जब माताजी मेरे साथ रहने आईं, तो हमने गुरुवायूर की तीर्थयात्रा की योजना बनाई। माताजी के दो बेटे हैं, मैं और मेरा बड़ा भाई, जो दिल्ली में हैं। वे हम दोनों बेटों के बीच समय काटती हैं, हालांकि ज्यादातर समय बड़े बेटे, यानी दिल्ली में ही, वे रहना पसंद करती हैं। पर इस बार जब दिल्ली का पारा चिंताजनक रूप से गिरने लगा और उन्हें ठंड असह्य होने लगी, तो उन्होंने मुंबई में मेरे साथ कुछ समय बिताने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इसमें गुरुवायूर जाने का मेरा प्रलोभन का योगदान भी काफी रहा होगा। मां 70 साल की हैं, और उनका और मेरे पिताजी का बचपन गुरुवायूर के इर्द-गिर्द ही गुजरा है। आज गुरुवायूर एक बड़ा तीर्थ-स्थल है जहां भक्तों की अपार भीड़ जुटती है, और भगवान के दर्शन के लिए घंटों कतार में खड़ा रहना पड़ता है। पर मां के बचपन के समय गुरुवायूर इतना बड़ा तीर्थस्थल नहीं बना था, और उनकी पीढ़ी के लोगों के लिए सुबह मंदिर के पवित्र सरोवर में स्नान करना और देवालय में जाकर अनायास ही गुरुवायूरप्पन के दर्शन कर आना, रोज की दिनचर्या में शामिल था। इस तरह गुरुवायूर और गुरुवायूरप्पन उनके रग-रग में व्याप्त था, और पचास साल से अधिक वर्ष केरल के बाहर रहने के बावजूद गुरुवायूर का आकर्षण उनके लिए कुछ भी कम नहीं हुआ था।
मुझे भी गुरुवायूर जाना प्रिय था। गुरुवायूरप्पन के दर्शन करना और उनका आशीर्वाद पाना एक कारण था, दूसरा इस मंदिर के विभिन्न क्रियाकलाप देखने का लोभ था, विशेषकर उसके हाथियों के आयोजन। गुरुवायूर में 70 से अधिक हाथी हैं, जिनमें से अधिकांश बड़े-बड़े दंतैल हाथी हैं। इन्हें मंदिर के कई क्रियाकलापों में उपयोग किया जाता है। जब इन्हें सोने-चांदी, रेशम, मोरपंख, छत्र, चंवर आदि से सजाकर इन पर भगवान की मूर्ति रखकर चेंडैं (एक प्रकार का केरली नगाड़ा), झांझ, आदि पांच वाद्यों (पंचवाद्य) के मादक सुर-लहरी के साथ घोषयात्रा निकलती है, तो देखनेवालों में एक विचित्र और अलौकिक रोमांच संचरित हो जाता है, जो अवर्णनीय है।
बड़ी मुश्किल से रेल में आरक्षण मिल सका और हम चल पड़े मुंबई से नेत्रावती एक्सप्रेस में, थ्रिशूर तक - जो लगभग 24 घंटे की यात्रा है। गुरुवायूर के लिए थ्रिशूर सबसे सुविधाजनक रेलवे स्टेशन है। दिल्ली से त्रिवेंड्रम जानेवाली राजधानी आदि सभी बड़ी गाड़ियां इस स्टेशन पर रुकती है। यहां से गुरुवायूर मात्र 25 किलोमीटर है। जब हम बहुत से लोग होते हैं, तो यह दूरी किराए के क्वालिस में अथवा बस से तय करते हैं, पर चूंकि इस बार हम दो ही लोग थे, और सामान भी कम था, इसलिए मैंने ऑटोरिक्शे से ही जाना तय किया। किसी ने मुझे बताया था, कि थ्रिशूर से गुरुवायूर ऑटोरिक्शे जाते हैं। स्टेशन के बाहर ही एक ऑटो मिल गया। हल्की बारिश हो रही थी, और हमें अंदर खेद हो रहा था कि हमने सामान कम करने के चक्कर में छतरी साथ में नहीं रखी, हालांकि कई लोगों ने हमें चेताया था कि केरल में इस समय बारिश हो रही है। पर बारिश हल्की थी और उसके जल्द थम जाने के आसार दिख रहे थे।
घंटे भर में ही हम गुरुवायूर पहुंच गए। मैंने गुरुवायूर मंदिर के व्यवस्थापकों द्वारा चलाए जानेवाले पांचजन्य गेस्टहाउस में पहले ही कमरा बुक करके रखा था, इसलिए ऑटो को वहीं ले गया। सामान उतारकर जब ऑटोवाले को पैसा चुकाने लगा, तो उसने जो दाम मांगा, उसे सुनकर मेरे होश उड़ गए। 25-30 किलोमीटर की यात्रा के लिए उसने 360 रुपए मांगे। इस हिसाब से प्रति किलोमीटर 14 रुपए बनते थे, जो टैक्सी की दर से भी ज्यादा था। पर बहस करना व्यर्थ लगा, गलती मेरी ही थी, मैंने शुरू में ही रेट तय नहीं किया, बस इतना पूछा कि मीटर से ही लोगे न, जिसका उत्तर ऑटो चालक ने हां में दिया था। मैंने यह स्पष्ट पूछना जरूरी नहीं समझा कि प्रति किलोमीटर क्या रेट होगी। मैंने मान लिया था कि वह सामान्य शहरी रेट ही होगी, और 25-30 किलोमीटर के लिए 50-60 रुपए से अधिक नहीं होगा। मुझे क्या मालूम था कि वह एसी-टैक्सी से भी ज्यादा की रेट वसूलेगा।
पर हम बिना किसी संकट के थ्रिशूर से गुरुवायूर पहुंच ही गए थे, इसलिए इस लूट का मैंने अधिक विरोध नहीं किया और पांच सौ रुपए का नोट ऑटोवाले को थमा दिया। उसने बड़ी महरबानी से डेढ़ सौ रुपए लौटाए, यानि मुझे दस रुपए की छूट दी। मुझे इसी से संतुष्ट होना पड़ा।
मैं पांचजन्य गेस्टहाउस में अपना कमरा प्राप्त करने के लिए गया। कमरे का किराया (एक दिन के 350 रुपए) मैंने अग्रिम ही ड्राफ्ट के रूप में भेज दिया था, और गेस्टहाउस प्रबंधकों से कमरे की बुकिंग की रसीद भी मुझे डाक से ही मिल चुकी थी। इसलिए वहां कोई दिक्कत नहीं हुई। कमरे में सामान रखकर हमने जल्दी से नहा लिया और गेस्टहाउस के ही रेस्तरां में भोजन करने गए। यह रेस्तरां वाकई अच्छा है और इसमें कई स्वादिष्ट व्यंजन मिलते हैं। भोजन (राइस प्लेट) तो मिलता ही है, मसाला दोशा, इडली, वडा, तला हुआ मीठा केला (यह केरल का एक विशिष्ट व्यंजन है जो केरल में हर जगह मिलता है, यहां तक कि ट्रेनों और स्टेशनों में भी, और इसे आपको एक बार तो चखकर देखना ही चाहिए), पूरी-भाजी, आदि। पर दुपहर का समय होने से उस समय केवल भोजन (राइस प्लेट) उपलब्ध था, हमने वही लिया। अब हम पूरी तरह तैयार थे, भगवद-दर्शन के लिए। यह काफी मशक्कत-वाला काम साबित हो सकता था, क्योंकि उस समय अय्यप्पन का सीज़न था और दक्षिण भारत के सभी मंदिरों में अयप्पन के भक्तों की अपार भीड़ थी।
मंदिर का पश्चिम द्वार ठीक पांचजन्य गेस्टहाउस के गेट के सामने ही था, इसलिए पैदल ही चल पड़े, चप्पल हमने कमरे में ही छोड़ दिए। हमारे सौभाग्य से ज्यादा भीड़ नहीं थी, और एक-आध घंटे में ही भगवान के दर्शन हो जाने की उम्मीद थी। इसलिए हम उत्साह के साथ कटघरों में खड़े हो गए। जो लोग तिरुपति आदि गए हों, वे इन कटघरों के बारे में जानते होंगे। लोहे की पाइपों से बना यह भूल-भुलैया, भीड़-नियंत्रण के विचार से खड़ा किया गया है, दर्शनार्थियों को इसमें खड़ा रहकर धीरे-धीरे आगे बढ़ना होता है।
लाइन में खड़े-खड़े हम चारों ओर की विभिन्न गतिविधियों को निहारने लगे। गरुवायूर हमारे लिए परिचित स्थल था, पर हर बार वहां आने पर नयापन लगता था। मंदिर के बड़े-बड़े भवन हर ओर दिखाई दे रहे थे। गर्भगृह, ऊट्टु-पेरै (भोजन-शाला, जहां भक्तगणों को मुफ्त में भोजन मिलता है), जिसके आगे भगवद-दर्शन कर चुके भक्तों की लंबी कतार खड़ी थी, स्नानगृह, मंदिर के सरोवर की सीढ़ियां, ऊंचा कोडि-मरम (पताका-दंड), दीपस्तंभ, स्वर्ण-मंडित गुंबद, नाट्यशाला (जहां प्रवचन, कथकली, भरत-नाट्यम, संगीत-उत्सव आदि आयोजित किए जाते हैं), विवाह-मडंप (दक्षिण में शादी-ब्याह गुरुवायूर मंदिर में कराने की प्रथा है, जिसके लिए दो विशेष मंडप बने हैं; मुहूरत वाले दिन यहां बीसियों शादियां होती हैं, जिसके लिए आधे-एक घंटे के लिए लोग इन मंडपों को किराए पर लेते हैं) जिनमें एक के बाद एक करके विवाह होते जा रहे थे और नागस्वरम (दक्षिणी शहनाई), कोट्टुमेलम (मृदंग जैसा वाद्य जिसे एक ओर से लकड़ी की छोटी छड़ी और दूसरी ओर से हाथ की ऊंगलियों से बजाया जाता है) आदि बज रहे थे, और मंदिर के द्वार के आगे लंबा सा दालान जिसके दोनों ओर दुकानें हैं - ये पूजा के सामान तो बेचते ही हैं, जैसे घंटी, दीप, अगर, फोटो, कैसेट, धार्मिक पुस्तकें, आदि, अन्य सामानों की दुकानें भी हैं, जैसे मिठाई के, कपड़े के, अल्पाहार-गृह आदि। दूसरे मैदान में हाथी बांधने का शेड है, जिसमें उस समय दो बड़े-बड़े हाथी विश्राम कर रहे थे और बड़े-बड़े नारियल के हरे डंठल युक्त पत्ते खा रहे थे। हमारे देखते ही महावत एक बड़े दंतैल को शेड की ओर ले आए। वह अपनी सूंड और दांतों के बीच नारियल के पत्तों का एक बड़ा गट्ठर थामे हुए था। महावत के इशारे पर उसने यह गट्ठर शेड के आगे गिरा दिया और अपनी पीछे की एक टांग घुटने पर मोड़कर ऊपर की ओर किया ताकि उस पर पैर रखकर उसकी पीठ पर सवार महावत नीचे उतर सके। महावत के उतरने के बाद हाथी कुछ कदम रिवर्स गियर में चलकर अपने निर्धारित स्थान में अन्य हाथियों के बगल में खड़ा हो गया और महावत ने उसके पैरों पर जंजीरें कस दीं। हाथी इत्मीनान से चारा चबाने लगा। उसे तथा उसके अन्य दो साथियों को देखने एक छोटी भीड़ शेड के चारों ओर इकट्ठी हो गई।
लाइन में खड़े-खड़े हम यह सब देखते-सुनते जा रहे थे। मंदिर के पब्लिक एनाउन्समेंट सिस्टम से मंदिर की गतिविधियों की संक्षिप्त कमेंट्री भी प्रसारित हो रही थी। यह मलयालम, तमिल, हिंदी और अंग्रेजी में बारी-बारी से प्रसारित हो रही थी। मैं हिंदी प्रसारणों की ओर विशेष ध्यान दिया। प्रसारण स्त्री-वाणी में था, और उच्चारण बिलकुल शुद्ध था। शायद कोई हिंदी-भाषी युवती ही संदेशों को पढ़ रही थी, या शायद ये संदेश पहले से ही रेकोर्ड किए गए थे।
इतनी विविध दृश्वाली होने के कारण लाइन में खड़े-खड़े समय कैसे बीत गया, यह पता ही नहीं चला। धीरे-धीरे कतार आगे बढ़ती गई और हम थोड़ी धक्का-मुक्की के साथ मंदिर में प्रवेश कर गए। मंदिर के अहाते में अपार भीड़ थी जिनमें अधिकांश काले वस्त्रों में अय्यप्पन-भक्त ही थे। ये रह-रहकर "स्वामि शरणम, शरणमय्यप्पा" की गुहार लगा रहे थे, और अय्यप्पन-भगवान के भजन गा रहे थे।
पूरे मंदिर को दीपों से सजाया गया था। गर्भगृह के सामने हमें चंद पलों के लिए ही खड़े होने मिला, इतने में ही पुजारियों ने और हमारे पीछे खड़ी भीड़ के धक्कों ने हमें वहां से खदेड़ दिया। इन पलों में हमें गुरुवायूरप्पन की जो झलक मिल सकी, उसी में हमने उन्हें जीवन के कष्टों की फिहिरिश्त मन ही मन सुना दी और उनकी कृपा की अपील की।
अब जब मुख्य काम हो गया था, तो हम थोड़े इत्मीन से मंदिर के अन्य क्रियाकलापों की ओर ध्यान दे सके। जैसा कि मुझे आशा थी, मंदिर के अंदर के अहाते में भी पत्थर के बड़े-बड़े खंभों के बीच चार हाथी बंधे हुए थे, जिनमें से तीन दंतैल थे और एक मादा थी। इनके सामने नारिल के पत्तों का ढेर रखा हुआ था, जिन्हें ये अपनी सूंड़ों से उठा-उठाकर खा रहे थे। इनके महावत इनके खंभे नुमा पैरों पर कंधा टिकाए बैठे आपस में बतिया रहे थे। हर हाथी के पीछे दो-तीन महावत थे। मंदिर में अपार भीड़ थी। सैकड़ों लोग उस बंद अहाते में मौजूद थे, और वे हाथियों से चंद फुट की दूरी पर आ-जा रहे थे। कभी कोई हाथियों की ओर केला बढ़ा देता, और हाथी उसे अपनी सूंड़ में लेकर मुंह में डाल लेता। इतने कोलाहल के बावजूद हाथी शांति से खड़े थे। बड़ी ही विस्मयकारी बात थी। महावतों को इन दानवों पर कितना अचूक और पूर्ण नियंत्रण था, इसका यह प्रमाण था। यदि ये हाथी जरा भी भड़क जाते या बेकाबू हो जाते तो मिनटों में बीसियों आदमियों की जानें चली जातीं। ऐसा भी नहीं है कि मोटे-मोट जंजीरों में बंधे ये हाथी यदि चाहें, तो भी अधिक नुकसान नहीं कर सकते, क्योंकि जब शीवेली (घोषयात्रा) निकाली जाती है, तो इन्हें बंधनमुक्त कर दिया जाता है, और इन पर भगवान की मूर्ती रखकर, वाद्ययंत्रों के साथ गर्भगृह के चारों ओर के अहाते में इन्हें चलाया जाता है। हाथी अपार भीड़ के बीच रास्ता बनाते हुए बढ़ते हैं, महावतों और पुजारियों को चिल्ला-चिल्लाकर और कभी-कभी बलात हाथियों के लिए भीड़ में से रास्ता बनाना पड़ता है। सब लोग हाथियों को घेरकर खड़े हो जाते हैं और बूढ़ी औरतें हाथियों को छूकर अपने-आपको पवित्र करने के प्रयास में उनके पैरों के बीच तक भी आ जाती हैं, और महावतों को उन्हें खदेड़ना पड़ता है।
मंदिर में पूरा दिना बिताना मुश्किल न था, इतनी सारी गतिविधियां वहां एक-साथ चल रही थीं। कहीं तुलाभारम (मनचाहे वस्तु से अपने आपको तुलवाकर उस वस्तु को भगवान को अर्पित करना) के लिए लोग भीड़ लगा रहे थे, कहीं प्रसाद के लिए लाइन लगी थी। मुख्य मंदिर के चारों ओर अनेक छोटे मंदिर भी थे, जिनमें से प्रत्येक में भक्तों की भीड़ थी। कुछ भक्त विचित्र रीति से गर्भगृह की परिक्रमा कर रहे थे, कोई एक पैर के ठीक आगे दूसरा पैर सटाकर रखकर धीरे-धीरे, भगवान का नाम जपते-जपते परिक्रमा कर रहा था, कोई फर्श पर साष्टांग लेटकर और धीरे-धीरे फर्श पर लुढ़कते-लुढ़कते मंदिर की परिक्रमा कर रहा था।
पर हम दिन भर की रेल-यात्रा से थके थे, इसलिए रात के दस बजे के करीब अपने कमरे में लौट आए, और यह निश्चय करके सो गए कि कल सुबह जल्दी उठकर फिर मंदिर जाएंगे।
Sunday, January 09, 2011
मेरी गुरुवायूर तीर्थयात्रा
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 8 टिप्पणियाँ
लेबल: गुरुवायूर
Thursday, January 06, 2011
ईसाइयों की प्रगतिशीलता
जब धर्म वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार अपने-आपको ढालने के संकेत देता है, तो निश्चय ही वह एक सराहनीय बात है।
ईसाई धर्म में इस तरह के सकारात्मक संकेत मिल रहे हैं। ईसाई धर्म में मृतकों को ताबूत में रखकर दफनाने का रिवाज है। यह ताबूत सागौन आदि महंगी लकड़ी से बनते हैं, और कलात्मक नक्काशी वाले ताबूतों की कीमत 50,000 रुपए तक पहुंच जाती है। इन ताबूतों के कारण अनेक गरीब ईसाइयों के लिए अपने प्रिय-जनों के अंतिम संस्कार के फलस्वरूप कर्ज और आर्थिक बर्बादी की नौबत आती है।
पर कैथोलिकों की सभा ने अब शवों को बिना ताबूतों में रखे, केवल कफन के कपड़े में लपेटकर दफनाने को मंजूरी दे दी है। इससे पहले ही मुंबई क्षेत्र में कई चर्चों में बिना ताबूत के शवों को दफनाया जाता रहा है। मुंबई के वसाई क्षेत्र के कुछ ईसाई इसके मध्यवर्ती रिवाज अपनाते हैं। वे शव को ताबूत में रखकर कब्रिस्तान तक लाते हैं, पर दफनाते समय शव को ताबूत से बाहर निकालकर कफन में लपेटकर दफनाते हैं। इस तरह एक ही ताबूत का बारबार उपयोग हो पाता है। कैथोलिक सभा ने राय दी है कि अब शवों को बिना ताबूत के दफनाने की प्रथा को व्यापक रूप से अपनाने में दोष नहीं है। इससे संबंधित वक्तव्य सभा ने अपनी पत्रिका सत्यदीप में प्रकाशित की है।
शव संस्कार की इस नई रीति का एक फायदा महंगे ताबूतों से मुक्ति है, पर इसके अन्य फायदे भी हैं। ताबूतों में रखे शवों के नष्ट होने में अधिक समय लगता है, और इस कारण कब्रिस्तानों में भूमि के पुनरुपयोग की संभावना घट जाती है। पर्यावरण की दृष्टि से भी शवों के दफनाने में ताबूत का उपयोग न करना फायदेमंद है। इससे न जाने कितने पेड़ों को जीवन-दान मिल सकता है।
शवों के दफनाने की यह नई रीति हिंदुओं, मुसलमानों, यहूदियों और पारसियों की अंत्येष्टि प्रथाओं के समीप है। इन सब धर्मों में भी ताबूत का उपयोग नहीं होता है। शवों को या तो जलाकर नष्ट किया जाता है, अथवा कफन में लपेटकर दफनाया जाता है।
इस संबंध में सेंट इग्नेशियस चर्च के पादरी फादर जोसेफ डिसूज़ा याद दिलाते हैं कि स्वयं ईसा मसीह के मृत-देह को बिना ताबूत के दफनाया गया था।
सभी धर्मों को अपने रीति-रिवाजों को इसी तरह समकालीन परिस्थितयों के अनुसार बदलने में संकोच नहीं करना चाहिए। इन रीति-रिवाजों का धर्मों के केंद्रीय तत्वों से कोई संबंध नहीं होता है, वे केवल सुविधा के लिए अपनाए गए होते हैं।
आजकल कई धर्मों ने अपने परंपरागत रिवाजों से चिपके रहने की अड़ियलता दिखाई है, भले ही ये रिवाज आजकल की परिस्थितियों में निरर्थक या हानिकारक साबित हो चुके हों। उन्हें ईसाइयों की इस प्रगतिशीलता से प्रेरणा लेनी चाहिए।
लेखक: बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण 2 टिप्पणियाँ