मलयालम अखबार मातृभूमि में एक रोचक खबर पढ़ने को मिली, जो आपको भी रुचिकर लगेगी। खबर कुछ यों है -
एक व्यक्ति ने मकान बनाने के लिए लट्ठें खरीदीं। लट्ठों को ट्रक पर चढ़ाने के लिए उसने एक हाथी को किराए पर लिया। हाथी ने सभी लट्ठों को ट्रक पर चढ़ा दिया। ट्रक चलने ही वाला था, कि तभी मजदूर यूनियन के कारिंदे वहां आ धमके और ट्रक को घेरकर खड़े हो गए। उन्होंने लट्ठ खरीदनेवाले व्यक्ति से उनसे काम न लेने का जुर्माना मांगा। जब उस व्यक्ति ने 1,200 रुपए दिए, तभी उन्होंने ट्रक को जाने दिया। ट्रक जाने को हुई तो उससे दो लट्ठें खुलकर सड़क पर गिर गईं। जब मजदूरों से कहा गया कि इन्हें ट्रक पर चढ़ा दो, तो उन्होंने मना कर दिया।
क्या ऐसी कोई खबर किसी हिंदी अखबार में पढ़ने को मिलेगी? है न यह हिंदी भाषियों को कल्चरल शॉक देनेवाली खबर!
पहली विचित्र बात तो लट्ठ उठवाने के लिए हाथी का बुलाया जाना है। गधे, ऊंट, बैल, भैंसा आदि जानवरों से बोझा उठवाने के बारे में आपने सुना होगा। पर हाथी से ऐसा काम करवाना! हिंदी भाषियों के लिए हाथी ऐश्वर्य और आडंबर का चिह्न है न कि भारवाहक पशु। पर केरल में पालतू हाथी इतनी प्रचुर संख्या में हैं कि उनके भरण-पोषण में योगदान देने के लिए उनसे ऐसे छोटे-मोट काम कराए ही जाते हैं। हां, वहां भी हाथी ऐश्वर्य और आडंबर का चिह्न है, और बड़े मंदिरों में एक-दो हाथी बंधते ही हैं, जिनका मंदिर के उत्सवों और अन्य समारोहों में उपयोग किया जाता है। गुरुवायूर जैसे बड़े मंदिरों में तो 70 से अधिक हाथी हैं, यानी हमारे कई हाथी-अभयारण्यों में जितने हाथी हैं, उससे कहीं ज्यादा!
दूसरी गौर-तलब बात है मजदूरों का हाथी से काम लेने का विरोध करना, और इसके लिए जुर्माना वसूलना। भूलना नहीं चाहिए कि केरल वह राज्य है जहां आजाद भारत के प्रथम आम चुनाव में ही साम्यवादी सरकार बन गई थी। यह दूसरी बात है कि नेहरू ने उसे तुरंत ही तिकड़म करके बर्खास्त करा दिया था। पर सच यह है कि केरलवासियों की रग-रग में साम्यवाद के सिद्धांत बसे हुए हैं, और वहां का आम आदमी भी मार्कस्वाद की बातें समझता है। वहां का हर वर्ग अपने अधिकारों को अच्छी तरह पहचानता है और उनके लिए लड़ना जानता है। वहां के मजदूर रोजगार पाना अपना अधिकार मानते हैं, और यदि कोई उन्हें इस अधिकार से वंचित करना चाहे, तो वे हथियार उठा लेने के लिए तैयार रहते हैं, जैसा कि उपर्युक्त खबर से ही स्पष्ट है।
क्या केरल के सिवा किसी अन्य प्रदेश के मजदूरों में इतना साहस हो सकता है कि वे रोजगार पाने के अपने अधिकारों के लिए इस तरह लड़ सकें? अभी हाल में दिल्ली से साइकिल-रिक्शों को निषद्ध करने की आज्ञा दिल्ली सरकार ने जारी की थी। रिक्शा चालकों की तरह से किसी भी प्रकार का विरोध देखने में नहीं आया। किसी भी राजनीतिक दल ने उनकी तरफ से आवाज नहीं उठाई। इसी तरह मुंबई के हिंदी भाषी टैक्सी-चालकों के विरुद्ध शारीरिक हमले हुए, पर कोई भी इन मजदूरों के पक्ष में सामने नहीं आया। यदि दिल्ली के रिक्शा-चालक और मुंबई के टैक्सी-चालक भी केरल के मजदूरों के समान साम्यवादी सिद्धांतों से परिचित होते और संगठित होते, तो किसकी मजाल कि उनकी रोजी-रोटी पर इस तरह लात मारे।
पर क्या ऐसा हो सकता था? केरल में शत-प्रति-शत साक्षरता है, यानी गरीब से गरीब मजदूर भी अखबार पढ़ता है, पुस्तकें पढ़ता है, स्वतंत्र चिंतन करता है। अखबारों, पुस्तकों, टीवी-रेडियो आदि के माध्यम से वह आधुनिक सिद्धांतों के सजीव संपर्क में रहता है। केरल के राजनीतिक दल भी अधिक जनतांत्रिक हैं, वहां वंशवाद नहीं चलता है। गांधी परिवार, मुलायम परिवार, लालू परिवार, पासवान परिवार जैसे खानदान केरल की राजनीति में आपको नहीं मिलेंगे। हां करुणाकरन (जो अभी हाल में दिवंगत हुए) ने अपना राजनीतिक वंश चलाने की कोशिश की थी, पर सफल नहीं हुए। और फिर वे कांग्रेसी थे, और वहीं से उन्हें ऐसे संस्कार मिले होंगे।
दूसरी बात यह है कि केरल ने कई दशकों से छोटा परिवार अपनाया हुआ है। केरल में आम गृहस्थी में एक या ज्यादा-से-ज्यादा दो बच्चे ही होते हैं। यह अमीरों और मध्यम-वर्ग के परिवारों के लिए ही सच नहीं है, बल्कि गरीब तबके के परिवारों के लिए भी। इससे अधिकांश परिवारों को अपनी इकलौती या दुकलौती संतान की शिक्षा-दीक्षा, स्वास्थ्य-सेहत, खान-पान, दवा-दारु पर मुक्त-हस्त से खर्च करने में कोई संकोच नहीं होता है, चाहे वह लड़का हो या लड़की । इससे केरल के बच्चों को जिंदीगी की दौड़ में दो कदम आगे रहने में मदद मिलती है। वे स्वस्थ-तंदुरुस्त, पढ़े-लिखे, प्रसन्न-चित्त होते हैं, जिससे उनमें आत्म-विश्वास छलकता रहता है, और किसी भी अन्याय से लड़ने की उनमें गहरी क्षमता होती है। उन्हें डराना-धमकाना, या बलपूर्वक चुप करा देना संभव नहीं होता।
हिंदी प्रदेश में शिक्षा का अभाव है, रूढ़िवादिता ज्यादा है, लोग कुपोषण, बीमारी, अंधविश्वास आदि से पीड़ित रहते हैं, जिससे उनमें आत्म-विश्वास की कमी हो जाती है, ज्ञान का प्रकाश न रहने से वे दुविधा की स्थिति में रहते हैं, और अपने केरली भाइयों की तुलना में अधिक धब्बू होते हैं। पर धीरे-धीरे स्थिति बदल रही है, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि अंगड़ाई ले रहे हैं और निद्रा झटककर शिक्षा और ज्ञान को अंगीकार कर रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि आनेवाले दशकों में उनके लोग भी वैसे ही आत्मविश्वासी और दृढ़ बन सकेंगे, जैसे केरल के।
तीसरी बात केरल में स्त्रियों को मिली हुई संपूर्ण आजादी है। शायद केरल भारत का एकमात्र राज्य है, जहां स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक है। पंजाब, हरियाणा, गुजरात आदि में 1,000 पुरुषों के पीछे 800-900 महिलाएं ही हैं, जबकि केरल में 1,098 महिलाएं हैं। स्त्री स्वतंत्र रहने पर उनकी संतानें भी अधिक स्वस्थ, पढ़ी-लिखी और आत्म-विश्वास से भरपूर होती हैं।
और अंत में पहले बताई गई खबर से मिलती-जिलुती एक और किस्सा। उत्तर भारत से एक मुसाफिर केरल के एक रेलवे स्टेशन पर उतरा। उसके साथ कुछ सामान था, इसलिए उसने कुली बुलाया। कुली ने जो भाव मांगा वह उसे अधिक लगा। सामन बहुत भारी न था, इसलिए उसने उसे खुद ही उठा लेने का निश्चय किया। उसने सूटकेस किसी तरह सिर पर चढ़ा लिया और बैगों को कधे पर टांगकर लड़खड़ाते कदमों से प्लेटफोर्म से चल पढ़ा। गाड़ी तीसरे नंबर के प्लैटफोर्म पर आई थी, इसलिए उसे सीढ़ियां चढ़नी-उतरनी पड़ीं। किसी तरह हांफते-हांफते, पसीने से तरबतर होकर, वह स्टेशन के बाहर आया।
बाहर आते ही कुलियों के गिरोह ने उसे घेर लिया। उसकी अगुआई कर रहा था वही कुली जिससे उसकी प्लैटफोर्म पर बहस हुई थी।
उस कुली ने कहा, "चुपचाप मजदूरी गिनकर रख दो, वरना समान यहां से नहीं हिलेगा।"
मुसाफिर पहले तो कुछ समझा नहीं, बोला, "कैसी मजदूरी, कहां की मजदूरी। सारा सामान तो मैंने खुद उठाया है!"
कुली बोला, "खुद क्या हमसे पूछकर उठाया था? यहां का नियम है कि सामान कुली ही उठाएंगे। यदि स्वयं उठाना चाहो, तो शौक से उठा लो, पर कुली को मेहनताना तो देना ही पड़ेगा।"
उस बेचारे मुसाफिर ने बहुत बहस करके देखी, पर उसकी एक न चली। अंत में उसे कुली को पैसे देने ही पड़े। कैसा कड़ुवा अनुभव रहा होगा उसका, सामान भी खुद उठाना पड़ा और पैसे भी मुट्ठी से गए। यदि उसे पता होता कि ऐसा होनेवाला है, तो शायद वह कुली को ही सामान सौंप देता और अपने कंधों पर इतना अत्याचार नहीं होने देता।
खैर, जब मजदूरों में जागरूरता आती है, तो ऐसा भी हो सकता है। शायद इसीलिए हर देश में सत्ताधारी वर्ग इसकी भरपूर कोशिश करते हैं कि मजदूर वर्ग को अशिक्षा के अंधकार में रखा जाए, और साम्यवाद जैसे सिद्धांतों की उन्हें भनक तक न लगे।
और इसीलिए हर देश में साम्यवादी दल का क्रांतिकारी महत्व होता है। क्योंकि वही सत्ताधारी वर्गों के विरोध का सामना करते हुए मजदूर वर्गों में अपने अधिकारों के बारे में जागरूकता ला सकता है।
सवाल यह है कि क्या भारत के साम्यवादी दल यह भूमिका निभा रहे हैं? वे तो सत्ता की चसक लगकर खूब मोटे और आसली हो गए हैं। उनके नेताओं में और शासक वर्गों में कोई अंतर ही नहीं रह गया है।