदलने पर मजबूर होगा और उस विज्ञापन की अभिकल्पना करनेवाले लोग कोई दूसरा और अधिक सकारात्मक विज्ञापन सोचने को प्रेरित होंगे। इससे पूरे समाज को फायदा होगा।

3 Comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

हम स्वयं को आवश्यक के नाम पर इतना विस्तारित करते जा रहे हैं कि सम्हालना कठिन होता जा रहा है।

SANDEEP PANWAR said...

आपने भले ही दो साल बीस दिन के बाद इस ब्लॉग पर लेख लिखा हो लेकिन आज के हालात पर एकदम बाण की तरह लग गया है। इसका कोई इलाज नहीं दिखता है।

Shambhu kumar said...

IIIIIIII

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