अभी हाल में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने केंद्रीय विद्यालयों द्वारा जर्मन को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाए जाने को अवैध घोषित किया है। यह भी कहा जा रहा है कि मानव संसाधन मंत्री चाहती हैं कि जर्मन की जगह इन विद्यालयों में संस्कृत पढ़ाई जाए। इसे लेकर शिक्षा जगत में माहौल काफी गरम हो उठा है।
जर्मन समर्थकों का कहना है कि आधुनिक विश्व में जर्मन जैसी विदेशी भाषा सीखने से बच्चों का भविष्य उज्ज्वल होता है और उन्हें नौकरी मिलने की संभावना बढ़ती है। इसके विरुद्ध स्मृति ईरानी का कहना है कि केंद्रीय विद्यालयों में तीसरी भाषा के रूप में जर्मन पढ़ाया जाना सरकारी नीति के विरुद्ध है और तीन-भाषा वाले सूत्र के मूल उद्देश्यों के प्रतिकूल है। पर विडंबना यह है कि जर्मन की जगह संस्कृत के अनिवार्य शिक्षण का प्रावधान करना भी इसी तीन-भाषा वाली शिक्षा नीति के मूल उद्देश्यों के विरुद्ध है।
तीन-भाषा सूत्र का प्रस्ताव उस गतिरोध को तोड़ने के लिए किया गया था जिसके तहत हिंदी को सच्चे अर्थों में भारत की राज भाषा के रूप में स्वीकार करने में गैर-हिंदी प्रांतों को झिझक थी, और इसका फायदा लेकर अँग्रेज़ी भारत में अपना पैर दृढ़ता से जमाती जा रही थी। अहिंदी भाषियों को डर था कि यदि हिंदी को भारत की राज भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया जाएगा, तो प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी भाषियों को गैर-हिंदी भाषियों पर नाज़ायज फायदा होगा। इस शिकायत का समाधान करने के विचार से ही तीन-भाषा सूत्र का प्रस्ताव किया गया था। उसके अनुसार अहिंदी प्रांतों में शिक्षण की भाषा स्थानीय भाषा रहेगी और हिंदी और अँग्रेज़ी को द्वीतीय और तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाया जाएगा। और, हिंदी भाषी क्षेत्रों में शिक्षण की भाषा हिंदी रहेगी और अँग्रेज़ी और कोई अन्य भारतयी भाषा द्वितीय और तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाएँगी।
इस सूत्र के प्रवर्तकों को आशा थी कि इससे हिंदी भाषी क्षेत्रों में अन्य भारतीय भाषाओं का पठन-पाठन होगा और इससे तमिल, बंगाली, मलयालम, उड़िया असमी आदि भारतीय भाषाओं का सामान्य ज्ञान स्कूल छात्र हासिल करेंगे, जिससे आगे चलकर राष्ट्रीय एकता की भावना को बल मिलेगा। दूसरी ओर, अहिंदी क्षेत्रों में छात्र हिंदी सीखेंगे और आगे चलकर वे भी प्रतियोगी परीक्षाओं में उसी तरह आगे आ पाएँगे, जैसे हिंदी क्षेत्र के बच्चे।
यह सूत्र सरसरी तौर पर निरापद लगता है, पर जब इसे कार्यान्वित किया गया, तो कुछ ही समय में उसे इस तरह विरूपित कर दिया गया कि इसे जारी करने का मूल उद्देश्य ही भुला दिया गया। हिंदी भाषी क्षेत्र में तीसरी भारतीय भाषा के रूप में सभी जगह तमिल, बंगला, मलायम, तेलुगु आदि की जगह संस्कृत सिखाई जाने लगी। संस्कृत का भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म के साथ जितना भी गहरा संबंध क्यों न हो, आज की परिस्थिति में वह एक मृत भाषा है, और उसके शिक्षण से तीन भाषा सूत्र लाने का मूल उद्देश्य किसी भी तरह से पूरा नहीं होता है। गैर-हिंदी राज्यों में तीन-भाषा सूत्र ले-देकर कुछ हद तक उसके मूल उद्देश्यों के अनुसार कार्यान्वित किया गया, लेकिन वहाँ भी तमिल नाड की सरकार ने इसे अपनाने से इन्कार कर दिया और वहाँ स्कूली बच्चों को केवल तमिल और अँग्रेज़ी सिखाई जाने लगी।
इस बीच इस तीन-भाषा वाली नीति को कमज़ोर करने का छिपा प्रयास केंद्रीय विद्यालय संगठन ने भी किया और उसने तीसरी भाषा के रूप में जर्मन का शिक्षण शुरू कर दिया। उसका तर्क यह था कि इससे देश को फायदा होगा क्योंकि भूगोलीकरण के जमाने में जर्मनी जैसी महत्वपूर्ण आर्थिक महाशक्ति की भाषा सीखने से न केवल बच्चों का भविष्य सुधरेगा, बल्कि देश का कल्याण भी होगा।
इस तर्क में वज़न जितना भी हो, यह निर्विवाद है कि वह उक्त सरकारी नीति का खुला उल्लंघन है, क्योंकि तीन भाषा नीति का मुख्य उद्देश्य स्कूली बच्चों को देश की समृद्ध भाषाई विरासत से अवगत कराना और देश में एकता की भावना में वृद्धि करना था, न कि देश की आर्थिक उन्नति में योगदान करना। स्पष्ट ही तीसरी भाषा के रूप में जर्मन सिखाने से न तो बच्चों में देश की समृद्ध भाषाई विरासत से परिचय बढ़ता है न ही उनमें राष्ट्रीय एकता की भावना विकसित होती है। इसलिए केंद्रीय विद्यालय संगठन का यह कदम निंदनीय है और उसे अवैध घोषित करके मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने ठीक ही किया है।
पर जर्मन की जगह संस्कृत के शिक्षण के संबंध में यही बात नहीं कही जा सकती है। तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत पढ़ाना तीन भाषा नीति की दृष्टि से लगभग उतना ही बेतुका है जितना जर्मन सिखाना। संस्कृत देश में कहीं भी बोली नहीं जाती है। इसलिए उसके शिक्षण से बच्चों द्वारा देश की समृद्ध भाषाई संस्कृति से परिचित होने का सवाल ही नहीं उठता। इतना ही नहीं, उससे राष्ट्रीय एकीकरण को भी बढ़ावा नहीं मिलता। यदि संस्कृत की जगह हिंदी भाषी क्षेत्रों में बच्चे तमिल, बंगाली, उड़िया, पंजाबी, कश्मीरी, आदि भाषाएँ सीखते, तो वे हमारे देश की समृद्ध भाषाई और साहित्यिक विरासत से कितनी अच्छी तरह से परिचित हो जाते।
इसलिए मानव संसाधन मंत्रालय को केंद्रीय विद्यालयों से जर्मन हटाने के बाद स्कूली बच्चों पर संस्कृत थोपने की जगह, तीन भाषा सूत्र को सलीके से लागू करने की व्यवस्था करनी चाहिए। यानी, उसे हिंदी भाषी क्षेत्रों में तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत सहित देश की सभी अन्य भाषाओं के शिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए।
आजकल हर देश के लिए यह आवश्यक है कि वह विश्व के सभी प्रमुख भाषाओं के पठन-पाठन की व्यवस्था करे। भारत के लिए भी यह आवश्यक है। भारत में भी चीनी, जापानी, फारसी, अफगान, सिंहला, अरबी, स्पेनी, पुर्तगाली, फ्रेंच, जर्मन, आदि भाषाओं का शिक्षण होना चाहिए। पर यह सब स्कूली पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग नहीं हो सकता है। स्कूली शिक्षण के अनेक उद्देश्य होते हैं, जिनमें से प्रमुख हैं राष्ट्रीय एकता की भावना विकसित करना, वैज्ञानिक सोच विकसित करना, और व्यावहारिक और आर्थिक महत्व के विषय पढ़ाना। मातृ भाषा, हिंदी, अँग्रेज़ी, कोई अन्य भारतीय भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास, आदि विषय सभी को पढ़ना चाहिए। कुछ छात्र आगे चलकर इनमें से कुछ विषयों को अधिक गहनता से और पेशेवरीय स्तर पर पढ़ सकते हैं। कुछ छात्र देश-विदेश की अन्य भाषाएँ भी अतिरिक्त रूप से पढ़ सकते हैं। पर अनिवार्य शिक्षण का अंग यह नहीं हो सकता है। स्कूलों में तथा स्कूली बच्चों के पास सीमित समय ही होता है। उस समय में कुछ सीमित चीज़ें ही पढ़ाई जा सकती हैं। इन चीज़ों को हमें काफी सोच-समझकर तय करना होगा। यहाँ किसी खास वर्ग की विशिष्ट ज़रूरतों को सब पर थोपने के लिए कोई गुँजाइश नहीं है। इन खास वर्गों के लिए निजी स्कूलों का मार्ग खुला है। सरकारी पैसों से चलनेवाले केंद्रीय विद्यालयों में तथा आम शिक्षण में सर्वहित ही एकमात्र कसौटी होनी चाहिए। सर्वहित न तो संस्कृत के शिक्षण में है न जर्मन के शिक्षण में, बल्कि वह तीन भाषा सूत्र को ईमानदारी से और कुशलता से देश-भर में कार्यान्वित करने में है।
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