Saturday, December 20, 2014

पेशावर हत्याकांड – पाकिस्तान की आतंकी नीति की खुलती परतें

पाकिस्तानी तालिबान द्वारा पेशावर के फ़ौजी स्कूल में किए गए हत्याकांड का विश्लषण करने से पाकिस्तान की आतंकी नीति की परतें खुलती हैं, और हमें इस नीति को बेहतर रूप से समझने में मदद मिलती है।

तालिबान पाकिस्तानी फ़ौज और उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई द्वारा बनाया गया संगठन है। उसे निर्मित करने का उद्देश्य उसकी मदद से अफ़गानिस्तान में पाक-समर्थक सरकार स्थापित करना है। पाकिस्तान अफ़गानिस्तान को अपना पिछवाड़ा मानता है जो भारत के साथ भविष्य में होनेवाले युद्धों के लिए भौगोलिक गहराई प्रदान करनेगा। वहाँ वह ऐसी किसी भी सरकार को पनपने नहीं देता है जो उसके हितों के विरुद्ध जाए। वर्तमान में अमरीका द्वारा अफ़गानिस्तान में स्थापित सरकार पाक-विरोधी सरकार है। अब चूँकि अमरीका अफ़गान युद्ध हारने के बाद अपनी सेना को अफ़गानिस्तान से खींच रहा है, पाकिस्तान को वहाँ एक बार फिर पाक-समर्थक तालिबान सरकार स्थापित करने के अवसर नज़र आ रहे हैं।

ओसामा बिन लादेन के अल-क़ायदा द्वारा न्यू योर्क के ट्विन टावर को धराशायी करने के बाद अमरीका ने काबुल में तालिबानी सरकार को अपदस्थ करके वहाँ करज़ई की कठपुली सरकार स्थापित कर दी थी। अमरीकी सेना के हमलों से बचने के लिए तालिबानी लड़ाके अफ़गानिस्तान भर में और अफ़गानिस्तान से लगते पाकिस्तान के इलाक़ों में फैल गए और वहाँ से अपनी छापेमार लड़ाई चलाते रहे। यह लड़ाई अब सफलता की ओर बढ़ रही है और अमरीका अपनी सेना समेटकर वापस जा रहा है। पीछे रह गई अफ़गानी सेना अकुशल, अपेशवर, अप्रशिक्षत और अनुभवहीन है और वह तालिबान के मँजे हुए लड़ाकों का मुक़ाबला करने में असमर्थ हैं। इतना ही नहीं, तालिबानों को पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई का परोक्ष समर्थन और मार्गदर्शन भी प्राप्त है। इससे उसे जल्द ही काबुल में एक बार फिर अपनी सत्ता क़ायम करने की उम्मीद है।

लेकिन, इस परिदृश्य को बिगाड़नेवाली कुछ बातें भी अफ़गान-पाकिस्तान में गतिशील हो रही हैं। इतने दिनों तक अमरीकी सेना से लड़ने और अंत में उसे हराने से तालिबान के हौसले बुलंद हैं और उसे पाकिस्तानी सेना द्वारा नचाया जाना बिलकुल रास नहीं आ रहा है। दूसरे, तालिबान अल-क़ायदा से जुड़े अन्य आतंकी संगठनों से भी जुड़ा हुआ है और उन सबमें लड़ाकों, पैसे और जंगी सामान का आदान-प्रदान होता है। इन सबका मुख्य शत्रु अमरीका ही है। अल-क़ायदा से जुड़ा एक प्रमुख संगठन आईसिस है जो ईराक में अमरीका द्वारा ईराक में स्थापित कठपुतली शिया सरकार से लड़ रहा है। उसे आश्चर्यजनक सफलता मिल रही है और उसने लगभग आधे ईराक पर कब्ज़ा करके वहाँ एक स्वतंत्र सुन्नी इस्लामी ख़िलाफ़त की घोषणा कर दी है। इसे साउदी अरब और अन्य सुन्नी-वहबी अरब देशों से प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन मिल रहा है। तालिबान को भी इन्हीं स्रोतों से समर्थन मिलता है। तालिबान से घनिष्ट रूप से जुड़ा ओसामा बिन लादेन साउदी राज-परिवार से जुड़ा एक व्यक्ति ही था। हालाँकि इराक में आईसिस को ज़बर्दस्त सफलताएँ मिल रही है, लेकिन उसके विरुद्ध पश्चिमी सरकारों का सैनिक गठबंधन भी बनता जा रहा है और बहुत जल्द उनके सम्मिलित सैन्य बल का मुक़ाबला करना आइसिस के लिए कठिन होता जाएगा। इसलिए वह भी अपने समर्थकों को इकट्ठा करने में जुट गया है। तालिबान और हक्कानी नेटवर्क और हाफ़िज़ साईद का लश्करे-तोईबा और जमात-उद-दवा जैसे आतंकी संगठनों ने पहले ही आइसिस को अपना समर्थन घोषित कर दिया है और वे उसे पैसे और लड़ाके भेजने लगे हैं।

पर तालिबान ही नहीं, आइसिस भी जानता है कि अमरीका और पश्चिमी देशों की मिली-जुली सैन्य बल को हराने का एक ही तरीका परमाणु हथियार प्राप्त करना है। अब पूरे इस्लामी विश्व में केवल पाकिस्तान के पास परमाणु अस्त्र हैं। इसलिए बहुत समय से तालिबान, और अब आईसिस, पाकिस्तान के परमाणु हथियार हथियाने की फ़िराक में है। पर ये हथियार पाकिस्तानी फ़ौज की सख्त पहरेदारी में रखे गए हैं। उन्हें प्राप्त करने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज को हराना आवश्यक है।

इस तरह एक ओर पाकिस्तान तालिबान को अफ़गानिस्तान में अपने मंसूबों को साकार करने के लिए उपयोग करना चाहता है, और दूसरी ओर तालिबान पाकिस्तान से परमाणु हथियार छीनने की ताक में है।

अब तक तो पाकिस्तानी फ़ौज तालिबान पर नकेल कसकर उसे अपने इशारों पर नचाने में सफल रहा है, पर अब लग रहा है कि तालिबान इतना शक्तिशाली हो चला है कि वह यह नकेल उतार फेंककर, पाकिस्तानी फ़ौज को ही अपने नियंत्रण में लेना चाहता है। यह उनके लिए सामरिक महत्व भी रखता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, इससे तालिबान, और उनके ज़रिए ईराक के आइसिस को, परमाणु हथियार मिल जाएँगे, और दूसरे, अफ़गानिस्तान में सत्ता हथियाने के उनके मुहिम के लिए पाकिस्तान से रसद और पाकिस्तान के सरहदी इलाक़ों में सुरक्षित स्थान प्राप्त हो जाएँगे। या अन्य शब्दों में, तालिबान को काबुल की अपनी लड़ाई में पाकिस्तान भौगोलिक गहराई प्रदान कर सकेगा। कैसी विडंबना है यह! कहाँ पाकिस्तान ने अफ़गानिस्तान में भौगोलिक गहराई तलाशते हुए तालिबान की सृष्टि की थी, और यही तालिबान पाकिस्तान को ही अपने लिए भौगोलिक गहराई प्रदान करनेवाला इलाक़ा बनाना चाहता है, और जले पर नमक छिड़कने के लिए उससे उसके परमाणु खिलौने भी छीनना चाहता है।

इस लड़ाई में कौन विजयी होगा, यह समय ही बताएगा। पर अब तक जब तालिबान पाकिस्तान की फ़ौज के हुक्मों के विरुद्ध जाता है, तो पाकिस्तानी फ़ौजी उसे सख्ती से दंडित करती है। स्वात घाटी में यही हुआ था और अब वज़ीरिस्तान में यही चल रहा है। और जब भी पाकिस्तानी फ़ौज तालिबान पर सख्ती बरतती है, तो वह कोई न कोई आतंकी हमला करके इसका बदला लेता है। यह घात-प्रतिघात वर्षों से चला आ रहा है। हर बार पाकिस्तानी फ़ौज को पहले से अधिक सख्ती से काम लेना पड़ रहा है, और तालिबान का जवाबी हमला पहले से अधिक ख़ौफ़नाक होता जा रहा है। पेशावर में पाकिस्तानी फ़ौज के अफ़सरों और सिपाहियों के बच्चों का क़त्ल करके तालिबान ने यही दिखाया है कि वह ईंट का जवाब पत्थर से देने में समर्थ है।

अब सवाल यह है कि यह सब कहाँ जाकर थमेगा? इस दुष्चक्र का अंत निकट भविष्य में नहीं होनेवाला है। कारण स्पष्ट है। पाकिस्तान की अफ़गान नीति का लक्ष्य – अफ़गानिस्तान में अपने लिए अनुकूल सरकार क़ायम करना – उसकी पहुँच के दायरे में आ गया है। अमरीका अफ़गान युद्ध हारकर अपनी सेना वहाँ से हटा रहा है। अफ़गानिस्तान में रह गई अफ़गान सेना किसी भी तरह से तालिबान का मुक़ाबला करने की स्थिति में नहीं है। इसलिए, तालिबान की जीत निश्चित लग रही है। इस जीत को कुछ और निश्चित बनाने के लिए पाकिस्तान वज़ीरिस्तान में बरसों से रह रहे तालिबान टोलियों को वापस अफ़गानिस्तान खदेड़ देना चाहता है, ताकि वे अफ़गान तालिबान के साथ मिलकर इन दोनों के ही नेता मुल्ला उमर, जो स्वयं पाकिस्तान में ही, शायद कराची में, छिपकर रह रहा है, के हाथ मजबूत कर सकें।

वज़ीरिस्तान में पाकिस्तनी सेना द्वारा पिछले कई महीनों से चलाए जा रहे अभियान का मुख्य लक्ष्य यही है। पर इतने दिनों से पाकिस्तान में रहने के बाद और वहाँ तेजी से फैल रहे इस्लामी कट्टरवाद को देखते हुए, पाकिस्तानी तालिबान ने ख़ून चख चुके शेर की तरह अपनी निगाहें पाकिस्तान पर गढ़ा ली हैं और वह वहाँ सत्ता-पलट करके पाकिस्तान और उसके परमाणु हथियारों को अपने कब्ज़े में लेने की सोचने लगा है।

पाकिस्तान की जनता इन दोनों शैतानी ताकतों के दंगल का मूक दर्शक बनी हुई है। दोनों ही ताकतें उसे अँधेरे में रखने की पूरी कोशिश कर रही हैं, पर पेशावर हत्याकांड जैसी घटनाएँ उसे पर्दे के पीछे की सचाई की अस्पष्ट-सी झलक ज़रूर दिखा देती हैं।

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पेशावर हत्याकांड का असली चेहरा

पेशावर हत्याकांड के बाद पाकिस्तान में इस हत्याकांड के असली कर्ता-धर्ताओं को छिपाने और पाकिस्तानी फ़ौज और ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के साथ इन हत्यारों की साँठगाँठ पर पर्दा डालने की कोशिशें तेज़ हो गई हैं। इसमें सर्वोच्च स्तर के नेता, फ़ौजी अफ़सर, मीडिया के लोग और आतंकी सब शामिल हो गए हैं।

पाकिस्तान के प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ़ और विपक्षी नेता इमरान ख़ान दोनों इस हत्याकांड की निंदा करते हुए बड़ी सफ़ाई से तालिबान का नाम लेने से कन्नी काट गए, हालाँकि तालिबान के प्रवक्ता ने हत्याकांड के तुरंत बाद इस हत्याकांड की ज़िम्मेदारी क़बूल करते हुए कह दिया था कि यह पाकिस्तानी फ़ौज द्वारा उत्तरी वज़ीरिस्तान में सैकड़ों बच्चों सहित अनगिनत मासूम पख्तूनों की हत्या करने का बदलना लेने के लिए किया गया है।

पाकिस्तान में हुए आम चुनावों में तालिबान ने नवाज़ शरीफ़ और इमरान ख़ान दोनों को ही अधिक सीटें जीतने में मदद की थी क्योंकि उन्होंने उनके विरोध में खड़े हुए बेनज़ीर भुट्टो और आसिफ़ ज़रदारी की पाकिस्तान पीपुल्क पार्टी के उम्मीदवारों को चुनाव प्रचार के दौरान चुन-चुनकर मार डाला था। नतीज़ा यह हुआ कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी खुलकर चुनाव प्रचार नहीं कर पाई और केवल सिंध तक सिमटकर रह गई जहाँ उसका अब भी थोड़ा-बहुत वर्चस्व है। इससे नवाज़ शरीफ़ को पाकिस्तानी संसद में अप्रत्याशित बहुमत मिल सकी और इमरान ख़ान भी खैबर-पख्तून ख्वाह प्रांत में बहुमत हासिल कर सके।

निश्चय ही इसके बदले इन दोनों ही पार्टियों ने तालिबान के साथ परोक्ष समझौता किया होगा। इमरान ख़ान तो पहले से ही तालिबान समर्थक रहे हैं और पाकिस्तान में शरीयत लागू करने की निरंतर वकालत करते हैं। इसलिए अब इनके लिए तालिबान की निंदा करना ज़रा कठिन है। यही कारण है कि नवाज़ शरीफ़ और इमरान ख़ान ने अपने वक्तव्यों में तालिबान पर सीधा आक्षेप नहीं किया।

यह भी ध्यान रहे कि नवाज़ शरीफ़ ने उत्तरी वज़ीरिस्तान में तालिबान के विरुद्ध फ़ौजी कार्रवाई को टालने के लिए हर संभव प्रयास किया था और इसे तभी होने दिया जब इमरान ख़ान और कनाडाई मौलवी कादरी के मिले-जुले पैंतरे ने उसके हाथ कमज़ोर कर दिए और उसे अपनी गद्दी बचाने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज से समझौता करना पड़ा। इस समझौते के तहत वज़ीरिस्तान में फ़ौजी कार्रवाई के लिए हरी झंडी देना भी शामिल था। यह हरी झंडी मिलते ही पाकिस्तानी फ़ौज और अमरीका के ड्रोन विमान वज़ीरिस्तान पर टूट पड़े और हज़ारों लोगों को मार डाला। इनमें से मुट्ठी भर लोग ही वास्तव में तालिबान के लड़ाकू थे, बाकी सब मासूम लोग थे। इस सबका मीडिया में उतना खुलासा नहीं हुआ क्योंकि पाकिस्तानी फ़ौज ने मीडिया को वज़ीरिस्तान में घुसने ही नहीं दिया है। इसके विपरीत पेशावर हत्याकांड को पूरा मीडिया कवरेज प्राप्त हुआ जिससे ऐसी धारणा विश्व भर में फैल गई कि तालिबान वहशी हैं, पर यह पूरा सत्य नहीं है। दरअसल पाकिस्तानी फ़ौज ने भी वज़ीरिस्तान में इतना ही या इससे कहीं अधिक वहशीपन दिखाया है, और इसी का बदला तालिबान ने पेशावर में पाकिस्तानी फ़ौजियों के बच्चों को मारकर लिया।

कहने का मतलब यह है कि पेशावर हत्याकांड की एक लंबी-चौड़ी पृष्ठभूमि है और उसे मात्र एक आतंकी हमला मानना ठीक नहीं होगा।

यह सब होते हुए भी, पेशावर हत्याकांड ने पाकिस्तानी जनता को झकझोर डाला है, और उनके मन में अनेक कठिन सवाल उठ रहे हैं, और तालिबान और पाकिस्तानी फ़ौज, आईएसआई, और पाकिस्तानी नेताओं के बीच जो साँठगाँठ है वह पाकिस्तानी जनता को समझ में आने लगा है। यदि जनता पूरी तरह इन संबंधों को समझ जाए, तो यह पाकिस्तान के लिए बड़ी समस्या बन सकती है क्योंकि पाकिस्तान का अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लग जाएगा। पाकिस्तान को इस्लामी मुल्क के रूप में अभिकल्पित किया गया है और उसका सीधा सरोकार वहाँ की जनता की खुशहाली या उनके दुखों-कष्टों को दूर करने से नहीं है। यही कारण है कि वहाँ देश की अधिकांश संपदा को फ़ौज को पुष्ट करने और अफ़गानिस्तान और भारत में अनावश्यक हस्तक्षेप करने में खर्च किया जाता है।

इसलिए यह ज़रूरी है कि जल्द ही पेशावर हत्याकांड के असली स्वरूप पर पर्दा डाला जाए। इसका आजमाया हुआ नुस्खा भारत या अमरीका को पाकिस्तान में हो रहे सभी नापाक कामों के लिए ज़िम्मेदार ठहराना है। और यही हथकंडा इस बार भी अपनाया गया है।

पेशावर हत्याकांड अभी चल ही रहा था कि पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति और फ़ौजी तानाशाह मुशर्रफ़ ने एक टीवी चैनल को इंटर्वयू देते हुए कह दिया कि पेशावर हमले के पीछे भारत का हाथ है और पाकिस्तानी फ़ौज को भारत को मुँह तोड़ जवाब देना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि पाकिस्तान में जब भी कोई आतंकी घटना घटती है, तो इसकी ज़िम्मेदारी भारत के मत्थे मढ़ने के लिए वहाँ किसी भी प्रकार के प्रमाण या सबूत की आवश्यकता नहीं होती है। यह वहाँ की मीडिया, स्तंभ लेखक, अख़बार, नेता, आतंकी सब की स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है। ऐसा करके वहाँ की जनता में भारत के प्रति नफ़रत की भावना भड़काई जाती है, जिसके बिना पाकिस्तान के अलग अस्तित्व का कोई औचित्य ही नहीं बनता है।

उधर हाफ़िज साईद, जिसने मुंबई में पेशावर के जैसा ही हत्याकांड आयोजित कराया था, और जिसके लिए उसे पाकिस्तान में हीरो की तरह पूजा जाता है, एक बड़ी प्रेस सम्मेलन बुलाकर वक्तव्य दे दिया कि पेशावर हमले के पीछे भारत का हाथ है और यह भारत की सोची-समझी साजिश है क्योंकि यह हमला ठीक उस दिन (दिसंबर 15) को किया गया है जिस दिन भारत ने 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े करके पूर्वी पाकिस्तान में बंग्लादेश का निर्माण करा दिया था। हाफ़िज़ ने यह भी कहा कि इसका बदला कश्मीर को भारत से छीनकर लिया जाएगा।

पाकिस्तान के अनेक पत्रकारों ने भी इस तरह की अफ़ावाएँ फैलाते हुए पेशावर हमले का ज़िम्मा भारत पर डालना शुरू कर दिया है। वे चाहते हैं कि पाकिस्तानी जनता का रोष तालिबान और उनके आका पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई और तालिबान के समर्थक नेताओं और राजनीतिक पार्टियों पर न उमड़े और उसे सुरक्षित मार्गों की ओर मोड़ दिया जाए, अर्थात भारत की ओर मोड़ दिया जाए।

पर इस बार उनका काम अधिक मुश्किल है, क्योंकि एक तो स्वयं तालिबान ने इस हत्याकांड की ज़िम्मेदारी क़बूल कर ली है और उसे वज़ीरिस्तान में पाकिस्तानी फ़ौज द्वारा मारे गए सैकड़ों मासूम बच्चों और औरतों का बदला बताया है।

इसके अलावा अब इस हत्याकांड को अंजाम देनेवाले लड़ाकों द्वारा अफ़गानिस्तान में बैठे अपने आकाओं के साथ हुए वार्तालाप की रेकॉर्डिंग भी प्राप्त हो चुका है, जिसमें वे अपने आकाओं से पूछ रहे हैं कि हमने यहाँ सारे बच्चों को मार दिया है अब हमें क्या करना है। उधर से जवाब आता है कि अपने आपको बम से उड़ा लेने से पहले पाकिस्तानी फ़ौज को आने दो ताकि बम धमाके में पाकिस्तानी फ़ौज के सिपाही भी बड़ी संख्या में मरें।

इन सब तथ्यों को मद्दे नज़र रखते हुए ही अनेक भारतीय प्रेक्षकों का मानना है कि आंतिकियों का उपयोग अफ़गानिस्तान और भारत में राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए करने की पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई की नीति पेशावर हत्याकांड के बाद भी ज़रा भी नहीं बदलेगी।

पाकिस्तान अफ़गानी तालिबान और हक्कानी नेटवर्क के आतंकियों का उपयोग अफ़गानिस्तान में तबाही मचाने और पाकिस्तानी तालिबान और हाफ़िज़ साईद के लश्कर-ए-तोइबा और जमात-उद-दवा का उपयोग कश्मीर और भारत में आतंक फैलाने के लिए करता है। इनके ज़रिए वह भारत के साथ सामरिक संतुलन स्थापित करने के सपने देखता है और अफ़गानिस्तान में अपने अनुकूल तालिबानी कठपुतली सरकार स्थापित करने के मंसूबे बाँधता है।

पर पेशावर हमले ने दिखा दिया है कि तालिबान कठपुतले कम और दुर्दांत और वहशी लड़ाकू हैं जो समस्त पाकिस्तान को ही लील जाने की क्षमता रखते हैं। अमरीका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने पाकिस्तान के संबंध में सही ही कहा है कि जो लोग अपने घर में इस इरादे से ज़हरीले साँप पालते हैं कि वे उनके पड़ोसियों को डसेंगे, देर-सबेर स्वयं ही इन विषधरों द्वारा डस लिए जाते हैं।

Thursday, December 18, 2014

पेशावर कत्लेआम से नहीं बदलेगी पाकिस्तान की आतंकी नीति

पेशावर स्कूल हमले के बाद भारत के अनेक लोगों ने यह आशा व्यक्त की है कि शायद इस हादसे के बाद पाकिस्तान की अक्ल ठिकाने आएगी और वह आतंकवाद को पालने-पोसने से बाज़ आएगा। लेकिन इसकी ज़रा भी संभावना नहीं है।

पेशावर के फ़ौजी स्कूल में बहे पाकिस्तानी फ़ौजियों के बच्चों का ख़ून और उनकी माँओं के आँसू अभी सूखे भी न थे कि लाहौर की एक अदालत ने मुंबई हत्याकांड के प्रमुख संचालक और लश्कर-ए-तोइबा के कमांडर ज़ाकिर रहमान लख़वी की ज़मानत पर रिहाई मंजूर कर ली।

यह शायद हमारे गृह मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा पाकिस्तान से मुंबई हत्याकांड के एक अन्य प्रमुख आरोपी हाफ़िज़ साईद को भारत के हवाले करने की माँग का परोक्ष उत्तर था। हाफ़िज़ पाकिस्तान में खुले आम घूम रहा है और अभी हाल में जब पाकिस्तानी फ़ौज कश्मीर में आतंकियों को घुसाने के लिए सरहद पर फ़ायरिंग कर रही थी, सरहद के पास भी इसे देखा गया था। इतना ही नहीं इसने कुछ ही दिन पहले लाहौर के मीनार-ए-पाकिस्तान के मैदान में एक बड़ी रैली भी आयोजित की, जिसके लिए लोगों को लाहौर लाने के लिए पाकिस्तान सरकार ने ख़ास रेलगाडियाँ चलाईं। इससे पता चलता है कि हाफ़िज़ एक तरह से पाकिस्तानी फ़ौज और वहाँ की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई का घर-जमाई है और पाकिस्तान का इन आतंकियों से नाता तोड़ने का कोई इरादा नहीं है।

पेशावर हमले की निंदा वहाँ के नेताओं और फ़ौज को मजबूरन करनी पड़ रही है, पर इससे पाकिस्तान की केंद्रीय नीति में कोई भी परिवर्तन आने के आसार नहीं है क्योंकि इसी नीति पर पाकिस्तानी मुल्क का वजूद टिका है। ध्यान रहे, पेशावर हमले की निंदा करते हुए तहरीख-ए-पाकिस्तान पार्टी के नेता इमरान खान पाकिस्तानी तालिबान का नाम लेने से साफ मुकर गए, हालाँकि इस हमले के लिए पाकिस्तानी तालिबान ने ज़िम्मेदारी क़बूल कर ली है और कहा है कि यह हमला वज़ीरिस्तान में पाकिस्तानी फ़ौज द्वारा मासूम पख्तून निवासियों को मारने के बदले में किया गया है।

पाकिस्तान जानता है कि सैनिक होड़ में वह भारत का मुक़ाबला नहीं कर सकता है, भले ही उसके पास परमाणु बम क्यों न हो। इसलिए शुरू से ही वह ग़ैर-सैनिक ज़रियों से भारत को कमज़ोर करने की नीति पर चलता आ रहा है। इसे वह हज़ार घावों से ख़ून बहाकर भारत को घुटनों पर लाने की नीति कहता है। इसे अंजाम देने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज ने और खास तौर से उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई ने दाऊद इब्राहीम, हाफ़िज़ साईद, और तालिबान जैसे अनेक ग़ैर-सरकारी ताकतों को पालकर खड़ा किया है और इन्हें वह भारत में आतंक फैलाने के लिए समय-समय पर छोड़ता रहता है।

तालिबान को उसने अमरीका की सहायता से तब खड़ा किया था जब सोवियत संघ ने अफ़गानिस्तान पर कब्ज़ा करके वहाँ नजीबुल्ला की पाकिस्तान-विरोधी सरकार स्थापित की थी। अफ़गानिस्तान को पाकिस्तान अपने ही मुल्क का पिछवाड़ा मानता है और वहाँ ऐसी किसी भी सरकार को बर्दाश्त नहीं करता है जिसकी बागडोर पाकिस्तान के फ़ौजी जनरलों या आईएसआई के हाथों में न हो। इसलिए नजीबुल्ला सरकार को गिराने के लिए उसने तालिबान को पाला पोसा और इस तालिबान ने ओसामा बिन लादेन जैसे सौउदी धन्ना-सेठ और कट्टर सुन्नी और वहबी इस्लामी विचारधारा के पैरोकारों की मदद से सोवियत संघ को अफ़गानिस्तान छोड़ने पर मजबूर कर दिया और वहाँ तालिबान की सरकार कायम कर दी।

इसके बाद पाकिस्तान के दुर्भाग्य से ओसामा बिन लादेन के अल-क़ायदा ने अमरीका में हवाई जहाजों को मिसाइलों के रूप में उपयोग करके न्यू योर्क में ट्विन-टावर को धराशायी कर दिया। इसमें 3,000 से अधिक अमरीकी नागरिक मरे। इससे भी बड़ी बात यह थी कि द्वितीय विश्व युद्ध में जापान द्वारा पर्ल हार्बर पर समुद्री हमले के बाद यह पहली बार अमरीका की ज़मीन पर किसी ने हमला किया था। अब तक अमरीका यही समझ रहा था कि उसके देश पर कोई भी हमला नहीं कर सकता है। न्यू योर्क हमले ने अमरीकियों की इस ख़ुश-फ़हमी को सदा-सदा के लिए खत्म कर दिया।

इस हमले का बदला लेने के लिए अमरीकी सेना अफ़गानिस्तान में उतरी और उसने तालिबान को काबुल से खदेड़कर हमीद करज़ई को राष्ट्रपति बना दिया। इस लड़ाई में उसने पाकिस्तान को भी शामिल होने के लिए मजबूर कर दिया। अमरीका ने पाकिस्तान को अल्टिमैटम दे डाला कि लड़ाई में शामिल हो जाओ, वरना हम पाकिस्तान पर इतने बम बरसाएँगे कि वह पत्थर युग में पहुँच जाएगा।

पाकिस्तान को इस धमकी को गंभीरता से लेने में ही समझदारी लगी और वहाँ के तानाशाह राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ़ ने अमरीकियों का साथ देना क़बूल किया, पर आधे मन से ही। वह अमरीकियों के साथ लड़ता भी रहा और तालिबान को बचाने के लिए यथा-शक्ति छिपी कोशिश भी करता रहा। यही कारण है कि अमरीका अफ़गानिस्तान में तालिबान को सफ़ाई के साथ हरा नहीं सका न ही वह ओसामा बिन लादेन को ही पकड़ सका क्योंकि वह पाकिस्तानी फ़ौज की एक छावनी अबोट्टाबाद में सुरक्षित रूप से पाकिस्तानी फ़ौज द्वारा छिपाया गया था जहाँ वह पाकिस्तानी फ़ौज के संरक्षण में अपनी बीवियों और बच्चों के साथ मज़े से रह रहा था। आखिर अमरीका को अपने सीलों को भेजकर रात के अँधेरे में इस तरह उसका वध करवाना पड़ा कि पाकिस्तानी फ़ौज को इसकी भनक तक न लग पाए।

जब तालिबान सरकार सत्ताच्युत हुई तो तालिबानी लड़ाकू पूरे अफ़गानिस्तान में और पाकिस्तान के सरहदी इलाकों में भागकर फैल गए और वहाँ से वे अमरीका के विरुद्ध छापेमार युद्ध लड़ते रहे। पाकिस्तान में जो तालिबान फैल गए थे, वे ही पाकिस्तानी तालिबान के रूप में जाने जाते हैं और उनका अफ़ागानी तालिबान के साथ घनिष्ट संबंध है। दोनों का अंतिम ध्येय है अफ़गानिस्तान में अमरीका द्वारा स्थापित सरकार को अपदस्थ करके तालिबानी सरकार दुबारा क़ायम करना। यही ध्येय पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई का भी है।

अमरीकी दबाव में आकर पाकिस्तानी फ़ौज को अफ़गानी तालिबान पर कुछ कार्रवाई करनी पड़ी है जिससे तालिबान उनसे काफ़ी रुष्ट हो गया है। इसी तरह तालिबान का पाकिस्तानी हिस्सा जब पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा को पार करने लगा, तब भी पाकिस्तानी फ़ौज को पाकिस्तानी तालिबान के विरुद्ध कार्रवाई करनी पड़ी है। ऐसा एक बार तब हुआ जब पाकिस्तानी तालिबान ने स्वात घाटी में अपना वर्चस्व फैला लिया और वहाँ शरीयत लागू करके अपराधियों का सिर कलम करना, हाथ काटना, कोड़े लगाना, पत्थर फेंककर मरवाना आदि इस्लामी दंड लागू करने लगा था। इसी तालिबान ने वहाँ लड़कियों को स्कूल जाने से भी मना कर दिया था और इस निषेध का उल्लंघन करने के लिए ही मलाला यूसुफ़ज़ई नामक 15 साल की लड़की के सिर पर एक तालिबानी कमांडर ने गोली दाग दी थी। ईश्वर की कृपा से वह बच गई और उसे लंदन में शरण मिल गई। इसी लड़की को अभी हाल में भारत के कैलाश सत्यार्थी के साथ नोबल पुरस्कार मिला है।

जब यह स्पष्ट होने लगा कि अमरीका अफ़ागन युद्ध में कहीं आगे नहीं बढ़ रहा है और जल्द वहाँ से बोरियाँ-बिस्तर बाँधनेवाला है, तो तालिबान का भी हौसला बुलंद होने लगा। वह अपनी शक्ति बटोरने लगा ताकि अमरीकी सेना के निकलते ही वह अफ़गानिस्तान पर फिर से कब्ज़ा जमा सके। इस नए हौसले ने पाकिस्तानी तालिबान को भी मदहोश कर दिया है और वह पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई द्वारा उस पर कसा गया नकेल तोड़ने के लिए कसमसा रहा है। उसे यह उम्मीद भी बनती जा रही है कि उसके लिए अफ़गानिस्तान पर ही नहीं बल्कि पाकिस्तान पर भी कब्ज़ा करना और इस तरह पाकिस्तानी फ़ौज के पास मौजूद परमाणु हथियार पर नियंत्रण पाना शायद मुमकिन है। परमाणु हथियार हाथ आते ही, उन्हें इराक में उनके बंधु-बांधव आईसिस के हवाले करके वहाँ से भी अमरीका को खदेड़ना संभव हो सकेगा। इस तरह आईसिस द्वारा घोषित ख़िलाफ़त की नींव और भी पक्की हो सकेगी। तालिबान ने पहले से ही आईसिस को अपना समर्थन घोषित कर दिया है।

इस विचार को अंजाम देने के लिए पाकिस्तानी तालिबान धीरे-धीरे कोशिश कर रहा है। अभी हाल में उसके एक कुमुक ने कराची हवाई अड्डे पर कब्ज़ा कर लिया था, और एक अन्य दल ने पाकिस्तानी नौसेना के एक युद्ध-पोत पर कब्ज़ा करने की कोशिश की थी।

तालिबान ने समस्त पाकिस्तान में इस्लामी और सुन्नी वहबी विचारधारा को भी इतना फैला दिया है कि वहाँ उसके इमरान खान जैसे शक्तिशाली समर्थक हो गए हैं। इमरान खान की तहरीख-ए-पाकिस्तान पार्टी खैबर-पक्तून ख्वाह प्रांत में सरकार चला रही है, और अभी हाल में उसने कनाडावासी इस्लामी मौलवी ताहिर उल कादिर के साथ मिलकर इस्लामाबाद में ऐसी जबर्दस्त हड़ताल आयोजित की कि कई दिनों तक पाकिस्तानी सरकार ठप्प पड़ गई और पाकिस्तान के सदाबहार मित्र चीन के राष्ट्रपति तक को अपनी पाकिस्तानी दौरा रद्द करना पड़ा। इमरान खान तालिबान और शरियत क़ानून का प्रबल समर्थक है और पाकिस्तानी युवाओं में उसकी काफी धाक है।

दूसरी ओर मुंबई हमले के कर्ता-धर्ता हाफ़िज़ साईड का संगठन लश्कर-ए-तोइबा का भी पाकिस्तान में काफी रुतबा है। यह संगठन पकिस्तान में हज़ारों मदरसे चलाता है जहाँ कट्टर वहबी इस्लामी विचारों का प्रचार होता है। यह संगठन बाढ़, भूकंप आदि विपदाओं में राहत कार्य चलाकर भी लोगों के दिलों में जगह बनाता है। उसे साउदी अरब से अकूत दौलत भी प्राप्त होती है। इतना ही नहीं, पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई भी उसे सभी सहूलियतें मुहैया कराती हैं। इसके बदले वह भारत के विरुद्ध आतंकी हमले आयोजित करता है और काश्मीर में अशांति फैलाकर पाकिस्तानी फ़ौज की मदद करता है।

इस तरह जिस पाकिस्तानी तालिबान ने पेशावर स्कूल में कत्ले-आम किया है, वह पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई का ही बनाया हुआ है और उसे बनाने के पीछे पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई के खास मकसद हैं। ये हैं अफ़गानिस्तान में पाक-समर्थक सरकार खड़ा करना और भारत के विरुद्ध ग़ैर-सैनिक आतंकी कार्रवाई कराने में उसकी मदद करना।

पर पाकिस्तानी फौज़ की बनाई हुई चीज़ होने पर भी तालिबान कई बार किसी उद्दंड संतान की तरह अपने ही पिता के निर्देशों का उल्लंघन कर देता है, और तब पाकिस्तानी फ़ौज उसे दंडित करके सही रास्ते पर ले आती है। ऐसा कई बार हुआ है, जैसे स्वात घाटी में और अभी वज़ीरिस्तान में जर्द-ए-अज़्ब नामक सैनिक कार्रवाई में, जिसके तहत सैकड़ों तालिबानी लड़ाकों को और हज़ारों पख्तून निवासियों को पाकिस्तानी फ़ौज ने मार डाला है।

इसी का बदला लेने के लिए पाकिस्तानी तालिबान ने पेशावर स्कूल हमला कराया है। पाकिस्तानी तालिबान चाहती है कि पाकिस्तानी फ़ौज भी वही दर्द और पीड़ा महसूस करे जो अपनों के मारे जाने पर होता है और जिसे वज़ीरिस्तान में पाकिस्तानी फ़ौजी कार्रवाई में मारे गए पख्तूनों के कारण तालिबान को महसूस हुआ था। इसीलिए पाकिस्तान ने पेशावर के सैनिक स्कूल को चुना था क्योंकि वहाँ पाकिस्तानी फ़ौजियों के बच्चे पढ़ते हैं और इन बच्चों के मारे जाने पर पाकिस्तानी फ़ौज को वही दुख-दर्द महसूस होगा जो तालिबान को वज़ीरिस्तान में पाकिस्तानी फ़ौज के हाथों अपनों के मारे जाने पर हुआ था।

इसलिए पेशावर हमले को आतंकी हमला मानना पूरी तरह से ठीक नहीं होगा। यह प्रतिशोध की कार्रवाई है, और दो ऐसे पक्षों के बीच की रस्सा-कशी है जो एक-दूसरे को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश में हैं। पाकिस्तानी फ़ौज चाहती है कि तालिबान वही करे जो उसका हुक्म हो, और तालिबान पाकिस्तान पर कब्ज़ा करके उसके परमाणु हथियारों और अन्य सैनिक साज-सामानों को हथियाना चाहती है ताकि उसकी मदद से उसके वैचारिक भाई आईसिस इराक में इस्लामी खिलाफ़त को सुदृढ़ बना सके।

युद्धरत पक्षों के बीच इस तरह की प्रतिशोधात्मक कार्रवाई अक्सर होती रहती है। जो महाभरत से वाकिफ़ हैं, वे जानते होंगे कि महाभारत युद्ध में भी ऐसी ही एक कार्रवाई को कौरवों ने अंजाम दिया था। युद्ध के अंतिम दिनों जब पांडवों ने एक अर्ध-सत्य का सहारा लेकर कौरवों की तरफ़ से लड़ रहे उनके गुरु और कौरव सेनापति द्रोणाचार्य की हत्या करा दी थी, तो द्रोणाचार्य के पुत्र और दुर्योधन के मित्र अश्वत्थामा ने कृतवर्मा और कृपाचार्य का साथ लेकर रात के अँधेरे में पांडवों के शिवर में घुसकर वहाँ सो रहे सभी को मारकर इसका बदला लिया था। मारे गए व्यक्तियों में द्रौपदी के पाँच बच्चे भी शामिल थे। पांडव इसलिए बच पाए क्योंकि वे उस समय वहाँ नहीं थे।

भारत के लिए यह सब अत्यंत चिंता का विषय है क्योंकि चाहे तालिबान जीते या पाकिस्तानी फ़ौज, दोनों स्थितियों में उसे नुकसान होनेवाला है। यदि तालिबान पाकिस्तान को हज़म कर जाए, तो परमाणु बम से लैंस एक ऐसी शत्रुतापूर्ण शक्ति भारत की सरहदों पर उभर आएगी, जो भारत के प्रति आज के पाकिस्तान से हज़ार गुना द्वेष रखती है। और यदि पाकिस्तानी फौज़ तालिबान को दंडित और अनुशासित करने में क़ामयाब होती है, तो आनेवाले दिनों में यह तालिबान और हाफ़िज़ साईद जैसे आतंकी पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई के इशारों पर भारत पर आजकल से कहीं अधिक विस्तार से हमले कराएँगे।

इसलिए पाकिस्तान के घटनाचक्र पर भारत को पैनी निगाह रखनी होगी और उसे हर स्थिति का मुक़ाबला करने के लिए मुस्तैद होना पड़ेगा।

Thursday, December 11, 2014

अफ़ज़ल खान की जीत

महाराष्ट्र के विधान सभा चुनाव के दौरान भाजपा-शिव सेना गठबंधन को तोड़ते हुए शिव सेना ने भाजपा पर अफ़ज़ल खान की सेना होने का आरोप लगाया था। उस समय शिव सेना चुनाव में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त थी और महाराष्ट्र में वरिष्ठ हिंदुत्ववादी पार्टी होने का उसे घमंड भी था।

चुनाव परिणाम आते ही शिव सेना की सारी आशाएँ चौपट हो गईं, क्योंकि इतिहास को नकारते हुए अफ़ज़ल खान की सेना शिव सेना पर विजय हासिल कर गई। जैसा कि हारी हुई सेना के साथ अक्सर होता है, शिव सेना को अपनी हार के बाद एक के बाद एक करके अनेक अपमान सहने पड़े। शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने उम्मीद की थी कि चूँकि चुनाव में स्पष्ट बहुमत किसी भी पार्टी को नहीं मिला है, भाजपा उसके सहयोग के बिना सरकार नहीं बना पाएगी, और इस सुखद परिस्थिति का लाभ उठाकर वे भाजपा से मनमाना दाम वसूल कर सकेंगे। चुनाव के तुरंत बाद ही उद्धव ने अपने लिए उप-मुख्यमंत्री पद तक माँग लिया।

पर घटनाएँ अलग ही मार्ग पर चल पड़ीं। चाणक्य-बुद्धि रखनेवाले शरद पवार ने चुनाव परिणाम आते ही, बिना किसी शर्त भाजपा को अपनी पार्टी का बाहरी समर्थन घोषित कर दिया। इससे विधान सभा में भाजपा के पास विधायकों की इतनी संख्या हो गई कि वह किसी भी दूसरे दल की सहायता के बिना सरकार बना सके। इस तरह शरद पवार ने भाजपा के लिए विधान सभा में शिव सेना के समर्थन को बिलकुल महत्वहीन कर दिया। एक बार फिर उद्धव की सारी आशाओं पर पानी फिर गया।

दरअसल उद्धव की हालत अत्यंत हास्यास्पद और शोचनीय हो गई है। सबके सामने यह स्पष्ट हो गया है कि उद्धव में उतनी राजनीतिक परिपक्वता और चतुराई नहीं है जितनी शरद पवार जैसे मँजे हुए नेताओं में है, या उनके ही पिता बाल ठाकरे में थी। बाल ठाकरे का रुतबा इतना था कि अटल बिहारी वाजपायी और आडवानी जैसे चोटी के नेता तक उनके सामने झुक जाते थे। उद्धव ने यह मानने की गलती की कि अपने पिता का यह रुतबा उन्हें विरासत में मिल गया है और भाजपा के वरिष्ठ नेता भी मातोश्री (ठाकरे परिवार का निवास स्थान) में जी-हुज़ूरी करने आ पहुँचेंगे।

पर जिस तरह की राजनीति शिव सेना खेलती है, उसका नरेंद्र मोदी के उदय के बाद पैदा हुई भाजपा की नई परिस्थितियों में कोई स्थान नहीं था। नरेंद्र मोदी गठबंधन वाली सरकारों की खामियाँ-बुराइयाँ खूब देख चुके थे – स्वयं अपनी पार्टी के अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधान मंत्रित्व के समय और कांग्रेस की यूपीए सरकार के समय। आम चुनाव में ही उन्होंने एक ही पार्टी (यानी भाजपा) की बहुमत पर टिकी सरकार बनाने का लक्ष्य रख लिया था। अमित शाह के कुशल नेतृत्व में और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विशाल भारत-व्यापी नेटवर्क की मदद से वे अपना लक्ष्य हासिल भी कर सके।

अब पूरे देश में राजनीतिक समीकरण बदल गया था, और क्षेत्रीय दलों के दिन लद से गए थे। हरियाणा और महाराष्ट्र में भी भाजपा अपने दम पर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। अब उसकी निगाहें जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, तमिल नाड, केरल आदि राज्यों पर गढ़ी हैं जहाँ आनेवाले महीनों में चुनाव होनेवाले हैं और जहाँ सब भाजपा सबसे प्रमुख दल के रूप में उभरना चाहती है।

इसके लिए यह आवश्यक है कि भाजपा अपनी सोच को क्षेत्रीय दायरों से उठाकर राष्ट्रव्यापी स्तर पर ला टिकाए। यहीं भाजपा की राजनीति शिव सेना जैसे क्षेत्रीय दलों की राजनीति से अलग पड़ती है। शिव सेना मराठी मानुस के इर्द-गिर्द राजनीति खेलती है और मराठी भाषियों में अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए निरंतर ग़ैर-मराठियों पर धावे बोलती है। उसकी इस कुत्सित राजनीति के शिकार अलग-अलग समयों में मद्रासी, गुजराती, मुसलमान, बिहारी आदि बन चुके हैं। जब तक भाजपा विपक्ष में थी, इस तरह की राजनीति खेलनेवाली किसी पार्टी के साथ उठने-बैठने से उसका कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होता था। लेकिन जब केंद्र में देश की बागडोर उसके हाथ में आ गई है और उसका लक्ष्य देश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरना बन गया है, तब इस तरह की बाँटने और और भाई को भाई से लड़ानेवाली राजनीति उसके लिए काफी महँगी साबित हो सकती है।

महाराष्ट्र के चुनावों के दौरान भी भाजपा की निगाहें उत्तर प्रदेश और बिहार के चुनावों पर टिकी हुई थीं। उत्तर प्रदेश और बिहार में चुनाव जीतने के लिए बिहारियों और उत्तर प्रदेशियों पर ज़ुल्म करनेवाली शिव सेना जैसी पार्टियों से नाता तोड़ना बिलकुल आवश्यक था, वरना इन राज्यों के चुनाव प्रचार के दौरान वहाँ के मतदाता भाजपा से शिव सेना जैसे उन्हें उत्पीड़ित करनेवाले दल के साथ भाजपा के संबंध को लेकर टेढ़े और कठिन सवाल पूछ सकते थे। इसलिए शिव सेना से नाता तोड़ना भाजपा के लिए ज़रूरी हो गया था।

और भाजपा के लिए शिव सेना की उपयोगिता भी जाती रही थी। अब भाजपा महाराष्ट्र में शिव सेना का पिछलग्गू न होकर मोदी लहर पर तैरते हुए प्रमुख शक्ति बन चुकी थी। अब शिव सेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की उसे कोई आवश्यकता नहीं थी। उल्टे शिवा सेना उसके लिए गले में पड़ा सिल का पत्थर (अनावश्यक बोझ) बन चुकी थी और महाराष्ट्र में भाजपा के स्वाभाविक विस्तार को रोक रही थी। इसलिए भाजपा के लिए न केवल शिव सेना से पिंड छुड़ाना बल्कि उस पर नकेल भी कसना एक राजनीतिक आवश्यकता बन चुकी थी। यही बात राजनीति में कच्चे उद्धव समझ नहीं सके। वे यही सोचते रहे कि अब भी शिव सेना बाल ठाकरे के जमाने में जैसी थी वैसी ही शक्तिशाली है, और वह भाजपा को अपनी इच्छाओं के अनुसार नचा सकती है।

भाजपा ने न केवल शिव सेना से नाता तोड़ा है, बल्कि देश के अन्य भागों में भी, जैसे पंजाब और हरियाणा में, अपने पहले के सहयोगी दलों से अलग हो रही है। पंजाब में अकाली दल और हरियाणा में अजीत सिंह का लोक दल इसके उदाहरण हैं। इन सभी जगहों में भाजपा अकेले दम लड़ने की नीति पकड़ ली थी। यह प्रवृत्ति लोक सभा चुनाव से भी पहले दिखाई देने लगी थी जब उड़ीसा में नवीन पटनायक और बिहार नितीश कुमार से उसने तलाक ले लिया था।

दक्षिण में भी भाजपा यही नीति अपनाएगी। तमिल नाड में दोनों प्रमुख द्रविड पार्टियाँ लोगों की नज़रों में इतनी गिर चुकी हैं कि अगले चुनाव में भाजपा को वहाँ अपने लिए मौका दिखने लगा है। वहाँ भी भाजपा अकेले दम पर चुनाव लड़ने का निर्णय ले सकती है। सच तो यह है कि उसके पास और कोई विकल्प भी नहीं रह गया है। महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब आदि में शिव सेना, लोक दल, अकाली दल आदि क्षेत्रीय दलों के साथ भाजपा ने जो किया है उससे सहमकर तमिल नाड की छोटी-बड़ी पार्टियाँ भाजपा को शक की नज़र से देखने लगी हैं और उसके साथ गठबंधन में उतरने से कतरा रही हैं। इसलिए मज़बूरन भाजपा को वहाँ अकेले चलना पड़ सकता है। इसकी संभावना कम लगती है कि तमिल नाड में, कम से कम आगामी चुनाव में, भाजपा कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन कर पाएगी, लेकिन वहाँ यदि वह मुट्ठी भर सीटें भी जीत जाती है, तो यह एक बहुत बड़ी जीत मानी जाएगी क्योंकि वहाँ दशकों से भाजपा अपना खाता नहीं खोल सकी है। यदि वहाँ चुनाव के बाद किसी भी पार्टी को बहुमत न मिले, तो थोड़ी सीटें होने पर भी भाजपा बड़ी भूमिकाएँ निभा सकती है और अपना पाँव इतना फैला सकती है कि इसके बाद होनेवाले चुनाव में वह और भी मजबूत स्थिति हासिल कर सके। भाजपा लंबी दूरी के धावक के रूप में मैदान में उतरी है और आनेवाले दस-पंद्रह वर्षों तक वही लगभग पूरे भारत में राजनीति के नियम-क़ानून स्थापित करेगी।

मेरे विचार से इसे सकारात्मक दृष्टि से ही देखना ठीक होगा। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश को एक-जुट रखने के लिए दृढ़ केंद्रीय शक्ति की आवश्यकता है, वरना राज्य अलग-अलग दिशाओं में खींचते हुए देश को कमज़ोर कर देंगे। इसके उदाहरण हमें बंगाल और तमिल नाड में मिलते हैं जहाँ क्षेत्रीय दलों की सरकारें हैं। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने बंग्लादेश के साथ केंद्र सरकार द्वारा की गई राष्ट्र-हित को आगे बढ़ाने वाली संधियों को खटाई में डलवा दिया है, और तमिल नाड की द्रविड पार्टियों ने श्रीलंका के साथ अच्छे संबंध स्थापित करने के मार्ग में अड़चनें पैदा की हैं जिसका फायदा उठाकर चीन वहाँ पाँव पसारने लगा है।

हमें यही आशा करनी चाहिए कि भाजपा उसके हाथ आई राजनीतिक शक्ति को समझदारी और विवेक के साथ और संपूर्ण राष्ट्र के हित के लिए उपयोग करेगी और भारत को विश्व में गौरवपूर्ण स्थान दिलाएगी।

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