हिंदी में लंचबॉक्स भोजन को लेकर बनी इनी-गिनी फ़िल्मों में से एक है, इससे पहले, अमिताभ बच्चन और तब्बू वाली चीनी कम, और लव शव चिकन खुराना फ़िल्म काफी चली थी, जिसमें भी कहानी स्वादिष्ट भोजन के इर्द-गिर्द घूमती है। चीनी कम और लव शव चिकन खुराना एक संपूर्ण बॉलीवुड फ़िल्म हैं, नाच-गाने से भरूपर सफल व्यावसायिक रोमैटिंक कॉमेडी। लंचबॉक्स की विधा डॉक्यूमेंटरी के अधिक निकट जा पड़ी है, वह आर्ट फ़िल्म के खेमे में मानी जाएगी। लंचबॉक्स बॉलीवुड शैली की फ़िल्म नहीं है। फिर भी लंचबॉक्स एक सुंदर फ़िल्म है, जिसमें सभी अदाकारों ने उम्दा अभिनय किया है, चाहे वह ईरफ़ान खान हो, या नवासुद्दीन सिद्दीक़ी, या निम्रत कौर।
यह फ़िल्म आधी हिंदी में और आधी अँग्रेज़ी में है – इरफ़ान खान के सभी पत्र अँग्रेजी में हैं और उन्हें फ़िल्म में अँग्रेजी में ही पढ़कर सुनाया जाता है। इस कारण से केवल हिंदी जाननेवालों को लगभग आधी फ़िल्म समझ में नहीं आएगी। फ़िल्म का केंद्रीय हिस्सा लंचबॉक्स के ज़रिए निम्रत कौर और इरफ़ान खान के बीच पत्रों के विनिमय से जुड़ा है, यह इस फ़िल्म की एक मुख्य खामी है। पर शायद इस फ़िल्म को भारतीय दर्शकों के लिए नहीं बल्कि विदेशी दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाया गया है, या यों कह लीजिए, उच्च वर्ग के भारतीयों या विदेशों में बसे भारतीयों के लिए बनाया गया है, जो इतनी अँग्रेज़ी जानते हैं कि फ़िल्म के इन हिस्सों को समझ सकें। इस कारण से यह फ़िल्म देश के शहरी हिस्सों में ही चल सकेगी। गाँवों में जहाँ लोग अँग्रेज़ी से वाकिफ़ नहीं होते हैं, इसे समझ नहीं पाएँगे।
फ़िल्म का माहौल मुंबई पर टिका है – विशेषकर डिब्बेवालों और लोकल ट्रेनों पर। यह भी थोड़ा कृत्रिम लगता है, और ऐसा लगता है कि डिब्बेवालों की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति को भुनाने का प्रयत्न किया गया है। डिब्बेवालों का ट्रेन में बैठे तुकाराम के गीत गानेवाला अंश जो बारबार फ़िल्म में दिखाया गया है, मुझे काफ़ी अस्वाभाविक लगा।
फ़िल्म की कुछ अन्य बातें में भी खटकती हैं, जैसे इरफ़ान का सड़क में क्रिकेट खेल रहे बच्चों के साथ अँग्रेज़ी में बात करना, जबकि वे हिंदी अच्छी तरह जानते हैं और दफ़्तर में नवासुद्दीन आदि के साथ बड़ी अच्छी हिंदी बोलते हैं। भले ही इरफ़ान का किरदार एक ईसाई व्यक्ति का है, फिर भी कोई भी सड़क पर खेल रहे बच्चों के साथ अँग्रेज़ी में नहीं बात करेगा। यदि इरफ़ान अँग्रेज़ी में बच्चों को डाँटते, और बच्चे हिंदी में उन्हें अपनी सफ़ाई देते, तो यह फिर भी अधिक स्वाभाविक लगता, क्योंकि उस उम्र के और उस आर्थिक वर्ग के बच्चे अँग्रेज़ी नहीं बोलते हैं, हिंदी ही बोलते हैं। फ़िल्म के निर्माताओं/निदेशकों द्वारा यह दर्शाना कि ईसाई लोगों की ज़ुबान अँग्रेज़ी है, वास्तविकता से कोसों दूर है। भारत के ईसाई भारत की ही विभिन्न भाषाएँ बोलते हैं। यहाँ भी फ़िल्म के निर्माताओं/निदेशकों की नज़र विदेशी दर्शकों पर रही है।
पर फ़िल्म की सबसे बड़ी कमी तो यह है कि यह अचानक समाप्त हो जाती है। इसे यथार्थता कहा जा सकता है, पर इससे फ़िल्म एक डोक्यूमेंटरी जैसे लगती है – डिब्बेवालों पर बनी डोक्यूमेंटरी।
अब रही फ़िल्म की मुख्य कहानी की बात, यह भी कुछ मौलिक नहीं है। इसी तरह की एक फ़िल्म मलयालम में कुछ वर्ष पहले बन चुकी है, और यह फ़िल्म भी इतनी ही सुंदर और लोकप्रिय हुई थी, पर मलयालम जगत में। हिंदी वालों ने शायद ही उसके बारे में सुना होगा। यह फ़िल्म है सॉल्ट एंड पेप्पर।
सॉल्ट एंड पेप्पर (नमक और काली मिर्च) अनेक दृष्टियों से लंचबॉक्स से कहीं श्रेष्ठ फ़िल्म है। इसमें भी कहानी भोजन पर (दक्षिण भारतीय भोजन) पर आधारित है और यहाँ भी किसी को भेजा गया संदेश किसी और को पहुँच जाता है। इस फ़िल्म में टेलिफ़ोन के क्रॉस कनेक्शन से ऐसा होता है। एक विज्ञापन कंपनी में काम कर रही स्त्री एक होटल से ढोसा मँगाती है, और होटल को निर्देश देती है कि ढोसा किस तरह से बनाकर लाना है। पर यह फ़ोन होटल को न जाकर एक पुरातत्ववेत्ता को पहुँचता है जो किसी सुनसान पुरातत्व स्थल में अपने रसोइए द्वारा बनाए गए नीरस भोजन से तंग आ चुका है। जब उसे भोजन के संबंध में यह लार-टपकानेवाला फ़ोन कॉल आता है, तो वह पहले तो झुँझला उठता है, पर फिर चुपचाप सुनता जाता है। आगे के दिनों में यह क्रॉस कनेक्शन बारबार होता है और चूँकि यह पुरातत्ववेत्ता भी महा भोजन-भट्ट है, दोनों में धीरे-धीरे दोस्ती होती जाती है, जो मुख्य रूप से दोनों का भोजन पर रुचि होने पर आधारित होती है।
जिस तरह लंचबॉक्स में नवासुद्दीन सिद्दकी की भूमिका इरफ़ान के शागिर्द की है, वैसे ही सॉल्ट एंड पेप्पर में भी पुरातत्ववेत्ता के एक साइड-किक (शागिर्द) के रूप में उसका एक भाँजा उसके साथ रहने आता है (यह भूमिका मलयालम फ़िल्म जगत के उभरते सुपरस्टार आसिफ़ अली ने बहुत ही अच्छे ढंग से निभाया है)। आसिफ़ अली नौकरी की तलाश में बैठे एमबीए की पढ़ाई पूरी कर चुके छात्र की भूमिका निभाता है, जो नौकरी लगने तक कुछ समय अपने मामा के साथ बिताने आया है।
लंचबॉक्स में निम्रत कौर की एक अधेड़ उम्र की पड़ोसिन है जिसकी केवल आवाज़ सुनाई देती है। इससे मिलती-जुलती एक भूमिका सॉल्ट एंड पेपर में भी है। यह है होटल से ढोसा मँगानेवाली स्त्री की सहकर्मी।
जब ढोसा वाली स्त्री और पुरातत्ववेत्ता में दोस्ती बढ़ती जाती है, दोनों में एक-दूसरे के प्रति प्यार के अंकुर भी फूटने लगते हैं। दोनों शादी करने की सामान्य उम्र पार चुके हैं, और उन्हें आशा बँधती है कि शायद यह उनके लिए आखिरी मौका है। पर दोनों को ही अपने ऊपर विश्वास नहीं है। पुरातत्ववेत्ता को लगता है कि वह बूढ़ा और कुरूप है, और जब फ़ोन वाली स्त्री उसे आमने-सामने देखेगी तो उसका मोह-भंग हो जाएगा। स्त्री का भी यही ख्याल है। इसलिए जब दोनों एक-दूसरे से मिलने का निश्चय करते हैं, तो पुरात्ववेत्ता आसिफ़ अली को उसकी जगह भेजता है, और फ़ोन वाली स्त्री अपनी सहकर्मी को, जो उम्र में उससे बहुत छोटी है। दोनों अपने-अपने प्रतिनिधि को निर्देश देते हैं कि जाकर देख आओ कि वह कैसा/कैसी है। जब फ़ोनवाली स्त्री की सहेली आसिफ़ अली को देखती है, तो उसे लगता है कि इतनी कम उम्र का लड़का उसकी सहली का जीवन-साथी नहीं बन सकता है, और असिफ़ अली को भी फ़ोनवाली स्त्री की सहेली को देखकर यही बात लगती है। दोनों जाकर बता देते हैं यह रिश्ता महज हवाई कल्पना है और यह दोनों के लिए बिलकुल बेमेल है। इतना ही नहीं, कहानी में ट्विस्ट के रूप में असिफ़ अली को फ़ोनवाली स्त्री की सहेली से प्यार भी हो जाता है। और पुरातत्ववेत्ता को लगता है कि असिफ़ अली ने इसी कारण उससे झूठ बोला है कि फ़ोनवाली स्त्री के साथ उसका संबंध बेमेल साबित होगा। इससे जो ईर्ष्या, जलन, झगड़े आदि होते हैं, उसको लेकर फ़िल्म काफी उलझ जाती है।
पुरतत्ववेत्ता को अब अपने काम में ज़रा भी मज़ा नहीं आता है और उसकी झुँझलाहट और भी अधिक बढ़ जाती है। वह अपने रसोइए से भी लड़ पड़ता है, जिसके साथ वह बचपन से ही रहता आ रहा है। यही हाल फ़ोनवाली लड़की का भी होता है, वह भी जीने की इच्छा खो बैठती है।
फ़िल्म का अंत हैपी ऐंडिंग में होता है, और दोनों एक-दूसरे से मिलते ही नहीं, बल्की एक-दूसरे से विवाह भी कर लेते हैं। यह कहना मुश्किल है कि लंचबॉक्स की कहानी इस मलयालम फ़िल्म से चुराई गई है या नहीं। ऐसा भी हो सकता है कि दोनों ही फ़िल्मों की मूल-प्रेरणा किसी अन्य जगह से आई हो। जो भी हो, लंचबॉक्स और सॉल्ट एंड पेप्पर में इतनी अधिक समानताएँ है कि वे इन दोनों फ़िल्मों को देखनेवालों को बरबस आकर्षित करती हैं। मुझे स्वयं लंचबॉक्स से अधिक सॉल्ट एंड पेप्पर पसंद आई। वह एक संपूर्ण फ़िल्म की तरह लगती है, यानी उसमें कहानी एक मुकाम तक पहुँचती है, और लंचबॉक्स की तरह अधर में लटकी हुई नहीं रहती है।
सॉल्ट एंड पेप्पर संपूर्ण रूप से एक व्यावसायिक – और सफल – फ़िल्म है, जबकि लंचबॉक्स फ़िल्म फ़ेस्टिवलों, विदेशी दर्शकों और ऑस्कार जैसे पुरस्कारों को ध्यान में रखकर बनाई गई है। वह भारतीय दर्शकों के साथ सही गोट नहीं बैठा पाती है। तकनीकी दृष्टि से लंचबॉक्स त्रुटि-रहित फ़िल्म हो सकती है, पर यह भारतीय फ़िल्मों के रसिकों को रुचती नहीं है। यही इस फ़िल्म की कमी है।
आपमें से जिन लोगों ने लंचबॉक्स और मलयालम की सॉल्ट एंड पेप्पर फ़िल्म दोनों देखी हों, वे बताएँ कि क्या उन्हें भी इन दोनों फ़िल्मों की समानताएँ देखकर आश्चर्य हुआ था।