एक गड़रिया एक बनिए को मक्खन बेचता था। एक दिन बनिए को शक हुआ कि गड़रिया ठीक मात्रा में मक्खन नहीं दे रहा है। उसने अपने तराजू में तोलकर देखा तो मक्खन का वजन कम निकला। वह आग बबूला हुआ, राजा के पास गया। राजा ने गड़रिए को बुलवाकर उससे पूछा, क्यों, तुम मक्खन कम तोलते हो?
हाथ जोड़कर गड़रिए ने नम्रतापूर्वक कहा, हुजूर, मैं रोज एक किलो मक्खन ही बनिए को दे जाता हूँ।
नहीं हुजूर, मैंने तोलकर देखा है, पूरे दो सौ ग्राम कम निकले, बनिए ने कहा।
राजा ने गड़रिए से पूछा, तुम्हें क्या कहना है?
गड़रिया बोला, हुजूर, मैं ठहरा अनपढ़ गवार, तौलना-वोलना मुझे कहाँ आता है, मेरे पास एक पुराना तराजू है, पर उसके बाट कहीं खो गए हैं। मैं इसी बनिए से रोज एक किलो चावल ले जाता हूँ। उसी को बाट के रूप में इस्तेमाल करके मक्खन तोलता हूँ।
Sunday, November 23, 2014
जैसे को तैसा
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 2 टिप्पणियाँ
लेबल: लघु कथा
जुए बीनना और बतियाना
मानव निरीक्षण - 5
क्या आप बता सकते हैं, बंदरों की सबसे प्रिय आदत क्या है? वह है एक दूसरे के शरीर से जुए बीनना। जुए बीनने की यह आदत उनकी सामाजिक व्यवस्था में काफी महत्व रखती है। मनुष्यों में भी जुए बीनने की बंदरों की आदत का समतुल्य व्यवहार होता है? वह है, बतियाना, जी हां, बातचीत करना। आगे पढ़िए, सब स्पष्ट हो जाएगा।
टोलियों में रहनेवाले सदस्यों में एक वरीयता क्रम (पेकिंग आर्डर) होता है, जो यह तय करता है कि मैथुन, भोजन, सुरक्षा और अन्य सुविधाओं पर पहला अधिकार किसका हो। यह वरीयता क्रम टोली के सदस्यों में इन सब सुविधाओं के लिए नित्य के झगड़ों से बचने के लिए बहुत आवश्यक है। टोलियों के सदस्य शुरुआत में हल्के-फुल्के शक्ति परीक्षण से इस क्रम को निश्चित कर लेते हैं, और उसके बाद टोली में अपेक्षाकृत शांति बनी रहती है। लड़ाई की नौबत तभी आती है जब इस क्रम का कोई उल्लंघन करे। ऐसा होने पर जिस सदस्य की हैसियत को चुनौती मिली हो, वह या तो अपनी हैसियत की लाज रखने के लिए नियम भंग करनेवाले से भिड़ जाता है, या उसके लिए अपना स्थान सदा के लिए छोड़ देता है।
वरीयता क्रम निश्चित हो जाने के बाद भी सदस्यों में परस्पर सौहार्द बनाए रखने के लिए बहुत से छोटे-मोटे व्यवहार होते रहते हैं। इनमें से एक प्रमुख व्यवहार एक-दूसरों के शरीर से जुए बीनना है। हमें लग सकता है कि यह बिना किसी निहितार्थ के किया जाता होगा, पर जिन वैज्ञानिकों ने इन बातों का अध्ययन किया है, वे बताते हैं कि जुए बीनने जैसे सामान्य व्यवहार के पीछे भी काफी राजनीति होती है।
आमतौर पर जुए बीनना अपने से अधिक सत्तावान सदस्य के प्रति समर्पण भाव दिखाने का एक तरीका होता है। सामान्यतः कम शक्तिमान सदस्य ही अपने से अधिक शक्तिमान सदस्य के शरीर से जुए बीनता है। ऐसा करके वह यही दर्शाता है कि मैं तुम्हारी वरीयता स्वीकार करता हूं और इसके सबूत के रूप में मैं तुम्हें कष्ट पहुंचा रहे इन कीड़ों से छुटकारा दिलाऊंगा। और अधिक सत्तावान सदस्य अपने से कम सत्तावान सदस्य द्वारा अपने शरीर के जुए बिनवाकर उसे यही आश्वासन देता है कि मैं तुम्हारे समर्पण को स्वीकार करता हूं और तुम्हें अपने संरक्षण में लेता हूं और तुम्हें चोट नहीं पहुंचाऊंगा। इससे दोनों को मनोवैज्ञानिक सकून मिलता है। सत्तावान सदस्य उस दूसरे सदस्य के प्रति निश्चिंत हो जाता है कि यह मेरे विरुद्ध उत्पात नहीं करेगा, और कम सत्तावान सदस्य को यह आश्वासन मिलता है कि मुझसे अधिक शक्तिशाली यह सदस्य अब मेरा उत्पीड़न नहीं करेगा।
मित्रों में, अर्थात लगभग समान सामाजिक हैसियत वाले सदस्यों में, जुए बीनने की क्रिया उनके परस्पर संबंधों को और प्रगाढ़ बनाती है।
इसलिए बंदरों में जुए बीनने की क्रिया समूह के अंदर के सबंधों को बनाए रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
अब आते हैं मनुष्यों के विषय पर। मनुष्य भी वानर कुल का ही सदस्य है, और वह भी समूहों में रहनेवाला प्राणी है। उसमें भी जुए बीनने की क्रिया से मिलता-जुलता व्यवहार है, जो है बतियाना।
मनुष्यों में समस्या यह है कि उसके शरीर में बाल नहीं हैं, इसलिए उसे जुए, पिस्सू आदि जीव कम परेशान करते हैं। इसलिए जुए बीनने की क्रिया उसके संबंध में अर्थहीन है। पर हम सब जानते हैं कि हमारे समुदाय में भी एक सुस्पष्ट वरीयता क्रम देखी जाती है। चाहे आप परिवार को लें, या किसी दफ्तर के सदस्यों को, हमें वहां सब एक वरीयता क्रम दिखाई देगा। सबसे ज्यादा अधिकार परिवार के वरिष्ठ पुरुष सदस्य का, फिर उसकी पत्नी का, उसके बाद उनके सबसे वरिष्ठ पुत्र का, सबसे नीचे बच्चों और नौकर-चाकरों का। बच्चों में भी वरीयकता क्रम होता है, चाहे वह घर के बच्चे हों या मोहल्ले या स्कूल के बच्चे। नौकरों में भी यही बात है। दफ्तर में सबसे अधिक रसूख वाला व्यक्ति सीईओ होता है, उसके नीचे वरिष्ठ प्रबंधक, फिर कनिष्ठ प्रबंधक, फिर उनके सचिव आदि और सबसे कम रसूख वाला कर्मचारी चपरासी होता है जिस पर सब रौब जमाते हैं। सेना में तो यह बहुत ही औपचारितापूर्ण ढंग से लागू होता है।
अनौपचारिक रूप से भी, जहां भी चार मनुष्य एकत्र हों, उनके बीच यह वरीयता क्रम निश्चित हो जाता है। लोग एक-दूसरे को नाप-तौलकर अपने बीच तय कर लेते हैं कि कौन किससे आगे है और इस क्रम का सभी व्यवहारों में पालन करते हैं। यह अल्प समय के लिए बने मानव समूहों में भी देखा जाता है, जैसे किसी रेल के डिब्बे में चंद घंटों के लिए एकत्र मुसाफिरों में।
डेसमंड मोरिस (मैन वाचिंग, द नेकड एप, ह्यूमन ज़ू आदि पुस्तकों के लेखक) का कहना है कि इस वरीयता क्रम को बिना अनावश्यक लड़ाई-झगड़े के बनाए रखने के लिए मनुष्यों में जो तरीका है, वह है बतियाना। मनुष्य निरंतर बितियाता रहता है। दो मनुष्य मिले नहीं कि कोई न कोई बहाना ढूंढ़कर वे बातचीत शुरू कर देते हैं। डेसमंड मोरिस का कहना है कि यह वास्तव में दोनों में एक दूसरे को तौलने और वरीयता क्रम निश्चित करने की प्रक्रिया है। पुराने परिचित भी खूब बातचीत करते हैं। इनमें बातचीत का महत्व वरीयता क्रम निश्चित करने में नहीं है, क्योंकि वह पहले ही निश्चित हो चुका होता है, बल्कि उसे पुष्ट करने में होता है।
बातचीत में संलग्न दोनों सदस्य एक दूसरे के प्रति आश्वस्त हो जाते हैं, दोनों के बीच तनाव कम हो जाता है और समाज में सामरस्य बना रहता है।
आम प्रवृत्ति अधिक बातचीत को हतोत्साहित करने की है। स्कूलों में, दफ्तरों में, सभी जगह यही कहा जाता है कि बातें कम करो, और काम करो, बातों में समय नष्ट मत करो, इत्यादि। पर यदि हम डेसमंड मोरिस की बात मानें, तो बातें करना तनाव मुक्ति और अनावश्यक रगड़-झगड़ घटाने का एक साधन है और यदि हमें मनुष्य समाज में शांति बनाए रखनी हो, तो हमें परस्पर खूब बातचीत करनी चाहिए।
यदि हम हमारे व्यवहार पर थोड़ा गौर करें तो डेसमंड मोरिस की बात समझ में आती है। जब दो लोगों में मन-मुटाव होता है, तो इसका एक प्रमुख संकेत होता है उनमें बातचीत बंद हो जाना। दोनों मुंह फुलाएं एक दूसरे से कट्टी कर लेते हैं। बच्चों में तो यह खास तौर से देखा जाता है। और दोनों में मैत्री भाव की पुनर्स्थापना का पहला संकेत भी यही होता है कि वे दोनों बातें करने लग गए हैं। दोनों में मेल-मिलाप करानेवाले व्यक्ति भी सबसे पहले दोनों के बीच बातचीत शुरू कराने की ही कोशिश करते हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि बातचीत हमारे समुदाय में तनाव घटाने का और मैत्री भाव जताने का एक महत्वपूर्ण जरिया होता है। यदि दो लोगों में मनमुटाव हो तो उनमें बातचीत करा दीजिए और देखिए वे कैसे तुरंत फिर से मित्र बन जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति तनाव, मायूसी या चिंता से ग्रस्त हो, तो उससे खूब बातचीत कीजिए उसे तुरंत आराम मिल जाएगा। यदि आप स्वयं तनाव, मायूसी या चिंता से परेशान हों, तो अपने परिवार के जनों, मित्रों, पड़ोसियों और अन्य व्यक्तियों से खूब बात कीजिए, और देखिए आप कितनी जल्दी बेहतर महसूस करते हैं।
मजे की बात यह है कि यह दो व्यक्तियों पर ही लागू नहीं होता, दो राष्ट्रों में भी यही बात देखी जाती है। विवाद की स्थिति में दोनों औपचारिक कूटनीतिक संबंधों को तोड़ लेते हैं। एक-दूसरे के देश से अपने राजदूतों को वापस बुला लेते हैं, और यदि इससे भी बात नहीं बनी तो, अपने दूतावासों को ही बंद कर लेते हैं। उसके बाद तो खुले युद्ध का ही रास्ता बचा रहता है।
दूसरे देश जो इस लड़ाई से दुनिया को बचाना चाहते हैं, वे यही कोशिश करते हैं कि दोनों देशों में फिर से बातचीत शुरू हो जाए। भारत और पाकिस्तान, ईरान और अमरीका, रूस और अमरीका, चीन और जापान आदि के संदर्भ में यह बात और स्पष्ट हो जाएगी। मुंबई हत्याकांड के बाद भारत ने पाकिस्तान से सभी वर्ताएं बंद कर दी थीं और अमरीका निरंतर हम दोनों पर दबाव डाल रहा है कि ये वार्ताएं पुनः शुरू हो जाएं, ताकि युद्ध की नौबत न आए। जब दो व्यक्तियों या राष्ट्रों में बातचीत ही बंद हो जाए तो इसका मतलब यह होता है कि दोनों के बीच जो वरीयता क्रम पहले निश्चित था, वह अब मान्य नहीं रहा और उसे नए सिरे से निश्चित करना पड़ेगा। यह बातचीत से या युद्ध से हो सकता है। चूंकि युद्ध के भीषण परिणाम निकल सकते हैं, दूसरे देश युद्ध टालने के लिए दोनों के बीच बातचीत बहाल करने की ही कोशिश करते हैं।
अब तो राष्ट्रों के बीच औपचारिक बातचीत को सुगम बनाने के लिए स्थायी व्यवस्थाएं भी बना दी गई हैं, यथा, लीग ओफ नेशेन्स (प्रथम महायुद्ध के बाद), संयुक्त राष्ट्र संघ (दूसरे महायुद्ध के बाद)। ये ऐसे मंच हैं जो कट्टी किए बैठे राष्ट्रों के बीच बातचीत पुनः शुरू कराने के अवसर देते हैं।
इसी तरह संसद, विधान सभा, अदालत, आदि सब औपचारिक बातचीत द्वारा मैत्री स्थापित करने के तरीके हैं, जो सब बंदरों के जुए बीनने की गतिविधि के ही विकसित रूप हैं।
दफ्तरों में जोइंट कंसलटेटिव मेकेनिज़म (जेसीएम) जिसमें प्रबंधक और कर्मचारी बातचीत के माध्यम से अपनी समस्याएं सुलटा लेते हैं, और हड़ताल, तोड़-फोड़, पुलिस कार्रावाई आदि की नौबत नहीं आने देते, भी ऐसी ही एक व्यवस्था।
सामाजिक स्तर पर सत्संग, सामूहिक उपासना, प्रवचन आदि भी बातचीत द्वारा समाज में व्यवस्था स्थापित करने के विभिन्न उपाय हैं।
सभी कलाओं की मूल प्रेरणा भी बातचीत करने की इस मूलभूत आवश्यकता ही है। मनुष्य केवल बोलकर ही नहीं बातचीत करता। वह इशारे से (नृत्य कला), लिखकर (साहित्य), गाकर (संगीत), चित्र बनाकर (चित्रकला), मूर्तियां बनाकर (मूर्तिकला), इमारतें बनाकर (स्थापत्यकला) भी अपने मन की बात व्यक्त करता है। ये सब कलाएं बातचीत करने की क्रिया के ही परिष्कृत रूप हैं, और उन सबका मूल मक्सद तनाव घटाना और मैत्रीभाव बढ़ाना है।
अक्सर हम देखते हैं कि अत्यंत विषाद या दुख की स्थिति में हमारे मुंह से अपने आप ही गीत फूट निकलते हैं। वाल्मीकि ने रामयाण ऐसे ही लिखा था, जब सारस जोड़ी में से एक के बहेलिए द्वारा मार दिए जाने से उनका मन विषाद से भर गया था। वाल्मीकि ही नहीं, हम भी दुख की स्थिति में कोई न कोई गाना गुनगुनाते हैं। अक्सर लेखक, चित्रकार, कवि आदि भी अत्यंत दुख की स्थिति में ही अपनी कला का उच्चतम प्रदर्शन करते हैं। यह इसलिए क्योंकि यह उनके लिए दुख से मुक्ति पाने का एक जरिया होता है। कोई रचना करने के बाद वे दुख या तनाव से मुक्त हो जाते हैं।
तो है न मानव निरीक्षण एक रोचक चीज। क्या आपने इससे पहले सोचा भी था कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, युद्ध, साहित्य, चित्रकारी आदि गंभीर क्रियाकलापों का बंदरों द्वारा जुए बीनने की क्रिया से घनिष्ट संबंध है?
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 3 टिप्पणियाँ
लेबल: मानव निरीक्षण
न संस्कृत न जर्मन, बल्कि तीसरी भारतीय भाषा
अभी हाल में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने केंद्रीय विद्यालयों द्वारा जर्मन को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाए जाने को अवैध घोषित किया है। यह भी कहा जा रहा है कि मानव संसाधन मंत्री चाहती हैं कि जर्मन की जगह इन विद्यालयों में संस्कृत पढ़ाई जाए। इसे लेकर शिक्षा जगत में माहौल काफी गरम हो उठा है।
जर्मन समर्थकों का कहना है कि आधुनिक विश्व में जर्मन जैसी विदेशी भाषा सीखने से बच्चों का भविष्य उज्ज्वल होता है और उन्हें नौकरी मिलने की संभावना बढ़ती है। इसके विरुद्ध स्मृति ईरानी का कहना है कि केंद्रीय विद्यालयों में तीसरी भाषा के रूप में जर्मन पढ़ाया जाना सरकारी नीति के विरुद्ध है और तीन-भाषा वाले सूत्र के मूल उद्देश्यों के प्रतिकूल है। पर विडंबना यह है कि जर्मन की जगह संस्कृत के अनिवार्य शिक्षण का प्रावधान करना भी इसी तीन-भाषा वाली शिक्षा नीति के मूल उद्देश्यों के विरुद्ध है।
तीन-भाषा सूत्र का प्रस्ताव उस गतिरोध को तोड़ने के लिए किया गया था जिसके तहत हिंदी को सच्चे अर्थों में भारत की राज भाषा के रूप में स्वीकार करने में गैर-हिंदी प्रांतों को झिझक थी, और इसका फायदा लेकर अँग्रेज़ी भारत में अपना पैर दृढ़ता से जमाती जा रही थी। अहिंदी भाषियों को डर था कि यदि हिंदी को भारत की राज भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया जाएगा, तो प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी भाषियों को गैर-हिंदी भाषियों पर नाज़ायज फायदा होगा। इस शिकायत का समाधान करने के विचार से ही तीन-भाषा सूत्र का प्रस्ताव किया गया था। उसके अनुसार अहिंदी प्रांतों में शिक्षण की भाषा स्थानीय भाषा रहेगी और हिंदी और अँग्रेज़ी को द्वीतीय और तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाया जाएगा। और, हिंदी भाषी क्षेत्रों में शिक्षण की भाषा हिंदी रहेगी और अँग्रेज़ी और कोई अन्य भारतयी भाषा द्वितीय और तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाएँगी।
इस सूत्र के प्रवर्तकों को आशा थी कि इससे हिंदी भाषी क्षेत्रों में अन्य भारतीय भाषाओं का पठन-पाठन होगा और इससे तमिल, बंगाली, मलयालम, उड़िया असमी आदि भारतीय भाषाओं का सामान्य ज्ञान स्कूल छात्र हासिल करेंगे, जिससे आगे चलकर राष्ट्रीय एकता की भावना को बल मिलेगा। दूसरी ओर, अहिंदी क्षेत्रों में छात्र हिंदी सीखेंगे और आगे चलकर वे भी प्रतियोगी परीक्षाओं में उसी तरह आगे आ पाएँगे, जैसे हिंदी क्षेत्र के बच्चे।
यह सूत्र सरसरी तौर पर निरापद लगता है, पर जब इसे कार्यान्वित किया गया, तो कुछ ही समय में उसे इस तरह विरूपित कर दिया गया कि इसे जारी करने का मूल उद्देश्य ही भुला दिया गया। हिंदी भाषी क्षेत्र में तीसरी भारतीय भाषा के रूप में सभी जगह तमिल, बंगला, मलायम, तेलुगु आदि की जगह संस्कृत सिखाई जाने लगी। संस्कृत का भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म के साथ जितना भी गहरा संबंध क्यों न हो, आज की परिस्थिति में वह एक मृत भाषा है, और उसके शिक्षण से तीन भाषा सूत्र लाने का मूल उद्देश्य किसी भी तरह से पूरा नहीं होता है। गैर-हिंदी राज्यों में तीन-भाषा सूत्र ले-देकर कुछ हद तक उसके मूल उद्देश्यों के अनुसार कार्यान्वित किया गया, लेकिन वहाँ भी तमिल नाड की सरकार ने इसे अपनाने से इन्कार कर दिया और वहाँ स्कूली बच्चों को केवल तमिल और अँग्रेज़ी सिखाई जाने लगी।
इस बीच इस तीन-भाषा वाली नीति को कमज़ोर करने का छिपा प्रयास केंद्रीय विद्यालय संगठन ने भी किया और उसने तीसरी भाषा के रूप में जर्मन का शिक्षण शुरू कर दिया। उसका तर्क यह था कि इससे देश को फायदा होगा क्योंकि भूगोलीकरण के जमाने में जर्मनी जैसी महत्वपूर्ण आर्थिक महाशक्ति की भाषा सीखने से न केवल बच्चों का भविष्य सुधरेगा, बल्कि देश का कल्याण भी होगा।
इस तर्क में वज़न जितना भी हो, यह निर्विवाद है कि वह उक्त सरकारी नीति का खुला उल्लंघन है, क्योंकि तीन भाषा नीति का मुख्य उद्देश्य स्कूली बच्चों को देश की समृद्ध भाषाई विरासत से अवगत कराना और देश में एकता की भावना में वृद्धि करना था, न कि देश की आर्थिक उन्नति में योगदान करना। स्पष्ट ही तीसरी भाषा के रूप में जर्मन सिखाने से न तो बच्चों में देश की समृद्ध भाषाई विरासत से परिचय बढ़ता है न ही उनमें राष्ट्रीय एकता की भावना विकसित होती है। इसलिए केंद्रीय विद्यालय संगठन का यह कदम निंदनीय है और उसे अवैध घोषित करके मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने ठीक ही किया है।
पर जर्मन की जगह संस्कृत के शिक्षण के संबंध में यही बात नहीं कही जा सकती है। तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत पढ़ाना तीन भाषा नीति की दृष्टि से लगभग उतना ही बेतुका है जितना जर्मन सिखाना। संस्कृत देश में कहीं भी बोली नहीं जाती है। इसलिए उसके शिक्षण से बच्चों द्वारा देश की समृद्ध भाषाई संस्कृति से परिचित होने का सवाल ही नहीं उठता। इतना ही नहीं, उससे राष्ट्रीय एकीकरण को भी बढ़ावा नहीं मिलता। यदि संस्कृत की जगह हिंदी भाषी क्षेत्रों में बच्चे तमिल, बंगाली, उड़िया, पंजाबी, कश्मीरी, आदि भाषाएँ सीखते, तो वे हमारे देश की समृद्ध भाषाई और साहित्यिक विरासत से कितनी अच्छी तरह से परिचित हो जाते।
इसलिए मानव संसाधन मंत्रालय को केंद्रीय विद्यालयों से जर्मन हटाने के बाद स्कूली बच्चों पर संस्कृत थोपने की जगह, तीन भाषा सूत्र को सलीके से लागू करने की व्यवस्था करनी चाहिए। यानी, उसे हिंदी भाषी क्षेत्रों में तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत सहित देश की सभी अन्य भाषाओं के शिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए।
आजकल हर देश के लिए यह आवश्यक है कि वह विश्व के सभी प्रमुख भाषाओं के पठन-पाठन की व्यवस्था करे। भारत के लिए भी यह आवश्यक है। भारत में भी चीनी, जापानी, फारसी, अफगान, सिंहला, अरबी, स्पेनी, पुर्तगाली, फ्रेंच, जर्मन, आदि भाषाओं का शिक्षण होना चाहिए। पर यह सब स्कूली पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग नहीं हो सकता है। स्कूली शिक्षण के अनेक उद्देश्य होते हैं, जिनमें से प्रमुख हैं राष्ट्रीय एकता की भावना विकसित करना, वैज्ञानिक सोच विकसित करना, और व्यावहारिक और आर्थिक महत्व के विषय पढ़ाना। मातृ भाषा, हिंदी, अँग्रेज़ी, कोई अन्य भारतीय भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास, आदि विषय सभी को पढ़ना चाहिए। कुछ छात्र आगे चलकर इनमें से कुछ विषयों को अधिक गहनता से और पेशेवरीय स्तर पर पढ़ सकते हैं। कुछ छात्र देश-विदेश की अन्य भाषाएँ भी अतिरिक्त रूप से पढ़ सकते हैं। पर अनिवार्य शिक्षण का अंग यह नहीं हो सकता है। स्कूलों में तथा स्कूली बच्चों के पास सीमित समय ही होता है। उस समय में कुछ सीमित चीज़ें ही पढ़ाई जा सकती हैं। इन चीज़ों को हमें काफी सोच-समझकर तय करना होगा। यहाँ किसी खास वर्ग की विशिष्ट ज़रूरतों को सब पर थोपने के लिए कोई गुँजाइश नहीं है। इन खास वर्गों के लिए निजी स्कूलों का मार्ग खुला है। सरकारी पैसों से चलनेवाले केंद्रीय विद्यालयों में तथा आम शिक्षण में सर्वहित ही एकमात्र कसौटी होनी चाहिए। सर्वहित न तो संस्कृत के शिक्षण में है न जर्मन के शिक्षण में, बल्कि वह तीन भाषा सूत्र को ईमानदारी से और कुशलता से देश-भर में कार्यान्वित करने में है।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 3 टिप्पणियाँ
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