Tuesday, March 31, 2009

पहचान की चूक

अपने इकलौते बेटे की सफेद चादर में लिपटी लाश को हाथों में लिए दरोगाजी मरघट की ओर बढ़ रहे थे। उनकी लाल-लाल आंखों से अनवरत बहती अश्रु-धाराओं से उनकी बड़ी-बड़ी मूंछों का एक-एक बाल पोर-पोर तक भीग गया था।

वे पल भर के लिए भूल गए थे कि जिस पर वे अपना हाथ चला रहे हैं, वह जेल का कोई मुजरिम नहीं बल्की स्वयं उनकी अपनी संतान है। उनके पूरे हाथ की मार लगते ही पांच साल के उस लड़के का सिर तरबूज की तरह फट गया था और वह कटे पेड़ के समान उनके सामने गिर कर मर गया था।

Monday, March 30, 2009

क से कत्लेआम

मैं मुन्नी को वर्णमाला सिखा रहा था। स्लेट पर अ लिखकर मैंने कहा, "यह अ है। अ बोल बेटी, अ से अलगाववादी।"

बेटी ने कहा, "अ, अ से अलगाववादी।"

"शबाश। यह है आ। आ से आतंकवादी।"

"आ से आतंकवादी।"

"अच्छा, अब बोल इ। इ से इमरजेंसी।"

"इ। इ से इमरजेंसी।"

"यह उ है। उ से उठाईगीर।"

"उ से उठाईगीर।"

"यह क्या ऊंटपटांग बातें सिखा रहे हो बच्ची को। दिमाग तो नहीं खराब हो गया है?" श्रीमती जी तूफान के समान कमरे में घुस आईं और मुझ पर बरस पड़ीं।

मैंने कहा, "इसमें ऊंटपटांग की क्या बात है? क्या तुम नहीं चाहतीं कि मुन्नी वर्तमान परिस्थितियों से वाकिफ हो? क्या उसे खतरनाक खुशफहमी में रखना ठीक होगा? नहीं, उसे सच्चाई मालूम होनी ही चाहिए। तभी वह आने वाले कठिन दिनों में अपनी हिफाजत कर पाएगी।"

और मैंने मुन्नी की पढ़ाई जारी रखी, "यह है क। बोल बेटी, क से कत्लेआम।"

Sunday, March 29, 2009

लोकतंत्र का पांचवां खंभा

चुनाव सिर पर है, और हमें सलाह दी जा रही है कि वोट डालना चाहिए, यह हर मतदाता का कर्तव्य है। वोट डालने से अच्छे उम्मीदवार लोक सभा पहुंचेगे, और अच्छे लोग लोक सभा पहुंचें तो हमारी हालत सुधरेगी, और हमारा देश उन्नति करेगा।

पर क्या बात इतनी सरल है?

केवल वोट डालने से कुछ नहीं बदलेगा। सोच-समझकर वोट डालना होगा। मतदाताओं की भी अपनी संस्थाएं होनी चाहिए, जो पार्टी घोषणा-पत्रों, उम्मीदवारों की छवि और निष्पादन, पार्टियों की नीतियां आदि की छानबीन करे और रिपोर्ट जारी करे, जिन्हें पढ़कर मतदाता सही चयन कर सकें। अभी चयन के लिए मदाताओं के पास पार्टी भाषणबाज, अखबार, टीवी, वेबसाइट आदि ही उपलब्ध हैं, जहां सब मामले का एक पक्ष (पार्टी पक्ष) ही उजागर होता है। इस तरह के मतदाता सेल देशभर में हर मुहल्ले और गांव में होने चाहिए।

यदि मुझे इच्छा हो कि चलो पता लगाएं कि कौन उम्मीदवार कितने पानी में है, तो मेरे घर के दो-चार कदम पर मतदाता सेल होना चाहिए जहां जाकर मैं मेरे चुनाव क्षेत्र से खड़े हो रहे उम्मीदवारों, उनकी पार्टियों और उनके घोषणापत्रों की छानबीन कर सकूं। यहां ऐसे जानकार लोग भी होंगे, जो मुझे निष्पक्ष सलाह दे सकेंगे कि उम्मीदवार कैसे हैं, उनकी पृष्ठभूमि क्या है, कितने पढ़े-लिखे हैं, क्या पढ़ा है उन्होंने, राजनीति में कितना अनुभव है, पिछले पांच साल में कितनी पार्टियां बदल चुके हैं, कितनी बार चुनाव हार चुके हैं, क्या उनके साथ कोई आपराधिक मामला जुड़ा है, इत्यादि, इत्यादि।

इन सेलों का स्वरूप बरसाती मेंढ़कों का सा न होकर, जो केवल चुनावों के समय प्रकट होते हों, स्थायी होना चाहिए और इन्हें साल भर काम करते रहना चाहिए, और पार्टियों और उम्मीदवारों के बारे में जानकारी निरंतर इकट्ठा करते जाना चाहिए और उन्हें लोगों तक पहुंचाते जाना चाहिए। मूल संविधान में प्रेस को यह काम दिया गया था, लोकतंत्र के चौथे खंभे के रूप में, पर प्रेस को (जिसमें टीवी जैसे अन्य माध्यम भी शामिल हैं) अब व्यवसाय ने मोल ले लिया है। इसलिए लोकतंत्र के पांचवे खंभे के रूप में मतदाता सेल बनाए जाने की सख्त जरूरत है।

आजकल इंटरनेट का जमाना है, इसलिए इन मतदाता सेलों का कोई केंद्रीय मुख्यालय भी होना चाहिए, जिसके वेबसाइट के माध्यम से भी यह सब जानकारी उपलब्ध रहनी चाहिए, हिंदी में।

इन सेलों को उम्मीदवारों और मतदाताओं का इंटरएक्शन की भी व्यवस्था करानी चाहिए, जिसमें उम्मीदवारों से मतदाता (यानि की मैं और आप) उनके विचारों, पार्टी की नीतियों, कार्यक्रमों, वादों आदि के बारे में सवाल पूछ सकें।

ऐसे मतदाता सेल कौन स्थापित करेगा, उसके कर्माचरी कौन होंगे, उसे चलाने के लिए पैसा कहां से आएगा, ये सब विचारणीय मुद्दे हैं। मेरा सुझाव है कि इसे निर्वाचन आयोग की छत्र-छाया में लाया जा सकता है, और निर्वाचन आयोग इसके लिए पैसे जुटा सकता है। मतदाताओं से चंदे भी लिए जा सकते हैं। उद्योगों से चंदा स्वीकार नहीं करना चाहिए, वरना, इसका भी वही हस्र होगा जो प्रेस और टीवी का हुआ। इसे करदाताओं के पैसे से ही चलाया जाना चाहिए।

संविधान में संशोधन करके इन मतदाता सेलों को कानूनी हैसियत प्रदान करने पर भी विचार किया जा सकता है।

लालू, मुलायम पासवन का एक होना हिंदी के लिए हितकारी

हिंदी प्रदेश के दो प्रमुख और विशाल राज्य बिहार और उत्तर प्रदेश के नेता मुलायम, लालू और पासवान का इस चुनाव के लिए एक जुट होना हिंदी के लिए हितकारी हो सकता है।

दोनों कांग्रेस और भाजपा अंग्रेजी परस्त पार्टियां हैं। आजादी के बाद के 60 सालों में इन्हीं पार्टियों का राज रहा है और इन्होंने अंग्रेजी संस्कृति को फैलाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। संपूर्ण उच्च शिक्षा जगत, प्रशासन, व्यवसाय और न्यायतंत्र में अंग्रेजी हावी है। अब तो वहां से उसे डिगाने की बात होनी भी बंद हो गई है। इसका मुख्य कारण यह है, अपने 60 साल के राज में इन पार्टियों ने और उनको पैसा देनेवाली ताकतों ने अपने लोगों का ऐसा जाल इन सभी तंत्रों में ऐसा बिछा दिया है कि वहां कोई परिवर्तन की गुंजाईश ही नहीं है। इन दोनों पार्टियों के सत्ता से हटने पर ही नए शक्ति समीकरण स्थापित किए जा सकेंगे, और इन तंत्रों पर से अंग्रेजी का वर्चस्व हटाया जा सकेगा।

अंग्रेजी को हटाना इन तीनों ही नेताओं की पार्टियों और उनके समर्थकों के लिए महत्वपूर्ण है। यदि पिछड़े वर्ग के लोगों का देश के उच्च शिक्षा संस्थानों, व्यवसायों, सरकारी नौकरियों और न्यायतंत्र में प्रवेश नहीं हो पा रहा है तो इसका मुख्य कारण है इन सबमें प्रेवेश अंग्रेजी की छलनी से निश्चित किया जाना। निम्न वर्गीय और निर्धन लोगों में, जो सरकारी विद्यालयों में पढ़े होते हैं, अंग्रेजी का ज्ञान नहीं होता है और वे इस छलनी को पार नहीं कर पाते हैं।

इसलिए यदि सत्ता पर ये नेता काबिज हो पाते हैं, तो उन्हें सबसे पहले अंग्रेजी की छलनी को दूर करने का प्रयास करना होगा। इससे शिक्षा संस्थाएं, सरकारी नौकरियां और निजी क्षेत्र की नौकरियां आम आदमी के लिए खुल जाएंगी।

जब लालू-मुलायम-पासवान का नया सत्ता-पुंज सत्ता पर आएगा, तो उसे सत्ता में पहुंचानेवाले लोगों को पुरस्कृत करने की जरूरत पड़ेगी। वह अपने लोगों को सत्ता के महत्वपूर्ण जगहों पर रखवाने की कोशिश करेगा। सभी दल यह प्रयास करते हैं। जब भाजपा सत्ता पर आई थी, तो उसने सब महत्वपूर्ण पदों पर अपने लोगों को रखवाया था, पाठ्यक्रम, इतिहास लेखन आदि तक को अपनी दृष्टि के अनुसार करने की कोशिश की थी। कांग्रेस ने भी यही किया, पर उसकी ओर हमारा कम ध्यान जाता है, क्योंकि वह शुरू से ही सत्ता में रही है। लेकिन जब वर्तमान लोक सभा पर कांग्रेस का कब्जा हुआ, तो सबसे पहला काम जो उसने अर्जुन सिंह के जरिए किया, वह यह था कि भाजपा के लोगों को सभी शिक्षा संस्थाओं से हटाकर अपने लोगों को वहां सब बैठाना और भाजपा ने पाठ्य पुस्तक आदि में जो परिवर्तन कराए थे, उन सबको खारिज करना और पाठ्यपुस्तकों को नए सिरे से अपनी सोच के अनुसार लिखवाना। जब लालू-मुलायम-पासवान अपने लोगों को शिक्षा संस्थाओं, न्यायतंत्र, नौकरशाही, व्यावसाय (संरकारी उद्यम) आदि में रखने लगेगा, तो वहां सब एक हद तक हिंदी का बीजारोपण हो सकेगा, क्योंकि ये लोग अंग्रेजी के बजाए, हिंदी को अधिक समझते होंगे और चाहेंगे कि जिन संस्थाओं का नियंत्रण उनके हाथ में आ गया है, वह ऐसी भाषा में काम करे, जिसमें उन्हें सहूलियत हो। भाषा की यह खासियत होती है कि सत्तारूढ़ पक्ष की भाषा ही हमेशा प्रचलन में आती है। अंग्रेजी भी ऐसे ही हमारे ऊपर हावी हुई थी। वह शासक वर्ग की भाषा थी और सत्ताहीन लोग (यानी भारतीय) उसे अपनाने को बाध्य हुए। इसी तरह जब हिंदी सत्ता की भाषा बनेगी, लोग (यानी अंग्रेजीदां लोग) उसे अपनाने को मजबूर हो जाएंगे।

मान लीजिए कि मुलायम चुनाव के बाद विदेश मंत्री बन जाते हैं और अमरीकी यात्रा पर निकलते हैं। अब मुलायम जी वाशिंगटन में जो भी बातें करेंगे, वह हिंदी में ही करेंगे। इसी प्रकार जब मुलायम जी अमरीका के नेताओं से वार्तालाप करेंगे तो उन्हें हिंदी दुभाषिए की जरूरत पड़ेगी। इस तरह हमारे विदेश मंत्रालय में हिंदी की जानकारी रखनेवालों की मांग बढ़ेगी, और वहां से अंग्रेजी का एकाधिकार टूट जाएगा।

यह तो बिना प्रयास होगा। अब यदि ये पार्टियां राजनीतिक सूझ-बूझ और दूरदृष्टि का परिचय भी दें, तो ये सारे देश में राष्ट्र भाषा हिंदी के सवाल पर जनमत तैयार करके अंग्रेजी को हटाने का उपक्रम भी कर सकती हैं।

आज यदि आरक्षण की नीति से निम्न वर्गों को कोई खास फायदा नहीं पहुंच रहा है, तो इसका करण यह है कि नौकरियां तो उनके लिए आरक्षित कर दी गई हैं, लेकिन नौकरी के लिए लोगों को चुनने की कसौटियां वही अंग्रेजी-परस्त हैं। चूंकि अंग्रेजी देश के थोड़े लोग ही जानते हैं, नौकरियां इन थोड़े लोगों में ही आरक्षित होकर रह गई हैं। कहना न होगा कि इन थोड़े लोगों में निम्न वर्ग के लोग नहीं के बराबर हैं।

यदि सभी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं (जैसे आईआईएम, आईआईटी, आदि) में प्रेवश की कसौटियां और वहां का कामकाजी और शिक्षण माध्यम हिंदी हो जाए, तो इससे निम्न वर्गों का बहुत फायदा होगा।

अंग्रेजी सीखना एक खर्चीला और दुस्साध्य मामला है जो निम्न वर्गों के बूते की बात नहीं है। इसलिए आईआईएम, आईआईटी जैसे उच्च शिक्षण संस्थाओं के द्वार निम्न वर्गों के लिए उसी तरह बंद हैं जिस तरह आजादी से पहले दक्षिण भारत के कुछ बड़े-बड़े मंदिरों के द्वार उनके लिए बंद थे।

मंदिरों में प्रवेश न मिलने से निम्न वर्गों का कोई खास आर्थिक नुकसान नहीं होता है, लेकिन उच्च शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश न मिलने से उनका काफी आर्थिक नुकसान होता है।

यदि कोई निम्न वर्गीय छात्र बहुत कुशाग्र बुद्धि का निकले और इन उच्च शिक्षाओं में प्रवेश पा ही जाए, तो वहां शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी होने से उसे अपार कठिनाई का सामना करना पड़ता है। आईआईटियों में ऐसे एक दो किस्से हुए भी हैं जहां आरक्षित सीटों पर आए छात्रों ने खुदखुशी तक कर डाली थी क्योंकि वे अंग्रेजी में शिक्षण के कारण वहां की पढ़ाई में पीछे पड़ते जा रहे थे। कहा यही गया कि ये बच्चे आईआईटी के स्तर के नहीं थे, चूंकि ये आरक्षित सीटों पर आए थे, पर असल बात यह है कि अंग्रेजी के कारण ही उन्हें इन संस्थाओं की पढ़ाई के समकक्ष रहने में कठिनाई हुई थी, न कि इसलिए कि उनकी बुद्धी का स्तर कम था।

लालू-मुलायम-पासवान के सत्ता में आने पर निम्न वर्गों की एक अन्य मांग पर भी शायद कार्रवाई हो सकेगी। यह है निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी आरक्षण नीति लागू करना। इससे निम्न वर्गों के लिए बहुत सारी नौकरियां उपलब्ध हो सकेंगी। यदि लालू आदि स्पष्ट बहुमत से चुनाव जीतकर आ सके, तो इसे लागू करना उनके लिए संभव होगा। पर केवल नियम बना देने भर से कुछ न होगा। निजी व्यवसाय अंग्रेजी ज्ञान के आधार पर ही नौकरियां देते हैं। यदि इसे न बदला गया, तो निम्न वर्गीय उम्मीदवारों को कोई फायदा नहीं पहुंच पाएगा।

आज भी सरकारी महकमों में जहां आरक्षण नीति लागू है, कई आरक्षित सीटें यह कहकर नहीं भरी जातीं कि अनुसूचित जातियों, पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जनजातियों में से योग्य व्यक्ति मिलते नहीं हैं। योग्य की यहां परिभाषा “जिन्हें अंग्रेजी आती हो” होती है। यदि सरकारी तंत्रों में प्रेवश के लिए अंग्रेजी की आवश्यकता को हटाया जा सके, तो ढेरों योग्य उम्मीदार पैदा हो जाएंगे।

यह भी देखा गया है कि निजी क्षेत्र हमारे देश के लाखों, करोड़ों ग्रेजुएटों और पोस्ट-ग्रेजुएटों को नौकरी देने से इसलिए इन्कार करता है क्योंकि उसकी दृष्टि में ये अनऐंप्लोएबल होते हैं, यानी ये नौकरी देने लायक नहीं होते। यहां भी ऐंप्लोएबल की परिभाषा यही होती है कि ये गिटपिट अंग्रेजी बोल सकें। यदि ऐंप्लोएबिलिटी की कसौटियों में से अंग्रेजी ज्ञान को हटाया जाए, इन करोड़ों ग्रेजुएटों आदि में वे सब काबिलियतें और कुशलताएं विद्यमान हैं जो सरकारी दफ्तरों और निजी क्षेत्रों के किसी भी ओहदे पर सफलतापूर्वक नौकरी बजाने के लिए आवश्यक हैं।

असल बात यह है कि देश अब बिना दिशा के आगे बढ़ रहा है। एक ही वर्ग के लोगों के इतने सालों से सत्ता पर बने रहने से देश को उनके हितों और निहित स्वार्थों के लिए चलाया जा रहा है। इन निहित स्वार्थों में से प्रमुख है, उच्च शिक्षा, निजी व्यवसाय, न्यायतंत्र, प्रशासन आदि में अंग्रेजी को बनाए रखना। इस वस्तुस्थिति को बदलने के लिए नए सत्ता वर्गों को दिल्ली में बागडोर संभालनी होगी।

इस चुनाव में इसकी संभावना नजर आ रही है, और यदि हम सब निश्चय कर लें, कि हमें देश में बदलाव लाना है और देश के फंडमेंटेल्स (बुनियादी तत्वों) को नए सिरे से निश्चित करना है, तो इस संभावना को वास्तविकता में भी बदल सकते हैं।

Saturday, March 28, 2009

राष्ट्रीय पशु गीदड़

संसद भवन। मई 2009। चुनाव के बाद नए सांसद संसद में एकत्र हैं। प्रधान मंत्री मायावती सांसदों को संबोधित कर रही हैं। विपक्षी दलों के नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी अग्रिम पंक्ति की कुर्सियों में से एक में विराजमान हैं। संसद भवन खचाखच भरा हुआ है। सांसदों की आपसी बातचीत के शोर के कारण किसी की भी बात सुनाई नहीं दे रही है।

अध्यक्ष महोदय माइक्रोफोन पर चिल्लाकर सबको चुप हो जाने को कह रहे हैं। धीरे-धीरे शोर कम हो जाता है। तब मायावती कहने लगती हैं, "इस समय हम एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर विचार करने के लिए यहां एकत्र हैं। इस मुद्दे के निराकरण के लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता है। इसलिए मैं बहुजन समाज पार्टी, उसको समर्थन देनेवाली पार्टियों तथा विरोधी दलों के सांसदों से अपील करती हूं कि वे सब इस मुद्दे के निराकरण में सहयोग दें। वैसे यह कोई राजनीतिक मामला नहीं है, इसलिए संशोधन के लिए आवश्यक दो-तिहाई बहुमत हासिल करना मुश्किल नहीं होना चाहिए। मैं चाहती हूं कि इस मुद्दे को जल्दी से जल्दी सुलटाकर संसद अन्य अधिक महत्वपूर्ण कार्रवाइयों की ओर आगे बढ़े, और इस सीधे से मुद्दे पर अनावश्यक बहस करके अधिक समय न बिगाड़े।"

इस छोटी सी भूमिका के बाद प्रधान मंत्री ने उप प्रधान मंत्री रामविलास पासवान को संक्षेप में संसद सदस्यों के सामने विचाराधीन मुद्दे को पेश करने को कहा।

रामविलास पासवान ने बोलना आरंभ किया, "धन्यवाद, प्रधान मंत्री जी। प्रिय सांसदो, आप सबने अखबारों व अन्य संचार माध्यमों से जान लिया होगा कि हमारे देश का राष्ट्रीय पशु बाघ इस वर्ष के आरंभ में विलुप्त हो गया। आखिरी शेर कारबट राष्ट्रीय उद्यान में चोर शिकारियों के हाथों मारा गया। यह एक दुखद घटना है और हमारे जंगलों की शान इस शानदार पशु के विलुप्त होने से हजार गुना कम हो गई है। लेकिन उससे भी ज्यादा पेचीदा मामला यह है कि बाघ के विलुप्त होने से एक संवैधानिक संकट पैदा हो गया है।

"जैसा कि आप जानते हैं, बाघ हमारा राष्ट्रीय पशु है। लेकिन उसके विलुप्त हो जाने से स्थिति एकदम बदल गई है। हमें अब हमारे देश के लिए नया राष्ट्रीय पशु चुनना होगा। इसी महत्वपूर्ण काम को अंजाम देने के लिए हम यहां एकत्र हुए हैं।

"मैं जानता हूं कि राष्ट्रीय पशु का चुनाव एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, परंतु जहां तक मैं समझता हूं, और जैसा कि हमारी माननीय प्रधान मंत्री ने अभी कहा, वह राजनीति से हट कर है। इसलिए इसे राजनीति से अलग रखते हुए सब सांसद इस संवैधानिक संकट को सुलटाने में बहुजन समाज पार्टी की सरकार की मदद करें। विपक्षी दलों के नेता श्री आडवाणी जी से मैं निवेदन करता हूं कि इस मुद्दे की बहस को अब वे आगे बढ़ाएं और यह बताएं कि उनकी पार्टी, यानी भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय पशु के रूप में किस प्राणी का समर्थन करती है।"

लालकृष्ण आडवाणी अपनी खास शैली में मुसकराते हुए बोलने लगे, "माननीय उप प्रधान मंत्री श्री रामविलासन पासन के प्रति मैं आभारी हूं। बाघ का विलुप्त होना हम सबके लिए एक दुखद घटना है। उसके विलुप्त होने से जो संवैधानिक समस्या पैदा हो गई है उसे सुलटाने में हमारी पार्टी सरकार को पूरा समर्थन देगी। जैसा कि आप सब जानते हैं, भारतीय जनता पार्टी इस देश की संस्कृति, इतिहास, भाषा, रीति-रिवाज आदि की उन्नति के लिए कृतसंकल्प है। अतः हम चाहते हैं कि देश का राष्ट्रीय पशु कोई ऐसा प्राणी हो जो देश की संस्कृति का पूरा प्रतिनिधित्व करे।

"हमारी पार्टी ने इस विषय पर काफी विचार किया है और हमारी राय है कि राष्ट्रीय पशु पूजनीय गौ माता को बनाया जाए। आप सब जानते होंगे कि संविधान में गौ माता की रक्षा शासन का एक मुख्य कर्तव्य बताया गया है। हमारे पूजनीय बापूजी भी गाय के प्रति बड़ी ममता रखते थे। हमारे धार्मिक ग्रंथों में गाय की खूब महिमा गाई गई है। वृषभ भोलेनाथ का वाहन है और कृष्ण तो गायों के पालक के रूप में ही सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं।

"गाय हमारे किसानों का अभिन्न साथी है। गाय पर ही हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था टिकी हुई है। हमारे देश के करोड़ों बच्चों को गाय ही अपने दूध से पोसती है। इसलिए गाय एक तरह से इस देश की माता है। उसे ही हमारी पार्टी राष्ट्रीय पशु के रूप में स्वीकार करती है और आप सबसे मेरी विनम्र विनती है कि इसी निरीह एवं उपयोगी प्राणी को देश के प्रतीक के रूप में गौरवान्वित करके उसके द्वारा हम पर किए गए असंख्य एहसानों को चुकाया जाए।"

आडवाणी जी की बात सुनकर भारतीय जनता पार्टी के सभी सदस्य नारा लगाने लगते हैं, "गो माता की जय हो।"

गृह मंत्री एवं बहुजन समाज पार्टी के वरिष्ठ नेता मुख्तार अंसारी अपनी ओजस्वी वाणी में श्री आडवाणी के विरुद्ध बहस में उतर पड़ते हैं, "विपक्षी नेता आडवाणी जी ने जो बातें कही हैं उनसे हम बिलकुल सहमत नहीं हो सकते। राष्ट्रीय पशु का मामला कोई धार्मिक विषय नहीं है, फिर भी हमें खेद है कि श्री आडवाणी जी ने अपनी पार्टी की आदत के मुताबिक इस सीधे और सरल विषय को भी एक धार्मिक मोड़ देना चाहा है।

"गाय हमारे देश के सभी नागरिकों को कदापि स्वीकार्य नहीं हो सकती। आपको भूलना नहीं चाहिए कि संविधान के अनुसार यह देश धर्मनिरपेक्ष है और यहां हिंदुओं के अलावा मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों, बौद्धों, जैनों व अनेक अन्य धर्मों के लोग भी रहते हैं। उन सबकी संख्या इस देश की कुल आबादी की एक-तिहाई से कम नहीं है। गाय हिंदुओं को भले ही रुचे लेकिन हमारे मुसलमान भाइयों को उसके प्रति कोई विशेष लगाव नहीं है। उनके लिए वह ऊंट, बकरी, भैंस, घोड़ा आदि के समान एक साधारण जानवर ही है। इतने साधारण जानवर को राष्ट्र का प्रतीक बनाना उनको रास नहीं आएगा।

"इसके अलावा भी गाय जैसी साधारण पशु को राष्ट्र का प्रतीक बनाना बिलकुल बेतुकी बात है। राष्ट्र के प्रतीक में लोगों में राष्ट्र के प्रति आस्था जगाने की क्षमता होनी चाहिए और वह देखने-सुनने में गौरवशाली होना चाहिए। मेरा प्रस्ताव है कि इन दोनों गुणों का धनी हाथी को राष्ट्र-पशु बनाया जाए। हमारे माननीय विपक्षी नेता श्री आडवाणी जी को इसमें कोई विशेष आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि हाथी भी गाय जितना ही पवित्र जानवर है। हिंदुओं के प्रिय देवता गणेश तो हाथी के ही प्रतीक हैं।"

अपनी जोशीले पार्टी सदस्य का यह चालाकी भरा प्रस्ताव सुनकर प्रधान मंत्री मायावती धीमे से मुस्कुराईं। बहुजन समाज पार्टी के सांसद मेजें ठोंक-ठोंकर अपनी पार्टी के प्रतीक हाथी को राष्ट्रीय पशु बनाने के मुख्तार अंसारी के प्रस्ताव का समर्थन करने लगे।

तभी संसदाध्यक्ष की अनुमति लेकर कांग्रेस के नेता गुजरात वासी श्री शंकर सिंह वाघेला बड़े आक्रोश के साथ बोल उठे, "गृह मंत्री मुख्तार अंसारी की बात सुनकर मुझे बड़ा आघात पहुंचा है। खेद है कि सत्ता में आने और गृह मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद को संभालने के बाद भी ये अपनी पार्टी से आगे सोच नहीं पा रहे हैं। हाथी तो सत्तारूढ़ पार्टी का चुनाव चिह्न है और उसे किसी भी हालत में राष्ट्रीय पशु नहीं बनाया जाना चाहिए। राष्ट्रीय पशु किसी पार्टी विशेष की बपौती नहीं हो सकता, वह सारे राष्ट्र का प्रतीक है। ऐसा ही कोई पशु राष्ट्रीय पशु हो सकता है जो सारे राष्ट्र को मंजूर हो। मैं सुझाता हूं कि सिंह को राष्ट्रीय पशु बनाया जाए। सिंह बाघ जितना ही शौर्यवान और आकर्षक पशु है और पुराने जमाने से ही राजा-महाराजाओं का प्रतीक रहा है।"

अपनी बात का अनादर होते देखकर गृह मंत्री मुख्तार अंसारी गुस्से से आग बबूला हो उठे और चीखते हुए बोले:- "वाघेला जी, आपका तर्क बिलकुल निराधार है। क्या आपको पता नहीं कि मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी का चुनाव चिह्न कमल इस देश का राष्ट्रीय पुष्प है? यदि देश का राष्ट्रीय पुष्प किसी पार्टी का चुनाव चिह्न हो सकता है, तब हमारी पार्टी का चुनाव चिह्न राष्ट्रीय पशु क्यों नहीं हो सकता? यदि हाथी राष्ट्रीय पशु नहीं हो सकता, तो कमल को भी राष्ट्रीय पुष्प नहीं रहने देना चाहिए और उसे भी संविधान में संशोधन करके बदल देना चाहिए।"

कम्यूनिस्ट पार्टी के सीताराम यचूरी बोल पड़े, "मैं वाघेला साहब की इस बात से बिलकुल सहमत हूं कि किसी पार्टी विशेष का चुनाव चिह्न राष्ट्रीय पशु नहीं बनाया जाना चाहिए। लेकिन उनकी दूसरी बात कि सिंह को राष्ट्रीय पशु बनाया जाए, बिलकुल व्यावहारिक नहीं है। शायद उन्होंने सिंह का समर्थन इसलिए किया क्योंकि सिंह उनके अपने राज्य गुजरात का निवासी है। इस तरह की क्षेत्रीय मानसिकता से हमें उबरना चाहिए।

"सिंह के विरुद्ध दूसरी जो बात जाती है, वह यह है कि आज सिंह की स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं है। पिछले माह वन विभाग द्वारा की गई गणना के अनुसार गीर के जंगलों में केवल 350 सिंह बचे हुए हैं। इसलिए इसकी संभावना बहुत अधिक है कि आने वाले चार-पांच सालों में सिंह भी इस देश से विलुप्त हो जाएगा। ऐसे में हमें फिर अपना राष्ट्रीय पशु बदलना पड़ेगा। इससे बेहतर है कि हम इस मुद्दे का कोई स्थायी समाधान निकालें।

"मैं समझता हूं कि कोई ऐसे प्राणी को राष्ट्रीय प्रतीक बनाया जाना चाहिए जो आज की बदली हुई परिस्थितियों और मान्यताओं का प्रतिनिधित्व करता हो। सिंह, बाघ, हाथी आदि सामंती व्यवस्था की याद दिलाते हैं। प्रथम दो तो हिंसा और शौर्य के प्रतीक हैं। आज के व्यावसायिक युग में इन दोनों भावनाओं को कोई स्थान नहीं है। रही बात हाथी की। हाथी कोई उपयोगी पशु नहीं है। उसकी छवि एक ऐसे पशु की है जो उसके मालिक के धन-दौलत को धीरे-धीरे समाप्त कर देता है। हमारे ही देश के सार्वजनिक उद्यमों को उचित ही सफेद हाथी कहा गया है क्योंकि वे धीरे-धीरे देश की संपत्ति को खाए जा रहे हैं। जिस पशु में ऐसी भावना निहित हो, उसे कदापि राष्ट्रीय पशु नहीं बनाना चाहिए।

"मेरा सुझाव है कि हम कोई ऐसे छोटे एवं सफल प्राणी को चुनें जिसमें वर्तमान परिस्थितियों में तरक्की करने के गुण मौजूद हों। मेरा इशारा एक ऐसे पशु की ओर है जो तेज बदलती परिस्थितियों के मुताबिक अपने आपको ढाल लेता है, और जो चालाक भी है, यानी कि गीदड़। आप को ज्ञात होगा कि पंचतंत्र, हितोपदेश आदि प्राचीन ग्रंथों में गीदड़ का खूब गुण गाया गया है। गीदड़ जैसे स्वभाव वाले नेता ही आजकल ज्यादा दिखाई देते हैं। इसलिए राष्ट्र का पशु उनके जैसे स्वभाव वाला हो, तो अच्छा।"

सीताराम यचूरी की इस सुझाव से सारे सांसदों में खुसुरफुसुर मच गई। अध्यक्ष महोदय ने इस खलबली को शांत करने का प्रयास आरंभ कर दिया। तब तक संसद के सभी मुख्य पक्ष बोल चुके थे। इसलिए संसदाध्यक्ष ने राष्ट्रीय पशु के मामले पर वोट डलवा दिए। देखा गया कि 90 फीसदी वोट गीदड़ के पक्ष में पड़े।

प्रधान मंत्री मायावती ने प्रसन्न मुद्रा से सांसदों को संबोधित करते हुए कहा, "मैं आप सबकी आभारी हूं कि आपने विचाराधीन मुद्दे पर आपसी राग-द्वेष से ऊपर उठकर वोट किया। मैं गीदड़ को इस देश का नया राष्ट्रीय पशु घोषित करती हूं। इस संबंध का राजपत्र शीघ्र निकाला जाएगा।"

Thursday, March 26, 2009

प्रधान मंत्री राम

यह प्रहसन कुछ वर्ष पहले लिखा था। पर परिस्थितियां आज वैसी ही हैं, इसलिए पाठक उससे आसानी से रिलेट कर सकेंगे। कुछ पदों पर नए लोग आ गए हैं, पर अधिकांश वे ही पुराने चले आ रहे हैं। चुनावी माहौल के लिए उपयुक्त समझकर इसे जयहिंदी में दे रहा हूं।

पात्र
सूत्रधार, राम, हनुमान, वानर सेना, नरसिंह राव, मनमोहन सिंह, स्पीकर, सीता, अटल बिहारी वाजपेयी, मजदूर नेता, साध्वी रीतंबरा, टी एन शेषन, लक्ष्मण

सूत्रधारः गुजरात के वाघेला कांड के बाद भारतीय जनता पार्टी के साफ-सुथरे, अनुशासित पार्टी होने की छवि मिट्टी में मिल गई। हवाला कांड में उसके राम श्री लाल कृष्ण आडवाणी शहीद हुए। भाजपा को चुनाव जीतने के कम आसार नजर आने लगे। सोच-विचार कर उसने तय किया कि स्वयं भगवान राम ही उसे उभार सकते हैं। बहुत जोर दिए जाने पर राम भाजपा की बागडोर संभालने के लिए राजी हुए। कहना न होगा कि भगवान राम के नेतृत्व में पार्टी विजयी हुई और केंद्र में भाजपा की सरकार बनी और बने देश के नए प्रधान मंत्री राम। इस नए अवतार में भगवान राम ने दरबार बुलाई और अपने चुनावी वादों को लागू करने के उपायों पर विचार करने लगे।

रामः चुनावों के समय हमने अवधवासियों, न न माफ करना भाइयो, पुरानी बात कह गया। हां भारतवासियों से वादा किया था कि हम देश के सभी वृद्ध लोगों को पेंशन देंगे। मैं समझता हूं कि हमारा पहला काम इस स्कीम को लागू करना होना चाहिए। रावण के साथ युद्ध में मेरे साथ लड़े बहुत से प्रिय वानरों को, खासकर हनुमान को, इससे लाभ मिलेगा।

हनुमानः धन्यवाद राम। बोलो श्री राम चंद्र की जय!

(वानर सेना राम जय का नारा बुलंद करती है और गाती हैः
हम तो आपके दीवाने हैं
बड़े मस्ताने हैं, आह ओह....
आपके दीवाने का गाना)


रामः (राव से) भूतपूर्व प्रधानमंत्री और विपक्षी दल के नेता की हैसियत से इसके बारे में तुम्हारी क्या राय है राव?

रावः राम, आप अब समस्त भारत के नेता हैं। आपको सिर्फ अवध या अपने निजी समर्थकों की नहीं सोचनी चाहिए। मैंने और मेरे यह साथी मनमोहन सिंह ने पिछले पांच सालों में जो उदार नीतियों का सूत्रपात किया था, उन्हीं को आप आगे बढ़ाएं तो अच्छा।

(भूतपूर्व वित्तमंत्री मनमोहन सिंह राव का समर्थन करते हुए बहुत उद्विग्नता से कहते हैं।)

मनमोहन सिंहः प्राधान मंत्री राम, इस तरह के पोपुलिस्ट कदमों से पिछले पांच वर्षों में मेरी सरकार ने उदारीकरण के लिए जो भगीरथ प्रयत्न किया था उस पर पानी फिर जाएगा। हनुमान, जांबवान आदि चिरंजीवी हैं। जन्म-जन्मांतर तक पेंशन खाते रहेंगे और देश का दीवाला पिट जाएगा।

हनुमानः अबे मनमोहन सिंह के बच्चे, राम का विरोध करता है। अभी मैं तुझे ठीक करता हूं।

(हनुमान गदा लहराते हुए सिंह साहब के पीछे भागते हैं, जो जान बचाए राव के पीछे छिपते हैं। राव अपने वित्तमंत्री की रक्षा करते हुए यह गाना गाने लगते हैं:
लोगो न मारो उसे, ये तो मेरा दिलदार है...
स्पीकर महोदय बड़ी मुश्किल से हनुमान की गदा छिनवाते हैं और उन्हें शांत करते हैं।)


सीताः स्वामी, एक सुझाव मेरा भी है।

रामः हां, प्राण प्रिय सीते, हम सुन रहे हैं।

सीताः नाथ, सबसे पहले इन अत्याचारी, चुगलखोर धोबियों से निपटिए। पहले अवतार में इनके बहकावे में आकर आपने मुझ पर बहुत जुल्म ढाए थे। अब आप प्रधान मंत्री हैं और यह नारी मुक्ति का जमाना है। नारी विरोधी होने का जो कलंक आपके चरित्र के साथ जुड़ गया है, उसे धोने का यही सुअवसर है। इन धोबियों को देशनिकाला नहीं तो कोई अन्य कड़ी सजा अवश्य मिलनी चाहिए। इससे आप नारियों में बहुत लोकप्रिय हो जाएंगे।

(सीता की बात सुनकर अटल बिहारी वाजपेयी व्यंग्यपूर्ण ढंग से हंस पड़ते हैं जिसे देखकर राम कुछ-कुछ चिढ़ उठते हैं।)

रामः क्यों अटल, तुम्हें कुछ कहना है?

अटलः सीता जी के बहकावे में न आएं राम! आप गृहस्थों को यह बड़ी मुसीबत झेलनी पड़ती है। आप तो बस पत्नी जी के गुलाम भर होते हैं। भगवद कृपा से मैं इस दुर्दशा से अब तक बचा हुआ हूं, कुंवारा जो हूं। इस देश की अवनति में पत्नियों का बड़ा हाथ रहा है। आप स्वयं भुक्त-भोगी हैं। दशरथ-पत्नी कैकेयी के कारण ही तो आपको वनवास हुआ था। अब आपकी अर्धांगिनी आपको गलत सलाह दे रही हैं।

रामः वह कैसे अटल?

अटलः बात बहुत सीधी है राम। परंतु आप सामंती लोगों को लोकतंत्र की इतनी मोटी बात भी बड़ी मुश्किल से समझ आती है। धोबी अनुसूचित जातियों में आते हैं जिनकी इस देश में 50 प्रतिशत आबादी है। उनके विरुद्ध कोई कदम उठाने का मतलब है सत्ता से हाथ धोना। अब देखिए न, आपको गाली देने वाले कांशी राम और मायावती से हमें उत्तर प्रदेश में दुमछल्ला होना पड़ा था। राजनीति में अपना उल्लू सीधा करने के लिए गधे को भी बाप बनाना पड़ता है। इसलिए सीता की बात दर किनार कीजिए। कहीं कांशी राम ने सुन लिया तो आफत आ जाएगी। अपना हाथी दौड़ाकर नए खिले कमल को दुबारा कीचड़ में रौंद देगा। उसको बस एक मुद्दा चाहिए। आपको धोबियों के लिए कोई वेलफेयर कार्यक्रम घोषित करना चाहिए। इससे भी अच्छा आप किसी धोबी को उप प्रधान मंत्री बना लें। मेरा निजी धोबी बड़ा होनहार है। कहो तो उससे बात चलाऊं।

रामः (घृणा से) क्या! एक धोबी मेरी बराबरी करेगा!

अटलः हां राम। यही लोकतंत्र है।

रामः (निराश स्वर में) यह लोकतंत्र तो रावण से भी विकराल राक्षस मालूम पड़ता है।

(एक मजदूर नेता बहुत गुस्से में सदन में प्रवेश करता है।)

रामः यह कौन है?

एक सचिवः स्वामी, यह साम्यवादी दल का सदस्य और एक खूंखार मजदूर नेता है।

मजदूर नेताः राम आपके प्रधान मंत्री बने पूरे दस दिन हो गए। अब तक फिफ्त पे कमिशन की रिपोर्ट लागू नहीं हुई है। यह तो हद है। अब हम देख लेंगे आपको भी। यदि दो दिन में आपको घुटने पर नहीं लाया तो मेरा नाम नहीं। कल से देश भर में चक्का जाम किया जाएगा। सभी दफ्तर बंद। अस्पताल बंद। हम आपकी सरकार गिराकर ही रहेंगे। ऐसी निकम्मी सरकार हमें नहीं चाहिए।

रामः (घबराकर) अरे भाई जरा शांत हो जाओ। मैं इस रोल में नया हूं। यह फिफ्त पे कमिशन क्या बला है। जरा समझाओ तो।

मजदूर नेताः पिछले पांच वर्षों से कर्मचारियों की पगार नहीं बढ़ी है। इससे बड़ा अन्याय क्या हो सकता है।

रामः पगार? वह क्या होती है?

एक सचिवः भगवन, काम करने के बदले लोगों को पैसे दिए जाते हैं, जिसे पगार कहते हैं।

रामः यह सब लगता है नया शुरू हुआ है। मेरे समय तो किसी को कोई पगार नहीं मिलती थी। वरना मेरे जैसा निर्धन वनवासी दौलतशाली रावण का मटियामेट कैसे कर पाता। लाखों-करोड़ों वानरों को मैंने एक पैसा भी नहीं दिया। वे मेरे प्रति अपनी श्रद्धा से सभी कष्ट झेलते गए। प्राण भी गंवा दिए।

मजदूर नेताः क्या कहा, वानरों से बेगार करवाया? यह तो मानव अधिकारों का घोर उल्लंघन है। काश यह बात चुनावों से पहले हमें मालूम होती। फिर देखता आप कैसे चुनाव जीतते। जिसका दामन इतने बड़े धब्बे से काला हो, वह चुनाव जीत ही नहीं सकता, भगवान ही क्यों न हो वह।

(मजदूर नेता भौचक्का-सा कुछ बड़बड़ता हुआ सदन से निकल जाता है।)

मनमोहन सिंहः इन यूनियन लीडरों को देखते ही मुझे कुछ होने लगता है, मानो शरीर पर बिच्छू रेंग रहे हों। खैर वह कंबख्त गया सो अच्छा हुआ। चलो अब कुछ काम की बात करें। उदारीकरण के विषय में आपकी सरकार की क्या नीति रहेगी राम, क्या आप विदेशी कंपनियों को भारत में आने देंगे या उन पर पाबंदियां लगाएंगे?

(राम के लिए यह विषय नया था। वे बगले झांकने लगे। पर साधवी रीतंबरा ने राम के कष्ट को भांप कर स्थिति को संभाल लिया। वह यह गाना गाने लगी:
मेड़ इन इंडिया
दिल खोल कर कहो मेड इन इंडिया...)


साध्वीः थोड़े शब्दों में मनमोहन, इस विषय में हमारी पार्टी की नीति यही है। जो चीज भारत में बनी है, वह भारत में बिकेगी। बाकी चीजें नहीं। समझे? हम देश की संपत्ति को विदेशियों के हाथों लुटाने नहीं सत्ता पर आए हैं।

मनमोहनः मगर मैडम, भारत सब चीजें तो नहीं बनाता। उन चीजों का क्या जो यहां नहीं बनतीं।

रामः मनमोहन, तुमने शायद महाभारत नहीं पढ़ा है। उसमें लिखा है, जो चीज इसमें नहीं है, वह इस दुनिया में नहीं है। जो चीज दुनिया में है, वह इस महाग्रंथ में है। इसलिए मैं नहीं मानता कि ऐसी कोई चीज है जो भारत नहीं बनाता या बना सकता।

मनमोहनः मगर राम वह सब तो दो हजार साल पहले की बात है। अब तो दुनिया बदल चुकी है...

(वे अपनी बात पूरी नहीं कर पाए। तभी मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन सदन में प्रवेश करते हैं।)

रामः आओ शेषन, कैसे आना हुआ। निर्वाचन आयोग में तो शांति है न?

टी एन शेषनः हे जगदीश्वर राम, तीनों लोकों के स्वामी! मेरा प्रणाम ग्रहण करें। मुख्य चुनाव आयुक्त होने के नाते मुझे ऐसे अनेक काम करने पड़ते हैं जो मुझे बहुत अप्रिय होते हैं। ऐसा ही एक अप्रिय काम लेकर मैं आपके पास आया हूं। कृपानिधान, मुझे क्षमा करें।

रामः क्षमा किस लिए शेषन। कहो क्या काम है?

शेषनः मैं एक बार फिर क्षमा मांगता हूं राम। पर खेद के साथ कहता हूं कि आपका चुनाव रद्द कर दिया गया है और आप अब प्रधान मंत्री नहीं रहे।

रामः क्या! चुनाव रद्द कर दिया! प्रधान मंत्री नहीं रहा! क्या मतलब है तुम्हारा?

शेषनः चुनावी अभियानों में आपने धार्मिक प्रतीकों का उपयोग किया था। यह संविधान के अनुसार गैरकानूनी है। इसलिए मुझे आपके चुनाव को रद्द करना पड़ा है।

रामः हा शेषन, तुम तो घर के भेदी निकले। वैंकुंड में क्षीर सागर में शेषनाग की गोदी में लेटकर मैं परम आनंद और सुरक्षा का अनुभव करता था। यहां तुम शेष नामधारी ने मुझ पर यों घात किया! निर्दयी! जयचंद! कलियुग! घोर कलियुग!

शेषनः प्रभु यह लोकतंत्र है। लोकतंत्र में व्यक्ति नहीं संस्था और कानून प्रमुख होते हैं। लोकतंत्र का सबसे मजबूत खंभा निर्वाचन आयोग है। उस आयोग का सबसे मजबूत खंभा मैं हूं, हां मैं शेषन! मैं आपसे भी, मेरा मतलब है प्रधान मंत्री से भी, शक्तिशाली हूं। यही लोकतंत्र है, लोकतंत्र यानी शेषन तंत्र। हा हा हा हा...

रामः (उदास स्वर में) यह लोकतंत्र का गणित मेरे पल्ले बिलकुल नहीं पड़ता। चलो लक्षमण, चलो सीते, एक बार फिर वनवास के लिए तैयार हो जाओ। हमें राजगद्दी फिर छोड़नी पड़ेगी।

(राम यह गाना गाते हुए प्रस्थान करते हैं:
हम छोड़ चले हैं महफिल को
याद आए तो मत रोना...)


(समाप्त)

Wednesday, March 25, 2009

चाबी की हिफाजत

अभी हाल में मेरे पड़ोसन घर पर ताला लगाकर सामान खरीदने निकली थीं। जब सामान लेकर घर लौटीं, तो देखा कि चाबी कहीं गिर गई है। तुरंत उन्होंने सामान हमारे घर रखा और चाबी खोजने दौड़ीं।

हम यही सोच रहे थे कि गुम हुई चाबी कहां मिलने वाली है। इन्हें या तो ताला तुड़वाना पड़ेगा अथवा पति या बेटे के आने का इंतजार करना होगा, जिनके पास घर की दूसरी चाबी थी।

पर कुछ ही पलों में विजयी मुस्कान के साथ वे लौट आईं। उनके हाथ में चाबी थी।

हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। हमने पूछा, यह कमाल आपने कैसे किया? तब उन्होंने ऐसी पते की बात बताई कि मुझे लगा कि उसे आप सबके साथ बांटना चाहिए, क्योंकि कभी-न-कभी ऐसी परिस्थिति हम सबके साथ भी तो घट सकती है।

उसने कहा, “मेरी सास ने मुझे एक बार समझाया था कि हमेशा चाबी के गुच्छे में सफेद चमकीला कपड़ा इस तरह बांधना चाहिए कि उसके पतले किनारे लगभग दो इंच तक निकले रहें। यदि चाबी सड़क की काली सतह पर या कहीं और गिर जाए, तो चाबी आसानी से नहीं दिखेगी, पर सड़क की काली पृष्ठभूमि में सफेद कपड़े पर हमारी नजर तुरंत जाएगी। इतना ही नहीं, कपड़ा हल्की सी हवा होने पर भी अथवा वाहनों की आवाजाही से हिल उठेगा और हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करेगा।

“मैंने चाबी के गुच्छे के साथ इस तरह से कपड़ा बांध रखा था। चाबी सड़क पर ही गिरी थी। जब मैं उसे खोजते हुए निकली, तो गुच्छे के साथ बंधे सफेद कपड़े के हिलने के कारण मैं उसे तुरंत देख पाई।“

तो यह तरकीब आप भी अपनाएं। न जाने कब यह आपको मुसीबत से उभारे।

Tuesday, March 24, 2009

आईपीएल देश के बाहर जाए तो मेरी बला से

अब क्रिकट जनता का खेल रह ही कहां गया है, जो हमें इससे चिंता हो? पहले क्रिकेट मैच राष्ट्रीय भावना जगाते थे। लोगों को एक-दूसरे के निकट लाते थे। जब इरफान पठान, जहीर खान या हरभजन सिंह विकट लेते थे, तो सारा देश खुशी से झूम उठता था। जब सचिन, शहवाग या धोनी शतक लगाते थे, तो सबकी खुशी आसमान के पार निकल जाती थी। जब मैच होते थे, सड़कों-बाजारों में कर्फ्यू सा लग जाता था। पान के गल्लों से लेकर ड्राइंग रूम तक सब रेडियो-टीवी के आगे जम जाते थे। कुछ लोग तो दफ्तर-कालेज-स्कूल से गुल्ली तक कर जाते थे, ताकि मैच देखा जा सके। उत्सव का सा माहौल बन जाता था। हिंदू हो या मुसलमान, बच्चे हों या बूढ़े, चपरासी हो या अफसर, यहां तक कि महिलाएं भी, क्रिकेट के दीवाने हो जाते थे। सड़कों में ठेलेवाले से लेकर मजदूर तक कान में ट्रांसिस्टर लगाए कमेंट्री सुनते मिल जाते थे। जब दो अजनबी बस स्टैंड या कहीं मिलते, औपचारिकता, हैसियत, धर्म, वर्ग, जाति आदि को ताक पर रखकर बिना हिचक एक दूसरे से स्कोर पूछ लेते थे, और खिलाड़ियों के निष्पादन पर कटु अथवा उल्लसित टिप्पणी-प्रतिटिप्पणी कर लेते थे। इससे देश एक होता था।

पर आईपीएल ने सब कुछ बदल दिया है। अब पता ही नहीं चलता कि कौन किसके विरुद्ध खेल रहा है। अपनी ही टीम के सदस्य अनेक टीमों में बंटे हुए और एक दूसरे से भिड़ते हुए नजर आ रहे हैं। इससे क्षेत्रीयता को बढ़ावा मिल रहा है। क्रिकेट आधारित विज्ञपन भी खिलाड़ियों को अपनी क्षेत्रीय अस्मिता में पेश करके इस क्षेत्रीयता को उकसा रहे हैं। धोनी को झारखंड से जोड़कर, शेहवाग को दिल्ली से जोड़कर, पार्थिव और पठान को गुजरात से जोड़कर। पहले ऐसा नहीं होता था। पहले टीम राष्ट्रीय होती थी, खिलाड़ी सब भारतीय होते थे, चाहे वे गुजरात के हों या पंजाब के या मुंबई के। गनीमत यही है कि उन्हें विज्ञपान-कर्ताओं ने हिंदू-मुसलमान के रूप में पेश करना नहीं शुरू किया है। यदि वे ऐसा करें तो मुझे बिलकुल भी आश्चर्य नहीं होगा। क्रिकेट इतना पतित हो चुका है। और जिन विदेशी प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ने के लिए हमारी टीम पहले कमर कस लेती थी, वे हमारे खिलाड़ियों के सहयोगी के रूप में दिखाई दे रहे हैं। पहले एक राष्ट्रीय टीम हुआ करती थी, जो पूरे देश की रुचि को अपने में केंद्रित रख पाती थी। अब रावण के सिर की तरह दस टीमें हो गई हैं। राजस्थान की अलग, चेन्नै की अलग, दिल्ली की अलग। ये जब आपस में खेलती हैं, तो लोगों के मन में क्षेत्रीयता का गंदा विष घुलने लगता है। और टीमें भी फिल्मी अभिनेताओं, उद्योगपतियों और नेताओं के खरीदे गए गुलामों जैसे हो गए हैं। कोई प्रीती जिंटा के गुलाम बने घूम रही है, कोई शाहरुख खान के, कोई विजय मल्या के, कोई वसुंधरा सिंधिया के। पहले के क्रिकेटर लोगों की नजरों में हीरो होते थे, उनकी अपनी प्रतिष्ठा और इज्जत होती थी। अबके क्रिकेटरों में वह बात नहीं रह गई है, जहां पैसा मिला, वहीं बिछ गए।

इस आईपीएल ने तो क्रिकट की राष्ट्रीयता ही नष्ट करके रख दी है। अब यह वह खेल नहीं रहा जो पूरे देश को बांधे रखता था। अब यह कोई अभिजात वर्गीय समारोह जैसा हो गया है। व्यवसाय का पिछलग्गू बन गया है। उसके साथ कामुकता उरेकने वाली चियरिंग गर्लों से लेकर गिटपिट अंग्रेजी बकनेवाले विशेषज्ञों, और क्रिकेट की दृष्टि से अनाड़ी सुंदरियों तक क्या कुछ जोड़ दिया गया है। और खेल भी लघु से लघुतर होता जा रहा है। पहले पांच दिन से सिकुड़कर एक दिन का हुआ, अब तो केवल 20 ओवर का ही रह गया है। टीवी ने तो वैसे ही उसे 10-10 मिनटों के खंडों में बांट रखा है।

आजकल के खिलाड़ियों के रूप में आम आदमी अपने आपको देख ही नहीं सकता। क्रिकेट का असली जादू इसी में था – मैदान पर सचिन, पठान, धोनी या शहवाग नहीं खेल रहे होते, बल्कि आम आदमी अपने आपको खेलता हुआ महसूस करता था। पहले के सचिन, कांबले, पठान, जहीर, कुंबले आदि हमारे ही बीच से निकले हुए लगते थे, इसलिए उनके साथ आम आदमी सरलता से साधारणीकरण कर लेता था। पर आजकल के नए खिलाड़ी ऐसे प्लेबोय बने हुए नजर आते हैं कि आम आदमी के लिए वे बेगाने से हो गए हैं। उनके विज्ञापनी रूप देखकर तो आम आदमी उनसे और भी कट-कट जाता है। खुछ क्रिकेटरों ने तो क्रिकेट के मैदान और फिल्मों-सीरियलों के सेटों का अंतर ही मिटा दिया है और बाकायदा फिल्मस्टार या टीवी स्टार हो गए हैं। अब कहना मुश्किल होता जा रहा है कि फलाना व्यक्ति क्रिकेट का खिलाड़ी है या अभिनेता। आम आदमी को दुविधा होती है कि उनके साथ क्रेकेटर के रूप में जुड़े या अभिनेता के रूप में।

यह खेद की बात है, क्योंकि क्रिकट का महत्व हमारे देश के लिए यह भी है कि वह वर्गों, धर्मों, सामाजिक स्तरों आदि विभेदक ताकतों को लांघकर लोगों को जोड़ता था। क्रिकेट के आईपीएल वाले स्वरूप ने क्रिकट के इस पहलू को ही नष्ट कर दिया है। और चिंता की बात यह है कि सब कुछ बिना किसी विरोध के हो गया। कहीं भी अखबारों, टीवी बेहसों, पुस्तकों, पत्रिकाओं, ब्लोगों में किसी ने इसका विरोध नहीं किया। शायद सब कुछ इतनी जल्दी हो गया है कि लोगों का ध्यान इस ओर गया ही नहीं।

क्या विश्व भर में सभी खेलों का यही हस्र हो रहा है? शायद नहीं। फुटबोल को ले लीजिए। जब ब्राजील, इंग्लैंड या फ्रांस की टीमें खेलती हैं, तो उनके देश के नागरिकों में अब भी जोश भर देती हैं। क्रिकेट भी पहले ऐसा करता था हमारे देश में, पर अब वह बात नहीं रही है।

शायद पैसा घुसने से यह खेल बर्बाद हो गया है। अब क्रिकेट इसलिए खेला जाता है कि विज्ञापनदाता करोड़ों दर्शकों को अपनी गिरफ्त में ले सकें। क्रिकेटर का मूल्य अब इसमें नहीं रह गया है कि उसके खेल की टेकनीक कितनी दुरुस्त है, बल्कि इसमें कि वह विज्ञापनों में कितना प्रभावशाली दिख सकता है। क्रिकेट की आत्मा ही मार दी गई है। क्रिकेट का केंद्रीय तत्व क्रिकेट न रहकर विज्ञापन हो गया है।

धीरे-धीरे देश को एक करनेवाले परिबल कमजोर पड़ते जा रहे हैं। क्रिकेट की करुण स्थिति इसकी नवीनतम मिसाल है। देश को बांटनेवाले परिबल उसी अनुपात में मजबूत होते जा रहे हैं, जैसे धर्म, राजनीति, जातीयता, आर्थिक विषमताएं, इत्यादि। यह और भी ज्यादा खेद की बात है। यह देश की एकता और समृद्धि के लिए बहुत ही हानिकारक है। हर चीज का व्यवसायीकरण होता जा रहा है। पता नहीं यह कहां जाकर रुकेगा।

मुझे यह भी शंका है कि यह सब सोची-समझी साजिश के तहत हो रहा है। क्रिकट के राष्ट्र-निर्माता, लोगों को जोड़नेवाली भूमिका देखकर देश का अहित चाहनेवालों ने कहीं उसे पंगु तो नहीं कर डाला है? देश में बिखराव लाने का इससे अच्छा क्या उपाय हो सकता था कि क्रिकेट जैसे लोगों को मिलानेवाले खेल को ही नपुंसक बना डाला जाए। अब आप ही सोच लीजिए कि देश का अहित चाहनेवाले ये कौन हो सकते हैं।

इसलिए यदि आईपीएल सात समंदर पार जाए, तो मेरी बला से, वहां से न लौटकर वहीं का होकर रह जाए, तो यह और भी अच्छा होगा।

किस गांधी की बात कर रहे हैं वरुण?


निश्चय ही वह महात्मा गांधी नहीं हो सकते। यह स्पष्ट करना जरूरी लगता है। गांधी नाम सुनकर लोगों के मन में महात्मा गांधी का विचार ही पहले आता है।

इसलिए, वरुण जब गांधी नाम की विरासत पर अपना दावा ठोकते हैं, तो उसमें फिरोस, इंदिरा और संजय की विरासत हो सकती है, पर महात्मा गांधी की नहीं। वरुण के तौर-तरीके देखकर तो यही लगता है कि उनको संजय की विरासत ही ज्यादा प्राप्त हुई है।

वरुण के विचारों का महात्मा गांधी के विचारों से दूर-दूर का भी संबंध नहीं है। गांधीजी समन्यवादी थे, जो सब कौमों को साथ लेकर चलना चाहते थे, खासकर मुसलमानों को। दूसरे, वे बहुत सोच-विचार कर ही बोलते थे, और कभी अभद्र भाषा का प्रयोग नहीं करते थे।

इन दोनों ही बातों में वरुण उनसे भिन्न हैं।

वरुण को जो राजनीतिक संस्कृति पारिवारिक विरासत के रूप में मिली है, वह आखिर रंग दिखा ही रही है। यह बड़े खेद की बात है।

और भी खेद की बात यह है कि वरुण उन्हीं मेनका गांधी के पुत्र हैं जिन्हें कुत्ते-बिल्लियों की पीड़ा से अपार सहानुभूति है। लगता है उनके बेटे के लिए मुसलमान कुत्ते-बिल्लियों से भी गए गुजरे हैं।

चुनाव आयोग को वरुण पर एक्सेंप्लरी सजा ठोकनी चाहिए और उसे चुनाव में भाग लेने से रोकना चाहिए। इससे चुनावी भाषणों में भड़काऊ बयानबाजी थोड़ी थमेगी।

एक बात और काबिले गौर है। राहुल और वरुण, इन दोनों चचेरे भाइयों में, राहुल निश्चय ही अधिक मृदु-भाषी, सज्जन, और विवेकशील मालूम पड़ रहे हैं। राजीव और संजय में भी ठीक यही अंतर था। नेहरू खानदान और कांग्रेस पार्टी को राहुल से इस बार बहुत आशाएं होंगी।

Monday, March 23, 2009

दो हफ्ते निकल गए!

यह ब्लोग अब कुछ दो हफ्ते पुराना हो चुका है। अब तक इसे लगभग 40 बार देखा गया है ( :-) या :-( ?)। इनमें से 10 बार तो मैंने ही देखा होगा!

बहुत लोगों ने शुभकामनाएं भेजीं। उनका मैं आभारी हूं। कुछ लोगों ने ब्लोग को दीर्घजीवी बनाने के लिए उपयोगी सुझाव भी दिए। उनके प्रति मैं और भी अधिक आभारी हूं। इनमें से एक हैं मंझे हुए हिंदी ब्लोगर कुन्नू सिंह। उनके सुझाव मुझे काफी उपयोगी लगे, इसलिए यहां दुहराता हूं, ताकि अन्य नौसिखिए ब्लोगरों को भी मार्गदर्शन मिल सके:-

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ब्लाग से कमाना बहुत कठीन है क्योंकि हिंदी साइटों पर बहुत ही कम लोग विज्ञापन करवाते हैं।

मैंने एडब्राइट से 1 या दो वर्ष में 10 डालर कमाया। आप सोच सकते हैं कितना मुश्किल है।

और भी कई तरीके हैं, जैसे आप अपना ब्लाग चिट्ठाजगत chitthajagat.in और blogvani.com में डाल दें।

feedburner.com से अपने ब्लोग का फीड बनाएं।

गूगल में यह खोज करें - free web submission या free url submit और 10 - 20 साइटों पर रजिस्टर करें।

सबमिट करने वाला काम हर हफ्ते करें और कम से कम 10 साइटों पर अपना साइट सबमिट करें।

लोगों के साइटों पर जाकर कमेंट दें, इसमें आपको ब्लोगिंग से ज्यादा मजा आएगा।

कभी कभी दूसरों के लेखों पर भी लिख दें जैसे किसी ने कोई बात लिखी हो, उस पर आप कुछ लिख सकते हैं।

बहुत सारे तरीके हैं। टेंप्लेट बदलते रहें।

पहले अपने ब्लाग को पापुलर बनाएं, बाद में एड लगाएं।
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Saturday, March 21, 2009

वोट के बदले क्या दोगे?

चुनाव आ रहा है और पार्टी कार्यकर्ता वोट मांगने आपके द्वार पर भीड़ लगा रहे हैं। यही मौका है उनसे पूछने के लिए कि हिंदी के लिए आप क्या कर रहे हैं और लोक सभा-विधान सभा-पंचायत-नगरपालिका में पहुंचकर हिंदी के लिए आप क्या करने का इरादा रखते हैं।

क्या आपकी पार्टी अगले पांच वर्षों में हिंदी प्रदेशों में शत-प्रतिशत साक्षरता लाने की गारंटी दे सकती है? प्राथमिक शिक्षण के लिए बजट में राष्ट्रीय आय का 25 प्रतिशत या उससे ज्यादा के आवंटन का आश्वासन दे सकती है? हिंदी के त्वरित विकास के लिए हिंदी प्रदेशों में शत-प्रतिशत साक्षरता लाना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इससे लोग अधिक संख्या में हिंदी पुस्तकें, अखबार आदि पढ़ेंगे। इससे हिंदी जनता अधिक प्रबुद्ध और समझदार बनेगी और अपने अधिकारों और दायित्वों को बेहतर रूप से पहचानेगी। उसे स्वास्थ्य, रोजगार, कला, संस्कृति आदि के बारे में पुस्तकों, अखबारों आदि से बेहतर जानकारी मिलेगी, जिससे उसका जीवन स्तर और आमदनी में सुधार आएगा। समस्त विश्व में देखा गया है कि जहां महिलाएं साक्षर हों, वहां बाल मृत्यु दर, प्रसव के दौरान माता की मृत्यु की दर, जन्म के समय बच्चों का वजन कम होना, आदि नकारात्मक सामाजिक सूचकों में भारी गिरावट आती है। यह भी देखा गया है कि यदि माता पढ़ी-लिखी हो, तो बच्चे पेचिस, दस्त, पोलियो, टीबी आदि घातक बीमारियों से बचे रहते हैं अथवा इनके लगने पर बच्चों की देखरेख ठीक तरह से होती है, क्योंकि माताएं डाक्टरों द्वारा बताए गए निर्देशों का बेहतर रीति से पालन कर पाती हैं और दवा की शीशियों में छपे निर्देशों को और सरकार द्वारा चलाए गए स्वास्थ्य अभियानों के पोस्टरों, पुस्तिकाओं आदि में दी गई जानकारी को पढ़कर समझ लेती हैं और उनका अनुसरण कर पाती हैं।

साक्षरता जीवन-पर्यंत चलनेवाली प्रक्रिया है। वोट मांगने आया उम्मीदार इसकी व्यवस्था के लिए क्या करने का विचार रखता है? क्या वह हर गांव में हिंदी पुस्तकालय स्थापित करने का वादा कर सकता है? केवल वादा करना काफी न होगा। एक पुस्तकालय स्थापित करने में भवन, मेज-कुर्सी, कंप्यूटर, पुस्तकें आदि में कम-से-कम 50 लाख रुपए की लागत आएगी, उसके बाद पुस्तकालय के कर्मियों का वेतन, हर साल नए पुस्तकें खरीदने का खर्च आदि के रूप में कम से कम 5 लाख रुपए का आवर्ती खर्च आएगा। समस्त हिंदी भाषी प्रदेश में लगभग 4,00,000 गांव हैं। इसलिए समस्त हिंदी प्रदेश में पुस्तकालयों की जाल बिछाने के लिए 2 लाख करोड़ रुपए की जरूरत होगी। आवर्ती खर्च अलग। इस पैसे की व्यवस्था उम्मीदार कैसे करेगा? निजी क्षेत्रों का योगदान प्राप्त करने से सरकार पर इसका भार कुछ कम हो सकता है। क्या उम्मीदवार की पार्टी ऐसी किसी योजना पर विचार कर रही है, जिसमें सरकार और निजी क्षेत्र के सहयोग से सभी गांवों में एक उच्च स्तरीय पुस्तकालय स्थापित की जा सके? उम्मीदवार से इस तरह की योजना के ब्योरे समझाने के लिए कहना चाहिए। मान लेते हैं कि आप चुनाव जीतकर आते हैं, और आपकी पार्टी मई में सत्ता पर काबिज हो जाती है। तो आप कितने दिनों में इस योजना को लागू करना शुरू करेंगे? यदि पांच सालों में 4,00,000 पुस्तकालय स्थापित करने हों, तो हर साल लगभग 30,000 पुस्तकालय स्थापित करने होंगे, हर महीने 2,500 पुस्तकालय स्थापित करने होंगे, हर दिन लगभग 100 पुस्तकालय स्थापित करने होंगे।

उम्मीदवार के सामने इस तरह के आंकड़े गिनाने से उसे एहसास होगा कि चुनाव में खड़ा होना केवल अपनी जेबें भरने का उद्यम नहीं है, बल्कि उसके साथ कुछ जिम्मेदारियां भी जुड़ी हुई हैं।

हिंदी प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का हाल बेहाल है। कई गांवों में स्कूल तक नहीं हैं। जहां स्कूल हैं, वहां स्कूल के लिए भवन नहीं हैं, पेड़ों के नीचें कक्षाएं चलती हैं। सरकारी अध्यापक तन्खाह तो लेते हैं, पर पढ़ाते नहीं है, इसके बजाए कहीं गांव में दुकान खोलकर बैठे होते हैं, या अन्य किसी काम में लगे रहते हैं। इनको अनुशासित कैसे किया जाएगा? आपकी पार्टी का इसके बारे में क्या सोच है? जरा समझाइए। मां-बांप लड़कियों को स्कूल नहीं भेजते, कुछ रूढ़िवादिता के कारण, कुछ आर्थिक तंग-हाली के कारण। लड़कियों में शत-प्रतिशत भर्ती लाने के लिए आपकी कोई योजना है?

उच्च शिक्षा की समस्या यह है कि वह अंग्रेजी-परस्त है। इसलिए हिंदी भाषियों के लिए सभी उच्च शिक्षा संस्थानों के द्वार बंद हैं, चाहे वे साधारण से कालेज-विश्वविद्यालय हों, या आईआईटी-आईआईएम सरीखे विश्व-स्तरीय संगठन। इनके द्वार हिंदी भाषियों के लिए खोलने के लिए आप क्या करनेवाले हैं? क्या आप ऐसा कानून बनाएंगे, और उसका क्रियान्वयन करेंगे, कि सभी उच्च शिक्षा संस्थाओं में शिक्षण का माध्यम हिंदी हो? क्या आप अपने पांच साल के कार्यकाल में आईआईटी-आईआईएमों का शिक्षण माध्यम हिंदी करवा पाएंगे?

प्राथमिक शिक्षा अब एक फलता-फूलता व्यवसाय बनता जा रहा है। अब गांवों तक में अंग्रेजी माध्यम के नर्सरी-किंटरगार्टन स्कूल खुलने लगे हैं। यहां सभी शिक्षा-शास्त्रियों और विद्वानों की सलाह का उल्लंघन करते हुए, 4-5 साल के बच्चों को एक विदेशी भाषा सिखाई जाती है। यह उम्र मातृभाषा, यानी हिंदी, पर अच्छी पकड़ प्राप्त करने की होती है क्योंकि बच्चे 5 वर्ष की उम्र में अपनी अधिकांश भाषाई क्षमता अर्जित करते हैं। इन बहुमूल्य वर्षों में उन्हें हिंदी न पढ़ाकर उन्हें उम्र भर के लिए भाषाई दृष्टि से पंगु बनाया जा रहा है। चूंकि अंग्रेजी हमारे देश के लिए विदेशी भाषा है और इन स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ानेवालों तक को ढंग की अंग्रेजी नहीं मालूम होती है, ये बच्चे कभी अंग्रेजी नहीं सीख पाते हैं, और हिंदी से भी वंचित रह जाते हैं, क्योंकि इन स्कूलों में हिंदी को प्रवेश ही नहीं है। शिक्षा के नाम पर इस घोटाले को रोकने के लिए आपकी पार्टी क्या करेगी? क्या वह यह कानून बनाएगी, कि प्राथमिक शिक्षण के लिए हिंदी ही माध्यम रखी जा सकती है, और अंग्रेजी माध्यम से प्राथमिक शिक्षण में संलग्न स्कूलों को बंद करवाएगी?

यदि उपर्युक्त कदम आप उठाते हैं, तो निहित स्वार्थों की तरफ से बहुत ही बड़ा बवाल मचेगा। अंग्रेजीदां लोग, बड़े-बड़े उद्योगपति जो अपना व्यवसाय अंग्रेजी के माध्यम से चलाते हैं, शिक्षा उद्योग में जिन लोगों ने भारी पैसा लगा रखा है, वे सब, आपके खून के प्यासे हो जाएंगे। आप उनसे कैसे निपटेंगे? कहीं उनसे रिश्वत आदि लेकर आप हथियार तो नहीं डाल देंगे?

चुनाव के दौरान हमें पार्टियों और उनके नेताओं से ऐसे सवाल पूछने चाहिए। चुनाव के बाद हमें इस पर निगरानी रखनी चाहिए कि जीतकर आई पार्टियां और उनके नेता उपर्युक्त नीतियों, कानूनों, योजनाओं और कार्यक्रमों को कहां तक लागू करते हैं। इससे उनके इरादों, निष्पादन आदि का सही मूल्यांकन हो सकेगा और अगले चुनाव में इनके रिपोर्ट कार्ड के अनुसार इन्हें वोट देना संभव हो सकेगा।

जनता को ऊपर बताई गई योजनाओं, नीतियों और कानूनों की सूची रखनी चाहिए और चुनावी पार्टियों को उनसे अवगत करना चाहिए। यह काम चुनाव के बहुत पहले ही होना चाहिए, ताकि ये विषय चुनावी मुद्दे बन सकें। इसके लिए जनता को अपने में से जानकार लोगों को चुनकर विस्तृत जन-कल्याणकारी योजनाओं का ब्योरा तैयार कराना चाहिए, ताकि नेताओं से उन पर अमल कराया जा सके।

अन्य गुट, जैसे उद्योगपति, विदेशी सरकारें, विदेशी कंपनियां, आदि ऐसा ही करते हैं। जब पार्टियां उनसे चुनाव के लिए पैसे मांगने जाती हैं, चेक पर हस्ताक्षर करने से पहले, ये सब सरकार से अपनी मांगें पेश करते हैं – कि हमें सरकारी नीतियों-कानूनों में यह-यह परिवर्तन चाहिए, करों में इतनी कटौती चाहिए, हमारे कारखाने तक सड़क या रेल बिछाई जाए, यहां बंदर बनवाया जाए, ताकि हमारे उत्पादों के निर्यात में आसानी हो, इत्यादि। कई तो आधा अभी, आधा काम होने के बाद की शर्त भी रखते हैं, यानी आधा पैसा अभी लो और आधा पैसा चुनाव जीतकर आने के बाद, हमारी मांगें पूरी करने के बाद, ले जाओ।

इसलिए पार्टियां और नेता गण इनकी मांगें पूरी करने में तत्पर रहते हैं, पर चूंकि जनता इस तरह की शर्तें नहीं रखती, इसलिए उसकी कोई भी मांगें पूरी नहीं की जातीं। अन्यथा ऐसा क्यों है कि आजादी के साठ साल बाद भी देश में व्यापक गरीबी, निरक्षरता, कुस्वास्थ्य, कुशासन आदि हैं, जबकि हमारे ही देश के साथ-साथ आजाद हुआ चीन महाशक्ति बन गया है और वहां पूर्ण साक्षरता, आदि के लक्ष्य कब के प्राप्त कर लिए गए हैं? साठ साल बाद भी ऐसा क्यों है कि हमारे न्यायालयों, उच्च शिक्षा संस्थानों और सरकारी दफ्तरों में अब भी अंग्रेजी चल रही है, जबकि मूल संविधान में 15 सालों में अंग्रेजी हटाने की बात कही गई थी?

कारण साफ है, नेताओं और पार्टियों ने उद्योगपतियों, विदेशी ताकतों, विदेशी कंपनियों आदि के एजेंडा को आगे बढ़ाने की ओर ज्यादा ध्यान दिया है, जनता के हित के लिए काम करने की ओर कम। अब समय आ गया है कि हम भी अपने हित की योजनाओं की मांग करें। हम अपनी मांग पैसे के बल पर नहीं मनवा सकते, वोट के बल पर शायद मनवा लें। (समाप्त)

Friday, March 20, 2009

राज ठाकरे - उत्तर भारतीयों के हितैषी

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) अध्यक्ष राज ठाकरे के बयानों के फलस्वरूप मुंबई, नासिक व महाराष्ट्र के अन्य शहरों में उत्तर भारतीयों पर जो हमले हो रहे हैं वे आजकल सभी मीडिया चैनलों की सुर्खियों पर छाए हुए हैं। अमर सिंह, लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार आदि उत्तर भारत के नेता भी अखाड़े में कूद पड़े हैं और राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुए हैं। कोई राज ठाकरे को बच्चा कह रहा है, कोई शैतान। गनीमत यही है कि स्वयं अमिताभ बच्चन ने, जिन पर राज ठाकरे के आक्षेपों से सारे कांड की शुरुआत हुई थी, बुद्धिमानीपूर्वक कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई है और इस तरह मामले को तूल देने में अपनी ओर से कोई योगदान नहीं किया है, यद्यपि जया बच्चन अपने कुछ बयानों से इस कसर को काफी हद तक पूरी कर चुकी हैं। अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं तथा टीवी चैनलों को भी इस मामले में खूब मजा आ रहा है क्योंकि कहीं भी हिंदी या हिंदी भाषियों का अहित होते देखकर उनकी बांछें खिल जाती हैं। पर जरा गहराई से विचार किया जाए तो राज ठाकरे हिंदी क्षेत्र का हितैषी ठहरते हैं।

अमिताभ बच्चन जैसे हिंदी भाषियों के प्रतीक-चिह्नों पर, स्वयं हिंदी भाषियों पर तथा उनके आर्थिक हितों पर किए गए हमलों से हिंदी भाषियों को अपनी जातीय एकता का एहसास होता है। देश के सभी अन्य भाषा-जातियों की तुलना में हिंदी भाषा में इस तरह की जातीय भावना की सर्वाधिक कमी है। यहां जाति शब्द ब्राह्मण, कुम्हार, मोची, चमार, बनिया आदि संकीर्ण अर्थ में व्यवहार नहीं किया गया है, वरन अंग्रेजी शब्द नेशनैलिटी के हिंदी पर्याय के रूप में किया गया है। भारत की राष्ट्रीय चेतना अनेक भाषा-जातियों की चेतना का सम्मिलित रूप है। डा. रामविलास शर्मा ने अपनी कई किताबों में इस बात को काफी मेहनत से और काफी विस्तार से समझाया है। देखिए उनकी भाषा और समाज, हिंदी भाषा की समस्याएं, आदि किताबें (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली)। जातीय भावना के अभाव में हिंदी भाषी उसी तरह संगठित तरीके से अपना हित नहीं साध पाते हैं जिस तरह तमिल, मराठी या बंगाली। हिंदी भाषी अनेक राज्यों, दलों और संप्रदायों में बंटे रहकर अपनी शक्ति गंवा बैठे हैं। हालांकि हिंदी भाषी संख्या में और भौगोलिक विस्तार में भारत का सबसे विशाल जातीय समूह हैं और उनकी भाषा का विश्व में चीनी और अंग्रेजी के बाद तीसरा स्थान है, फिर भी इस देश में उन की एक नहीं चलती – असम जैसे राज्यों में उनका कत्लेआम होता है, तथा मुंबई जैसी महानगरी में वे खुलेआम पिटते हैं। इसका मुख्य कारण हिंदी भाषियों में संगठन की कमी है, जो उनमें जातीय भावना की कमी का ही परिणाम है।

इस जातीय भावना की कमी के कारण हिंदी क्षेत्र के नेता बिना सोचे-समझे अपनी ही भाषा-जाति का अहित कर बैठते हैं। हिंदी क्षेत्र दिन पर दिन अधिकाधिक नए राज्यों में बंटकर अपनी शक्ति खोता जा रहा है। अब उत्तर प्रदेश की दलित मुख्य मंत्रि मायावती पहले से ही टूटे हुए उत्तर प्रदेश को और चार टुकड़ों में बांटने की बात कर रही हैं। इसके विपरीत डा. रामविलास शर्मा ने संपूर्ण उत्तर भारत को, यानी संपूर्ण हिंदी भाषी क्षेत्र को, एक राजनीतिक इकाई बनाने की सिफारिश की थी, उसी तरह जैसे आज संपूर्ण मराठी भाषी क्षेत्र महाराष्ट्र के अंतर्गत या संपूर्ण तमिल क्षेत्र तमिलनाड के अंतर्गत संगठित किया गया है। रामविलास जी ने इस बात पर खूब खेद प्रकट किया है कि जहां भारत के बाकी हिस्सों में तो भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की नीति अपनाई गई, लेकिन हिंदी भाषी क्षेत्र में नहीं। इससे हिंदी भाषियों के जातीय विकास में बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न हुई है।

दिलचस्प बात यह है कि जहां हिंदी भाषी स्वयं अपनी जातीय पहचान से बेखबर हैं, अन्य भाषा बोलनेवाले हिंदी जाति के अस्तित्व से भली-भांति परिचित हैं और उससे कुछ-कुछ आतंकित भी रहते हैं। राज ठाकरे के बयान इसका नवीनतम प्रमाण हैं। हिंदी क्षेत्र के बाहर के नेता इसलिए परेशान हैं कि अन्य सभी भाषाओं की तुलना में हिंदी बोलनेवाले संख्या में तथा भौगोलिक विस्तार में बहुत ही बड़े लगते हैं। इससे उन्हें लगता है कि कहीं हिंदी उन पर हावी न हो जाए। पर यह मात्र एक हौवा है। असली डर है अंग्रेजी द्वारा सभी अन्य भाषाओं का हक मारा जाना। इस बात को ठीक तरह से न समझने के कारण ही ये नेता हिंदी के विरुद्ध आंदोलन करते रहते हैं और अंग्रेजी के विरुद्ध कभी कुछ नहीं बोलते। इससे अंग्रेजी को चुपके से उनके क्षेत्र में पांव फैलाकर उनकी भाषाओं को कमजोर करने का मौका मिल जाता है। यह कुछ-कुछ उसी तरह हो रहा है जैसे औपनिवेशिक काल में भारतीय राजा असली दुश्मन अंग्रेजों से न लड़कर आपस में लड़ते रहे थे और अंग्रेज चुपके से एक-एक करके उन्हें हराते हुए पूरे देश की छाती पर चढ़ बैठने में सफल हो गए थे। इसी तरह आज अंग्रेजी ने सभी भारतीय भाषाओं को दोयम स्तर पर उतार दिया है। किसी भी राज्य में, चाहे वह तिमलनाड हो या बंगाल या महाराष्ट्र प्रशासन, उच्च शिक्षा, व्यवसाय, न्यायालय आदि में वहां की भाषा का प्रयोग नहीं होता है। सभी जगह अंग्रेजी ही विराजमान है। रामविलास जी ने इस कटु सत्य की ओर भी अपनी पुस्तकों में इंगित किया है। उनकी सलाह है कि सभी भाषाओं को संगठित होकर अंग्रेजी के विरुद्ध मोर्चा चलाना चाहिए, तभी इस देश में अंग्रेजी का प्रभाव कम होगा।

रामविलास जी हिंदी क्षेत्र के ही नहीं समूचे भारत के इस शताब्दी के सर्वोच्च विचारक हैं। उन्हें प्राचीन काल के महान ऋषियों की परंपरा में रखना चाहिए। अट्ठासी वर्ष के दीर्घ जीवनकाल में उन्होंने निरंतर चिंतन-मनन करते हुए एक के बाद एक उत्कृष्ठ ग्रंथ रचे हैं जिनमें उन्होंने आधुनिक भारत की सभी प्रमुख समस्याओं पर गहराई से विचार करके अत्यंत व्यवहारिक और सर्वहितकारी समाधान सुझाए हैं। उनकी अचूक कसौटी रही है मार्क्सवादी दर्शन, जिसके आधार पर ही वे सभी समस्याओं को परखते हैं। मार्क्सवादी दर्शन में उनकी पैठ इतनी गहरी है कि वे स्वयं मार्क्स और ऐंजेल्स की गलतियों, खामियों और असंगतताओं पर खुलकर चर्चा करने का साहस रखते हैं। पर मार्क्स के प्रति उनकी अनन्य भक्ति है क्योंकि मार्क्स का दर्शन शक्तिहीनों को शक्ति देता है और मानव समाज की असमानताओं को दूर करता है, यही रामविलास जी के संपूर्ण जीवन का भी ध्येय रहा है।

रामविलास जी के लेखन का एक सकारात्मक पहलू यह है कि हालांकि वे समाज की बड़ी-बड़ी और असाध्य सी लगनेवाली समस्याओं पर विचार करते हैं, फिर भी कहीं भी आशाहीनता, आत्मघात, प्रतिशोध, आदि नकारात्मक भावनाओं को बढ़ावा नहीं देते। सदा आशावादी रहते हुए वे व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने लगभग 80 बड़े-बड़े ग्रंथ रचे हैं जिनमें उन्होंने सांप्रदायवाद, हिंदी की जातीय अस्मिता, हिंदी उर्दू का मसला, हिंदी साहित्य, हिंदी साहित्यकारों का सही मूल्यांकन, पाश्चात्य विद्वानों द्वारा नस्लवाद से प्रेरित होकर फैलाए गए अनेक भ्रांत धारणाओं का खंडन जैसे विषय लिए हैं।

पाश्चात्य विद्वानों ने अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के लिए नैतिक आधार तैयार करने की दृष्टि से तथा नस्लवादी विचारधारा से अंधे होकर भारत, भारत की भाषाएं, भारतीय संस्कृति और सभ्यता के बारे में अनेक भ्रांत धारणाएं फैलाई थीं। ये धारणाएं आज भी हमारे चिंतन, विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों तथा विचारकों को गुमराह कर रही हैं। इन भ्रांत धारणाओं से छुटकारा पाकर नए सिरे से हमारी भाषाओं, सभ्यता, संस्कृति आदि पर विचार करने की बहुत बड़ी आवश्यकता है। रामविलास जी पिछले 60-70 वर्षों से यही करते आ रहे थे।

हमारे देश में आज भी बच्चे स्कूलों में ऐसी भ्रांत धारणाएं सीखते हैं, जैसे, आर्य बाहर से भारत में आए, आर्यों ने द्रविड़ों को जीतकर उन्हें गुलाम बनाया, दक्षिण और उत्तर भारत में नस्लीय वैमनस्य है, हिंदी आदि भाषाएं संस्कृत की पुत्रियां हैं, संस्कृत लैटिन, ग्रीक आदि यूरोपीय भाषाओं से प्रभावित हुई है, ऋग्वेद भारत के बाहर कहीं लिखा गया था, आर्यों का मूल स्थान कहीं मध्य एशिया में था, इत्यादि। रामविलास जी ने इन सब तथा इस तरह की अनेक अन्य धारणाओं को भ्रांत, नस्लवाद-प्रेरित और भारतीय सभ्यता के समुचित विकास के लिए हानिकारक सिद्ध किया है।

उदाहरण के लिए, रामविलास जी ने अनेक अकाट्य तर्कों से प्रमाणित किया है कि आर्य लोग कहीं और से भारत नहीं आए हैं, बल्कि भारत के ही मूल निवासी हैं। रामविलास जी ने अंतिम दस वर्ष भाषा-विज्ञान पर गहन अध्ययन करते हुए बिताया। उन्होंने भाषा-विज्ञान को पाश्चात्य प्रभाव से मुक्त करके पाणिनी, किशोरीदास वाजपेयी जैसे भारतीय विद्वानों द्वारा प्रशस्त किए गए देशी मार्गों की ओर पुनः मोड़ने का भरसक प्रयास किया है। रामविलास जी मानते हैं कि ग्रीक, लैटिन, जर्मन आदि समेत अनेक यूरोपीय भाषाएं संस्कृत, हिंदी, तमिल आदि भारतीय भाषाओं से खूब प्रभावित हुई हैं। जर्मन की तुलना में रूसी तथा अन्य स्लाव भाषाएं संस्कृत और भारत की अन्य भाषाओं के अधिक निकट हैं। उनके अनुसार यह धारणा गलत है कि भारत की आधुनिक भाषाएं संस्कृत की पुत्रियां हैं। इसके विपरीत रामविलास जी कहते हैं कि संस्कृत तथा सभी भारतीय भाषाएं एक ही स्तर की भाषाएं हैं, यानी अन्य भारतीय भाषाएं भी संस्कृत जितनी ही पुरानी हैं। जिस तरह हिंदी क्षेत्र की अनेक बोलियों (ब्रज, भोजपुरी, मैथिली, अवधी, आदि) में से निकलकर हिंदी समस्त हिंदी क्षेत्र की संपर्क भाषा बन गई है, उसी तरह संस्कृत भी उत्तर भारत की अनेक बोलियों में से एक थी जो समस्त क्षेत्र की प्रमुख भाषा बन गई है। इसी तरह आधुनिक यूरोपीय भाषाएं लैटिन की पुत्रियां न होकर स्वतंत्र भाषाएं हैं जिनका अस्तित्व उतना ही पुराना है जितना लैटिन का है।

ऋग्वेद के संबंध में भी रामविलास जी की अपनी धारणाएं हैं। वे उसे आध्यात्मिक कम और सामाजिक दस्तावेज अधिक मानते हैं। उसमें उन्हें आदिम समाजवाद के स्पष्ट लक्षण मिलते हैं। ऋग्वेद के ऋषि शारीरिक मेहनत से परहेज न करते थे, और उनमें जातिभेद न था। वे कुम्हार, कृषक, लुहार, बढ़ई आदि सभी पेशे में संल्गन रहते हुए ऋचाएं रचते हैं। स्वयं ऋषि शब्द की रामविलास जी ने बहुत ही रोचक व्युत्पत्ति बताई है। उनके अनुसार यह कृष धातु से बना है जिसका मतलब होता है, खींचना, अर्थात खेत में हल खींचना। जो यह काम करता है वह हुआ ऋषि, अर्थात, ऋषि का मतलब है किसान! ऋग्वेद के सर्वहारापन का इससे बढ़कर क्या प्रमाण हो सकता है!

आजकल के संकीर्णदृष्टिवाले नेता देश को धर्म, संप्रदाय, भाषा, जाति आदि के नाम पर बांटने पर तुले हैं। रामविलास जी ने सही दिशा दिखाई है कि देश के विभिन्न धर्मों, भाषाओं, संप्रदायों और जातियों को एक करके मजबूत राष्ट्र का निर्माण करने का एकमात्र तरीका भाषा-जातियों के आधार पर समुदायों को संगठित करना है। धर्म, संप्रदाय, जाति आदि संकीर्ण दायरों को लांघकर भाषा लोगों को जोड़ती है। उदाहरण के लिए, हिंदी बोलनेवालों में हिंदू भी हैं, मुसलमान भी, सिक्ख भी, इसाई भी, किसान भी उद्योगपति भी, महिलाएं भी पुरुष भी, अमीर भी गरीब भी। इस तरह हिंदी के मंच पर इन सबको संगठित किया जा सकता है। यही एकमात्र शक्ति है जो आजकल की राजनीतिक दलों द्वारा फैलाए जा रहे सांप्रदायिक विष को निरस्त कर सकती है।

तमिल, बंगला आदि भाषाओं ने भाषा के आधार पर अपनी जाति का संगठन भली-भांति कर लिया है। पीछे रह गया है सिर्फ हिंदी जाति का क्षेत्र, जो अज्ञान, फूट, अशिक्षा, कुस्वास्थ आदि के कुहरे तले तड़प रहा है। उसे ऊपर उठाने के लिए सभी हिंदी भाषियों में जातीय चेतना जगाना बहुत जरूरी है। आज हिंदी भाषियों को बिहारी, हरियाणवी, उत्तर प्रदेशी, झारखंडी आदि अनेक खेमों में बांटकर उनको कमजोर करने की साजिश रची जा रही है। जरूरत है सभी हिंदी भाषियों को एक करने की। यदि पचास करोड़ हिंदी भाषी एक हो जाएं, तो दुनिया की कोई भी ताकत भारत को कमजोर नहीं कर पाएगी।

राज ठाकरे ने हिंदी भाषियों की जातीय चेतना जगाकर उन्हें एक करने में योगदान किया है। इसके लिए हमें उनके प्रति आभार प्रकट करना चाहिए।

Wednesday, March 18, 2009

अच्छा तालिबान, बुरा तालिबान

ओबामा सरकार अमरीका की अफगान नीति को नए सिरे से गढ़ रही है। जो छिटपुट खबरें आ रही हैं, उनसे ऐसा मालूम पड़ रहा है कि अमरीका अफगानिस्तान में लंबे युद्ध में फंसने से बचने के लिए तालिबान से समझौता करने की दिशा में कदम बढ़ा रहा है।

अमरीका के ट्विन टावर पर विमान-बम से हमला करके लगभग 5,000 अमरीकियों की जान लेने वाले अलकायदा का तालिबान के साथ चोली-दामन का रिश्ता है। इस तालिबान से अमरीका भली-भांति परिचित है। अफगानिस्तान से सोवियतों को खदेड़ने के लिए अमरीका ने ही इसे हथियारों से लैस किया था।

तालिबान का दूसरा संरक्षक अमरीका का ही मित्र पाकिस्तान है। उसका खुफिया संगठन आईएसआई और स्वयं पाकिस्तानी सेना तालिबान को अपना धर्म-भाई मानते हैं। भारत के साथ युद्ध होने पर पाकिस्तान अफगानिस्तान को भौगोलिक गहराई प्राप्त करने के लिए उपयोग करना चाहता है। इसलिए अफगानिस्तान में तालिबानी सरकार स्थापित करना उसकी रणनीति का एक अंग है। दुर्भाग्य से नायन-लेवन के बाद उसे इस रणनीति को ताक पर रखकर अमरीकी दबाव में तालिबान पर ही बंदूक तानना पड़ा है। पर परोक्ष रूप से तालिबान को समर्थन देना पाकिस्तान ने कभी नहीं छोड़ा।

नायन-लेवन के बाद अमरीका ने अपने पुराने युद्ध साथी तालिबान पर हमला बोल दिया और उसे काबुल से खदेड़ दिया। संकट के इस पल में तालिबान के लिए यह स्वाभाविक था कि वह पाकिस्तान में शरण ले। पहले तालिबान अफगानिस्तान-पाकिस्तान की सरहद की बीहड़ पहाड़ियों तक सीमित रहा, परंतु धीरे-धीरे वह पाकिस्तान भर में अपना प्रभाव बढ़ाता गया। नवीनतम खबर यह है कि पाकिस्तान की स्वात घाटी उसके कब्जे में आ गई है। अब लगभग आधे पाकिस्तान पर उसका कब्जा है, और ऐसा माना जा रहा है कि जल्द ही कराची, पेशावर, रावलपिंडी, इस्लामाबाद, और लाहौर, यानी लगभग संपूर्ण पाकिस्तान में उसकी तूती बोलेगी।

तालिबान के साथ लड़ाई में अमरीका ने एक गंभीर गलती की। नयन-लेवन के बाद उसने तालिबान को काबुल में गद्दी से उतार तो दिया, पर मसले का पूर्ण समाधान होने से पहले ही ईराक पर हमला करके अपने ऊपर दो-दो युद्धों का भार थोप लिया। यह दूसरा युद्ध खाड़ी के तेल संसाधनों पर अमरीकी प्रभाव बनाए रखने के लिए था। दो-दो युद्ध एक साथ लड़ने से अमरीका की शक्ति बंट गई। समस्त मुस्लिम जगत में अमरीका के प्रति घृणा की भावना तेज हो गई। इससे तालिबान को मुस्लिम देशों से आर्थिक और नैतिक समर्थन प्राप्त होने लगा।

चीन, जो बड़ी तेजी से महाशक्ति के रूप में उभर रहा है, भली-भांति समझता है कि अमरीका द्वारा ईराक में युद्ध छेड़ने का उद्देश्य वहां के तेल संसाधनों को अमरीकी कब्जे में रखना है। यह चीन को मंजूर नहीं है क्योंकि वह स्वयं इस संसाधन को अपने प्रभाव में लाना चाहता है। पर चीन अमरीका से सीधा वैर मोल नहीं ले सकता था। इसलिए अमरीका को कमजोर करने के इरादे से उसने तालिबान को समर्थन बढ़ा दिया।

उधर नायन-लेवन के बाद पाकिस्तानी सेना को अमरीकी दबाव में आकर अपने धर्म-भाइयों पर ही सैनिक कार्रवाई करनी पड़ी। इससे पाकिस्तानी सेना की साख न केवल तालिबानों में गिरी, बल्कि पाकिस्तान की जनता भी अपनी सेना को विश्वासघाती के रूप में देखने लगी। वह सवाल करने लगी, पाकिस्तानी सेना अमरीका का युद्ध क्यों लड़े और तालिबान को क्यों मारे, जो आखिर मुसलमान ही तो हैं?

इस सवाल का सीधा सा जवाब यह है कि पाकिस्तानी सेना को इसके बदले अरबों डालर मिल रहे हैं, जिसके बिना पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था कब की लुढ़क चुकी होती। पर यह बेबाक उत्तर पाकिस्तानी जनता को कैसे दिया जा सकता था? अतः आईएसआई और पाकिस्तानी सेना एक दोगली नीती पर चलने लगी जिसे अंग्रेजी कहावत रनिंग विथ द हेर एंड हंटिंग विथ द डोग्स के रूप में अच्छी तरह व्यक्त किया जा सकता है। यह नीति कुछ यों थी -- पाकिस्तानी सेना अमरीका से तो कहती गई कि वह अफगान युद्ध में उसका साथी है, और अमरीका से अरबों डालर इसके एवज में ऐंठती रही, पर जब तालिबान से लड़ने की बारी आई तो वह खोमोश बैठी रही।

नतीजा यह हुआ कि तालिबान को पाकिस्तान में बेरोकटोक अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर मिल गया। अब ऐसा लगता है कि उसकी शक्ति इतनी बढ़ चुकी है कि वह पाकिस्तानी सेना या आईएसआई के नियंत्रण के बाहर हो चुका है। इतना ही नहीं पाकिस्तानी सेना के निचले स्तर के जवान तालिबानी संस्कृति में इतने रंग गए हैं कि वे तालिबान पर कभी हथियार नहीं उठा सकते। वे एक तरह से तालिबान के ही सदस्य जैसे हो गए हैं। यदि पाकिस्तानी फौज के आला अफसर तालिबान के विरुद्ध कार्रवाई का हुक्म भी दें, तो निचले स्तर के पाकिस्तानी जवान इस हुक्म की तामील न करें।

इस तरह अमरीका की मूर्खता, चीन की कूटनीति और पाकिस्तानी सेना और आईएसआई की मिली भगत से तालिबान इतना मजबूत हो गया है कि अब उसे अमरीका के लिए हरा पाना लगभग असंभव है।

अब भेद नीति ही बची रह गई है। नए अमरीकी राष्ट्रपति ने इसी का सहारा लेना तय किया है। अमरीका द्वारा अच्छे तालिबान और बुरे तालिबान में अंतर करने के पीछे यही रहस्य है। जो तालिबान अमरीकी डालरों के लिए बिकने को तैयार हैं, वे अच्छे तालिबान, और जो लड़ने पर उतारू हैं, वे बुरे तालिबान। अमरीका तालिबान को भीतर से तोड़कर कमजोर करना चाहता है। तालिबान विभिन्न अफगान कबीलों से बना है, जिनमें आपसी फूट भी है। अमरीका इस फूट का लाभ उठाकर उनमें से कुछ कबीलों को अपने साथ मिलाना चाहता है।

शायद पाकिस्तान ने ही अमरीका को यह पाठ पढ़ाया है। जब जनरल कियानी हाल में वाशिंगटन गया था, उसने अमरीका को साफ-साफ बता दिया होगा कि उसकी सेना के लिए अब तालिबान को अंकुश में रखना संभव नहीं है। हो सकता है कि पाकिस्तान ने यह भी कहा हो कि स्वयं पाकिस्तानी राज्य को तालिबान से खतरा है। पाकिस्तानी राष्ट्रपति जरदारी तो बारबार कह ही रहे हैं कि पाकिस्तान में तालिबान कभी भी सत्ता-पलट कर सकता है। पीकिस्तान में स्थिति के इस हद तक बिगड़ने से अमरीका घबरा उठा होगा क्योंकि यदि पाकिस्तन पर तालिबान का कब्जा हो जाए, उसके हाथों में पाकिस्तान का परमाणु बम भी आ जाएगा। परमाणु बम हाथ लगते ही तालिबान सचमुच अजेय हो जाएगा और अमरीका को अफगानिस्तान छोड़कर भागना पड़ेगा। यह सामरिक दृष्टि से अमरीका की करारी हार होती क्योंकि अफगानिस्तान से वह ईरान, चीन, रूस और भारत जैसे बड़े बड़े देशों को नियंत्रण में रखने की मंशा रखता है।

अफगानिस्तान से अमरीकी प्रभाव समाप्त होने के बाद ईरान और तालिबान के बीच मेल-जोल बढ़ सकता है। इससे खाड़ी क्षेत्र के अमरीका के अन्य मित्र देशों को भारी खतरा पैदा हो जाएगा। इनमें प्रमुख है इजराइल। दूसरी ओर अमरीका के इस क्षेत्र से पलायन करते ही ईरान और तालिबान को चीन अपनी छत्रछाया में ले लेगा, जिससे इस भूभाग के विशाल तेल संपत्ति पर उसका नियंत्रण हो जाएगा।

इस सब घटनाचक्र से भारत सब ओर से घाटे में रहेगा। पाकिस्तान पर तालिबान का कब्जा होने पर कश्मीर के अलगाववादियों में नया जोश भर जाएगा। उधर पाकिस्तान से शरणार्थी भारी मात्रा में भारत में घुसने लगेंगे। तालिबान के हाथों परमाणु बम आने से काबुल में अमरीका-पोषित वर्तमान सरकार गिर जाएगी और तालिबान वहां सत्ता संभाल लेगा। इससे अफगानिस्तान से भारतीय प्रभाव एक बार फिर समाप्त हो जाएगा। भारत की पश्चिमी सरहद पर पाकिस्तान से भी ज्यादा भारत से शत्रुता रखनेवाला तालिबान नजर आने लगेगा जिसका भारत के एक अन्य शत्रु चीन के साथ बड़े ही मधुर संबंध होंगे। इस संबंध का प्रयोग करके चीन भारत पर दबाव डालने लगेगा। संभव है कि भारत को कमजोर स्थिति में पाकर वह अरुणाचल आदि के संबंध में प्रतिकूल संधियां भी करा ले। खाड़ी प्रदेश में चीन, ईरान और तालिबान का प्रभाव बढ़ने से भारत को वहां से तेल मिलने में कठिनाई का समाना करना पड़ सकता है।

पर बात यहां तक आकर नहीं रुकेगी। अफगानिस्तान और पाकिस्तान पर अपना राज्य स्थापित करके तालिबान शांत नहीं होगा, बल्कि विजय दर्प में भारत, अमरीका, इजराइल आदि पर हमले करने की भी कोशिश करेगा, क्योंकि उसे चीन और ईरान के समर्थन का भरोसा होगा। इससे तृतीय विश्व युद्ध की नौबत आ सकती है।

इसलिए तालिबान से खिलवाड़ करने से पहले अमरीका को दो बार सोच लेना चाहिए। यदि वह इतिहास से कुछ सीखना चाहे, तो द्वितीय विश्व युद्ध में भी ब्रिटन आदि पश्चिमी देशों ने नाजी जर्मनी के साथ ऐसे ही समझौते किए थे और हर समझौते से हिटलर और मजबूत हो उठा था। अंत में उसने सारे यूरोप में अपनी सेनाएं भेजकर भयंकर नरसंहार मचा दिया था।

अब लगता है कि अमरीका वही पुरानी गलती दुहरा रहा है। स्थिति वही है केवल खिलाड़ियों ने स्थान बदल लिए हैं। नाजी जर्मनी की जगह तालिबान है, नाजियों से समझौते करनेवाले ब्रिटेन की जगह अमरीका है, युद्ध के लगभग अंत तक तटस्थ रहते हुए अपनी शक्ति बरकरार रखनेवाले अमरीका की जगह चीन है। यदि युद्ध छिड़ जाए, तो जिस तरह जर्मनी और ब्रिटन दोनों ही तबाह हुए थे, वैसे ही तालिबान और अमरीका और उसके मित्र देश तबाह हो जाएंगे, और इस विध्वंस से चीन उसी तरह अधिक शक्तिशाली होकर उभरेगा जैसे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमरीका उभरा था।

इस तरह ऐसा लगता है कि आनेवाले वर्षों में भारी उथल-पुथल मचने वाला है जो दुनिया के नक्शे को ही और वर्तमान शक्ति-संतुलन को ही बदलकर रख देगा। द्वितीय विश्व युद्ध के विजेताओं ने अपने पक्ष में जो तंत्र रचा था, लगता है, उसका समय अब बीतने वाला है। उसकी जगह एक नया शक्ति संतुलन आ सकता है जिसमें चीन का स्थान सर्वोपरि होगा। (समाप्त)

Sunday, March 15, 2009

हिंदी के बढ़ते कदम

भारत के निवासियों और खास करके हिंदी भाषियों के लिए एक खुश-खबरी है। देश की राजभाषा हिंदी अब धीरे-धीरे, पर दृढ़ता से, एक विश्वभाषा के रूप में उभर रही है। इसके साथ ही एक और अच्छी बात देखने में आ रही है -- भारत में ही नहीं, बल्कि सारे विश्व में, अंग्रेजी का प्रभाव कम हो रहा है।

यदि आप भारत के प्रधान मंत्रियों में अंग्रेजी की कुशलता देखें, तो यह बात काफी स्पष्ट हो जाएगी। नेहरू जी अपने समय के श्रेष्ठतम अंग्रेजी लेखक और वक्ता माने जाते थे (सारी दुनिया में)। उनके बाद आए कितने ही प्रधान मंत्री अंग्रेजी बहुत ही कम जानते थे या बिलकुल नहीं जानते थे - लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, चरण सिंह, राजीव गांधी, मोरारजी देसाई, देव गोडा, इत्यादि। संभवतः भावी प्रधान मंत्री मायावती के बारे में यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि वे अंग्रेजी बिलकुल ही नहीं जानतीं। और मायवती अंग्रेजी के सामने हाथ फैलाने का प्रयत्न कभी नहीं करतीं। वे अपने खास दबंग अंदाज में पूरे आत्म विश्वास के साथ हिंदी में ही दुनिया के सामने अपने विचार प्रकट करती हैं।

सचाई यह है कि देश से अंग्रेजी का धीरे-धीरे पराभव हो रहा है। राष्ट्रीय राजकाज में अब उत्तरोत्तर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का प्रयोग बढ़ रहा है, भले ही नौकरशाही तंत्र द्वारा ये भाषाएं उपेक्षित हैं। व्यवसाय भी भारतीय भाषाओं का महत्व समझ रहा है, विशेषकर विदेशी कंपनियां। वे अपना प्रचार उत्तरोत्तर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में करने लगी हैं क्योंकि वे जानती हैं कि यदि अपना माल गांवों में बेचना है, तो अंग्रेजी से काम न बनेगा।

हिंदी फिल्मों, फिल्मी गानों, टीवी चैनलों, रेडियो आदि के कारण देश में हिंदी बड़ी तेजी से पांव फैला रही है। साठ साल से देश में एक समेकित बाजार होने से और देश के विभिन्न भागों के बीच संपर्क बढ़ने से देशी भाषाओं और खास करके हिंदी का महत्व बढ़ गया है और लोग स्वेच्छा से हिंदी सीख रहे हैं। जब किसी मलयाली को किसी पंजाबी से बातचीत करनी होती है और वह मध्यम या निम्न तबके का हो, तो वह हिंदी का ही प्रयोग करता है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि इस देश में अमीर वर्ग के लोगों से ज्यादा मध्यम और निम्न वर्ग के लोग हैं।

अखबारों को देखें तो देश ही नहीं विश्व भर में सबसे अधिक पढ़ा जानेवाला अखबार हिंदी अखबार दैनिक जागरण है। दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, आदि अन्य हिंदी अखबार उससे कुछ ही कदम पीछे हैं। अंग्रेजी अखबार कहीं नजर नहीं आते। उनके तो पाठक वर्ग निरंतर घट रहे हैं।

टीवी चैनलों को देखें, तो आज तक, समय आदि चैनलों के सामने टाइम्स नाऊ, एनडीटीवी आदि अंग्रेजी चैनलों के टीआरपी रेटिंग कहीं कम हैं। इनमें से अधिक बुद्धिमान चैनलों ने अपने हिंदी चैनल शुरू कर दिए हैं। जबसे कार्टून नेटवर्क, डिस्कवरी, नेशनल ज्योग्राफिक, अनिमल प्लेनेट आदि ने अपने कार्यक्रम हिंदी में देना शुरू किया है, उन्हें देखनेवालों की तादाद दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है। पत्रिकाओं ने भी यही रास्ता अपनाया है। इंडिया टुडे, संडे अबसर्वर, आउटलुक आदि अंग्रेजी पत्रिकाओं ने हिंदी संस्करण भी निकाले हैं, जो उन्हीं के अंग्रेजी संस्करणों से ज्यादा ही बिकते हैं, कम नहीं। उदाहरण के लिए हिंदी इंडिया टुडे की 1,07,000 प्रतियां बिकती हैं, जबकि उसी के अंग्रेजी संस्करण की मात्र 76,000।

हां यह जरूर है कि शिक्षा तंत्र (विशेषकर उच्च शिक्षा), नौकरशाही, न्यायतंत्र और व्यवसाय (बिक्री, विज्ञापन और विपणन को छोड़कर) अंग्रेजी के गढ़ बने हुए हैं, पर ये गढ़ बहुत जल्द ढहनेवाले हैं। जैसे-जैसे हिंदी भाषी क्षेत्र में साक्षरता और समृद्धि बढ़ेगी, वहां अच्छे विद्यालयों, कालेजों, पुस्तकों आदि की मांग बढ़ेगी और इन सबसे हिंदी का प्रचार-प्रसार भी होगा। केंद्र सरकार ही नहीं, हिंदी भाषी क्षेत्रों की सरकारें भी निरक्षरता मिटाने के लिए काफी धन व्यय कर रही हैं। सर्व साक्षरता अभियान राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार आदि में काफी सफल रहा है और वहां साक्षरों की तादाद में भारी इजाफा हुआ है। कुछ ही वर्षों में इन हिंदी प्रदेशों में साक्षरों की दर केरल, तमिल नाड आदि के स्तर तक पहुंच जाएगी, यानी लगभग पूर्ण साक्षरता के स्तर पर आ जाएगी। तब हिंदी पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, स्कूलों आदि की बड़ी मांग होगी। अनेक प्रबुद्ध अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक प्रकाशकों ने इसे अभी से भांप लिया है। पेंग्विन इंडिया अब हिंदी में भी पुस्तकें प्रकाशित करने लगा है। हैरी पोटर की किताबों के हिंदी संस्करण भारत में उनके अंग्रेजी संस्करणों से कहीं अधिक बिके हैं।

यही बात होलीवुड की फिल्मों के बारे में भी कही जा सकती है। जबसे वे हिंदी में डब की जाने लगी हैं, वे भारत में हिंदी फिल्मों से भी ज्यादा कारोबार कर रही हैं। पहले जब वे केवल अंग्रेजी में भारत में रिलीज होती थीं, उन्हें बिरले ही कोई देखता था, और वह भी दिल्ली-मुंबई जैसे बड़े शहरों में ही। अब उन्हीं फिल्मों के हिंदी संस्करण छोटे कस्बों तक में देखे जा रहे हैं।

अंग्रेजी यदि यहां अंग्रेजों के जाने के बाद भी बनी हुई है तो इसका मुख्य कारण यह है कि आजादी के समय भारत ने विदेशी पूंजी के साथ और अंग्रेजों के वर्ग-समर्थकों के साथ पूर्णतः संबंध विच्छेद नहीं किया और अंग्रेजों के द्वारा स्थापित नौकरशाही तंत्र, न्याय प्रणाली, शिक्षा प्रणाली आदि को जारी रहने दिया। पर जैसे-जैसे इन संस्थाओं का देशीकरण होने लगेगा, अंग्रेजी भी जाती रहेगी। आखिर लोकतंत्र का अर्थ ही यह है कि हर क्षेत्र में देशी भाषाओं, देशी रीति-नीतियों का पूर्ण प्रयोग हो। भारत में भी जब लोकतंत्र सच्चे अर्थों में सर्वव्यापी हो जाएगा, यहां भी न्याय-तंत्र, उच्च शिक्षा, नौकरशाही, व्यवसाय आदि में अंग्रेजी के लिए कोई स्थान नहीं रह जाएगा। राजनीतिक सत्ता तंत्र से अंग्रेजी की अर्थी पहले ही उठ चुकी है। धीरे-धीरे नौकरशाही, न्यायतंत्र, उच्च शिक्षा, व्यवसाय आदि से भी उठ जाएगी। इसमें कुछ वक्त जरूर लग सकता है।

उधर विश्व मंच में भी अंग्रेजी का पतन शुरू हो गया है। अंग्रेजों का साम्राज्य मिटते ही अंग्रेजी भी अब एक मात्र विश्व भाषा नहीं रह गई है। जर्मनी, चीन, रूस, जापान आदि के महाशक्तियों के रूप में उभरने से और गलत नीतियों और दंभ के चलते अमरीका के नपुंसक हो जाने से विश्व भाषा की पदवी के लिए ये भाषाएं भी दावेदारी करने लगी हैं। हिंदी भी एक दावेदार है। आज हिंदी 700 करोड़ लोगों द्वारा बोली जाती है और 20 से अधिक देशों में उसका चलन है।

इसलिए अंग्रेजी के हौव्वे से डरने की जरूरत नहीं है। एक अंग्रेजी कहावत के शब्दों में कहें, तो वह मिट्टी के पैरोंवाला राक्षस है। अंग्रेजी का रोना रोते रहने के बजाए हमें अपनी भाषाओं के प्रयोग को बढ़ाने की ओर ध्यान देना चाहिए। अपने बच्चों को हिंदी सिखानी चाहिए, क्योंकि जब तक वे बढ़े होंगे, हिंदी इतनी महत्वपूर्ण हो चुकी होगी, कि उन्हें अपने हिंदी ज्ञान का भरपूर फायदा मिलेगा।

Tuesday, March 10, 2009

पाकिस्तानी बम पर गढ़ी है तालिबानी नजर

तालिबान के कब्जे में पाकिस्तानी परमाणु अस्त्र का आना एक गंभीर और वास्तविक खतरा है, जिसके भारत के लिए और समस्त दुनिया के लिए दूरगामी परिणाम होंगे।

रणनीतिक दृष्टि से देखें, तो अमरीका से पिंड़ छुड़ाने के लिए तालिबान के पास पाकिस्तानी बम पर कब्जा करने के सिवा और कोई विकल्प रह भी नहीं गया है, क्योंकि वह अमरीका के साथ सीधी लड़ाई जीत नहीं सकता। इसलिए वह परमाणु बम प्राप्त करने की ओर पुर-जोर कोशिश करेगा।

पाकिस्तानी बम तालिबान के हाथ पड़ते ही अमरीका को अफगानिस्तान छोड़कर भागना पड़ेगा। अमरीका कभी भी परमाणु बम के खतरेवाले युद्ध में अपने सैनिकों को नहीं उतारेगा। वह युद्ध भूमि में अपने सैनिकों की इतनी मौतें कभी बर्दाश्त नहीं कर सकेगा।

पाकिस्तानी बम तालिबानों के हाथ लगते ही, पाकिस्तानी सेना में भी विभाजन हो सकता है। उसका एक भाग तालिबान को अजेय मानकर उसके साथ हो जाएगा। इस विभाजन से पाकिस्तानी सेना की लड़ने की क्षमता समाप्त हो जाएगी और तालिबान की उतनी ही मजबूत। तब उसे पाकिस्तान को हजम करने से कोई नहीं रोक सकेगा। यदि ऐसा हुआ तो एक बार फिर विभाजन के समय का और बंग्लादेश के बनने के समय का घटनाचक्र घूम उठेगा और लाखों पाकिस्तानी शरणार्थी तालिबान से भागते हुए गुजरात, राजस्थान, पंजाब आदि सरहदी क्षेत्रों में प्रवेश करेंगे। इस तरह इतिहास एक पूरा चक्कर घूम जाएगा, धार्मिक कट्टरता के आधार पर बने पाकिस्तान के नागरिक धर्मनिरपेक्ष भारत की शरण में आने को मजबूर हो जाएंगे, और दो राष्ट्रों के अपने सिद्धांत को उन्हें थूक कर चाटना पड़ेगा।

तालिबान के हाथ बम आते ही, वह उसका प्रयोग दिल्ली, अमृतसर या अन्य किसी भारतीय शहर पर कर सकता है। वह इसलिए ऐसा करेगा, क्योंकि पाकिस्तान के पास अभी ऐसे प्रक्षेपास्त्र नहीं हैं, जो इन अस्त्रों को न्यूयोर्क, वाशिंगटन या लंदन तक ले जा सकें। इसलिए तालिबान अपने निकट के अमरीकी मित्रों की कनपटी पर परमाणु बम रखकर अमरीका पर दबाव डालने की कोशिश करेगा। तालिबान के लिए सबसे नजदीक भारत ही है, जिसे वह अमरीका परस्त मानता है क्योंकि भारत अफगानिस्तान की वरतमान सरकार के साथ मिल-जुलकर काम कर रहा है। हां, इजराइल एक अन्य निशाना हो सकता है।
दिल्ली, इजराइल आदि पर एक आध बम गिराकर तालिबान अमरीका को अल्टीमैटम देगा कि अफगानिस्तान से तुरंत दफा हो जाओ वरना यही क्रम दुहराया जाएगा। जापान को हराने के लिए अमरीका ने भी यही रणनीति अपनाई थी। उसने हिरोशिमा, नागासाकी आदि पर परमाणु बम गिराए, और यह जाहिर कर दिया कि जब तक जापानी सेना हथियार न डाले, वह जापान के अन्य शहरों पर भी परमामु बम गिराता जाएगा और जापान को तबाह कर देगा। इस तरह दिल्ली के बाद चंडीगढ़, लखनऊ, इलाहाबाद, अहमदाबाद आदि का नंबर आ सकता है।

यदि पाकिस्तान का वजूद नष्ट हो जाए, तो ये सब घटनाएं संभव हैं। पाकिस्तन के पश्चिमी सरहदों में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के तालिबानी क्षेत्रों में एक नए कबीलाई राष्ट्र का उदय हो रहा है, लगभग उसी तरह जैसे मध्य युग में चंगेस खान मध्य एशिया में शक्तिशाली हुआ था। उसने तब स्पेन से लेकर चीन तक के विशाल भूभाग को हिलाकर रख दिया था।

तालिबान के कब्जे में पाकिस्तान के परमाणु अस्त्र आने को रोकने के लिए यदि इजराइल अथवा अमरीका पाकिस्तान के परमाणु जखीरों पर एहतियाती हमले करें, तो इससे तीसरे विश्व युद्ध की नौबत आ सकती है, क्योंकि इसके प्रतिकार में चीन जरूर पाकिस्तान के पक्ष में युद्ध भूमि में उतर पड़ेगा। चीन चाहता है कि तालिबान उसके अंकुश के अधीन रहे, क्योंकि यदि ऐसा नहीं हुआ, तो वह अपने मुसलमान इलाकों में तालिबानी विचारधारा को फैलने से रोक नहीं पाएगा। यदि तालिबानी विचारधाराएं चीन के मुसलमानों में फैल जाए, तो चीन के ये इलाके अलग होकर तालिबान से मिल सकते हैं अथवा स्वतंत्र राज्य बन सकते हैं। चीन यह कभी नहीं चाहेगा। इसलिए चीन तालिबान को शह देता जाएगा और उसे अपने वर्चस्व में रखने की कोशिश करेगा। चीन तालिबान का उपयोग अमरीका को कमजोर करने के लिए भी करना चाहता है। चीन अमरीका को अपना दीर्घकालिक प्रतिद्वंद्वी समझता है। जिस तरह रूस को कमजोर करने के लिए अमरीका ने तालिबान को मजबूत किया था, वैसे ही अब चीन अमरीका को कमजोर करने के लिए तालिबान का उपयोग कर रहा है। तालिबान को हथियार देकर वह अमरीका को अफगानिस्तान-पाकिस्तान में लंबे युद्ध में फंसाए रखने में सफल हो रहा है। यदि अमरीका को कुछ और सालों के लिए अफगानिस्तान-पाकिस्तान में फंसाकर रखा जा सके, तो वह आर्थिक रूप से तबाह हो जाए, और चीन को चुनौती देने की उसकी क्षमता कमजोर हो जाए।

ऐसे में अमरीकी अथवा इजराइली हमला होने पर यदि तालिबान चीन से मदद मांगे, तो चीन इनकार नहीं करेगा। चीन, तालिबान और पाकिस्तान के बीच के गठजोड़ के संकेत अभी से मिलने लगे हैं। चीन पाकिस्तानी सेना और तालिबान दोनों को ही हथियार बेचता है। चीन, पाकिस्तान और तालिबान का यह गठजोड़ द्वितीय विश्व युद्ध के समय जर्मनी, इटली और जापान के गठजोड़ के समान होगा, और उसके सामने होगी अमरीका, ब्रिटन, इजराइल आदि पश्चिमी देशों की सेनाएं। इससे अमरीका और चीन में सीधा युद्ध छिड़ जाएगा, कुछ-कुछ वैसे ही जैसे द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटन और जर्मनी के बीच युद्ध हुआ था। यानी इक्कीसवीं सदी की दो महाशक्तियां आपस में टकराएंगी। भारत या तो अमरीका के पक्ष में युद्ध में कूद पड़ेगा, अथवा ईरान, रूस, इंडोनीशिया, मलेशिया आदि की तरह तटस्थ रहेगा। लेकिन यदि युद्ध विश्व स्तर का छिड़ जाए, तो भारत अधिक दिन तक तटस्थ रह भी नहीं पाएगा। यदि भारत युद्ध में खिंच जाए, तो उसके दशकों के आर्थिक-औद्योगिक विकास पर पानी फिर जाएगा। इसकी भी संभावना रहेगी कि भारतीय सेना को विश्व युद्ध में उलझा पाकर नक्सली और माओवादी ताकतें पूरे देश पर अथवा देश के अधिकांश हिस्सों पर साम्यवादी स्वतंत्र राज्य बना लें। ऐसे राज्य को सफल नेतृत्व देने के लिए भारत में अनुभवी साम्यवादी दल पहले से ही मौजूद है। रूस में भी साम्यवादी क्रांति द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में ही हुई थी। याद रखना चाहिए कि चंद्रगुप्त मौर्य ने ढाई हजार साल पहले लगभग ऐसी ही परिस्थितियों का लाभ उठाकर इन्हीं प्रदेशों में यानी आजकल के बिहार-मध्य प्रदेश वाले इलाके में मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी जो समस्त उत्तर और मध्य भारत में लगभग ढाई सौ सालों तक राज्य करता रहा। उस समय सिकंदरी हमले से मगध के उत्तर-पश्चमी भागों में अराजकता फैली हुई थी, जैसे आज पाकिस्तान-अफगानिस्तान में फैली है।

इन सब गतिविधियों का भारत पर क्या असर पड़ सकता है, इसके बारे में सोचकर भी दिल कांप उठता है। तालिबानी हमले से बचने के लिए भारत को अपनी राजधानी दिल्ली से हटाकर नागपुर, पटना अथवा हैदराबाद ले जाना पड़े। यदि ऐसा हुआ, तो जैसे तुगलक के जमाने में हुआ था, दिल्ली एक बार फिर वीरान हो जाएगी।

हमें इतिहास से सबक लेना चाहिए। भारत पर पश्चिमी सरहदों से ही हमले होते रहे हैं, और हमने कई बार अपनी आजादी इन हमलावरों के हाथों खोई है। ऐसा न हो कि इक्कीसवीं सदी में भारत को तालिबान के रूप में एक और गजनी, गौरी, बाबर, या तैमूर का सामना करना पड़े।

भारतीय राज्य इतना अमरीका परस्त हो गया है कि वह पाकिस्तान-अफगानिस्तान में हो रहे इन बुनियादी परिवर्तनों का बस मूक दर्शक बना हुआ है, हालांकि उसमें उसकी भी तबाही के बीज विद्यमान हैं। वह सोच रहा है कि अमरीका इस समस्या का समाधान कर लेगा। नए अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा पर उसकी आशाएं टिकी हुई हैं। ईराक से अमरीकी सेना वापस बुला लेने को लेकर भी भारत उत्साहित है। वह सोच रहा है कि अब अमरीका अपनी पूरी ताकत अफगानिस्तान-पाकिस्तान में लगाएगा।
पर ये भारतीय आशाएं मिट्टी में मिल सकती हैं, यदि अमरीका का वर्तमान आर्थिक संकट बना रहा अथवा और गहराता गया। ऐसी स्थिति में अमरीका में इतनी कुव्वत बची नहीं रहेगी कि वह अफगानिस्तान-पाकिस्तान में एक लंबा युद्ध छेड़ता जाए। ईराक-अफगानिस्तान में अब लगभग सात-आठ सालों से वह युद्ध में फंसा हुआ है, जो हर साल उसके लिए अरबों डालर का खर्च करा रहा है। क्या आर्थिक महासंकट से कंगाल हुआ अमरीका इस स्तर का खर्च अधिक समय जारी रख सकेगा?

यदि अर्थ-संकट गहराने से अमरीका मजबूर होकर अफगानिस्तान-पाकिस्तान से हाथ खींच ले, तो यह तालिबान और चीन की स्पष्ट विजय होगी। अमरीका के हटते ही, तालिबान पाकिस्तान-अफगानिस्तान पर अपना एकछत्र वर्चस्व स्थापित कर लेगा और पाकिस्तान को हजम कर लेने के बाद वह चीनी शहजोरी में अपनी विनाशकारी नजर भारत की ओर करेगा।

Sunday, March 08, 2009

बैंगलूर की स्त्री नुमाइश और स्त्री उन्नति

पिछले कई दिनों से अमिताभ बच्चन भारतीय संस्कृति के राजदूत की नई छवि में अपने-आपको देखने लगे हैं, हालांकि भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने से उनका तात्पर्य है कुछ फूहड़ और बेसिरपैर के गीतों का वीडियो चित्रांकन करना, भारतीय फिल्मों को विदेशों में प्रदर्शित करना और देश-विदेश की सुंदरियों की बैंगलूर में नुमाइश करवाना।

उनके इस पिछले प्रयास को लेकर देश के महिला संगठनों ने खूब हंगामा किया है और कहा है कि इससे भारतीय संस्कृति की जड़ें खोखली हो रही हैं। इस नुमाइश को वित्तीय समर्थन देनेवाले एक औद्योगिक घराने के शोरूम में घुसकर कुछ महिलाओं ने वहां तोड़-फोड़ की और नुमाइश का विरोध करते हुए चेन्नै (मद्रास) में एक युवक ने अपने आपको जला डाला।

महिला आंदोलन के भी अनेक स्तर हैं और यह कहना उचित न होगा कि सभी ने इस नुमाइश का विरोध किया है। पश्चिमी विचारधाराओं से प्रेरित उच्च मध्यम वर्ग की महिलाओं ने इस नुमाइश का स्वागत किया है। वैसे भी यह वर्ग अब दो-एक पीढ़ियों से भारतीय संस्कृति से दूर हट चुका है और इसके आदर्श, मूल्य, नैतिकता एवं रहन-सहन काफी पश्चिमीकृत हो चुका है। सती-सावित्री का आदर्श इस वर्ग की महिलाओं को उत्साहित नहीं करता। इसके विपरीत ये महिलाएं इस तरह के आदर्शों से सख्त नफरत करती हैं और चाहती हैं कि ये आदर्श देश के मानस से जितनी जल्दी मिट जाएं उतना ही अच्छा क्योंकि ये ही आदर्श महिला-उन्नति के मार्ग का सबसे विकट रोड़ा है। जब तक ये आदर्श बने रहेंगे तब तक भारतीय महिलाएं पश्चिमी महिलाओं के समान स्वतंत्र एवं शक्तिशाली नहीं बन सकेंगी।

समृद्ध पश्चिमीकृत महिलाएं जानती हैं कि अमिताभ बच्चन द्वारा आयोजित स्त्री नुमाइश महिलाओं की स्वतंत्र छवि को उभारने में और परंपरागत आदर्शों को कमजोर करने में सहायक होगी। इसके साथ-साथ इस वर्ग की महिलाओं के लिए इस नुमाइश का आर्थिक पहलू भी महत्वपूर्ण है। आजकल मोडेलिंग एक अत्यंत मुनाफेदार पेशा बन गया है। स्त्री नुमाइश इस पेशे को काफी प्रोत्साहन देता है। स्त्री नुमाइश में भाग लेनेवाली भारतीय नारियां पश्चिमीकृत उच्च मध्यम वर्गीय परिवारों की ही होती हैं। इन्हें बाद में फिल्मों में तथा मोडेलिंग पेशे में स्थान मिलने की काफी उम्मीद रहती है। बैंगलूर की नुमाइश के बाद अन्य औद्योगिक घराने भी इस तरह की नुमाइशें देश के अन्य छोटे-बड़े शहरों में आयोजित करेंगे, जिससे मोडेलिंग के पेशे को काफी प्रोत्साहन मिलेगा। इन नुमाइशों का आयोजन करनेवाला एक बहुत बड़ा वर्ग भी पैदा हो जाएगा, जो धीरे-धीरे एक फलते-फूलते उद्योग में बदल जाएगा। ब्राजील आदि दक्षिण अमरीकी देशों में ऐसा पहले ही हो चुका है।

देश की आर्थिक-राजनीतिक क्षितिज में बैंगलूर एक नए शक्ति केंद्र के रूप में उभर रहा है, खास करके तब से जबसे कर्णाटक राज्य, जिसकी बैंगलूर राजधानी है, का एक व्यक्ति देश का प्रधान मंत्री बन गया है। अतः बैंगलूर शहर के आर्थिक तंत्र में जिन लोगों का निहित स्वार्थ है, वे भी इस अंतरराष्ट्रीय नुमाइश को काफी तरजीह दे रहे हैं क्योंकि इससे बैंगलूर शहर को मुफ्त में अंतरराष्ट्रीय पब्लिसिटी मिलेगी, जिससे वहां नए उद्योग और विदेशी पूंजीपति आएंगे। मौजूदा उद्योगों को भी भारी फायदा होगा।

इस तरह इस नुमाइश का विरोध पश्चिमीकृत महिला संगठनों या उद्योगों से नहीं हो रहा। इसका विरोध कर रहे हैं, कुछ राजनीतिक संगठनों से जुड़े महिला संगठन। दक्षिण में हिंदुत्व पार्टियां अब तक जम नहीं पाई हैं, यद्यपि कर्णाटक में उनकी स्थिति अन्य दक्षिणी राज्यों से कुछ बेहतर है। इसलिए ये पार्टियां हमेशा ऐसे किसी मुद्दे की तलाश में रहती हैं जिसके इर्दगिर्द कोई जोरदार जन आंदोलन शुरू किया जा सके। इन आंदोलनों के जरिए ये चुनावों में अपनी पार्टी के लिए मत बटोरने की आशा रखती हैं। इन पार्टियों के लिए बैंगलूर की स्त्री नुमाइश एक अच्छा मुद्दा है क्योंकि यह बहुत से रूढ़िग्रस्त लोगों के लिए एक बहुत ही संवेदनशील विषय है।

इस प्रकार नुमाइश के सामाजिक नफे-नुक्सान की समीक्षा इसका समर्थन करनेवालों अथवा विरोध करनेवालों के दृष्टिकोणों से करना उचित न होगा, क्योंकि इन दोनों वर्गों के निहित स्वार्थ इस नुमाइश से ऐसे घुलमिल गए हैं कि उनसे निष्पक्षता की आशा नहीं की जा सकती। अतः देखना यह है कि इस नुमाइश का देश की महिलाओं की स्थिति को सुधारने में क्या प्रभाव पड़ेगा। यहां महिलाओं से तात्पर्य संपन्नवर्ग की पश्चिमीकृत महिलाएं ही नहीं, वरन देश के सभी वर्गों की महिलाएं हैं, जैसे मध्यम वर्ग की रूढ़िग्रस्त हिंदू महिलाएं, अल्पसंख्यक वर्गों की महिलाएं, गरीब तबकों की महिलाएं, ग्रामीण महिलाएं आदि।

भारतीय महिलाओं की मुख्य समस्या सामाजिक एवं आर्थिक है। जब तक महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता का रास्ता नहीं खुल जाता, तब तक उनकी व्यक्तिगत विकास एवं आजादी की बात करना बेकार है। यह आर्थिक स्वतंत्रता तभी आ सकती है जब स्त्रियां पढ़-लिखकर नौकरियां संभालेंगी या स्वतंत्र धंधों में लगेंगी। ऐसा तभी होगा जब लड़कियों एवं महिलाओं के प्रति परिवारों का दृष्टिकोण बदलेगा और वे लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने की ओर ध्यान देंगे तथा बहनों, बेटियों और बीवियों को नौकरी पर जाने देंगे। दूसरी ओर पर्याप्त आर्थिक विकास का होना भी आवश्यक है, अन्यथा पर्याप्त संख्या में विद्यालय खोलना और रोजगार के नए अवसर पैदा करना संभव न होगा। इस प्रकार महिलाओं की समस्या बहुत कुछ महिलाओं के बारे में समाज की वर्तमान मान्यताओं को बदलने और देश के आर्थिक विकास से जुड़ी है। सामाजिक मान्यताओं को बदलने में बैंगलूर में आयोजित स्त्री नुमाइस की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है क्योंकि इस प्रकार की घटनाएं वर्तमान विश्वासों को झकझोरने की क्षमता रखती हैं और इससे लोग अपनी मान्यताओं को अधिक निकट से देखने पर मजबूर होते हैं और इन मान्यताओं की असंगतता लोगों के लिए स्पष्ट हो जाती है।

महिलाओं के बारे में लोगों की वर्तमान मान्यताओं ने महिलाओं का कोई भला नहीं किया है। अतः इन मान्यताओं को बदलना आवश्यक है। इसमें संदेह नहीं कि बैंगलूर की स्त्री नुमाइश महिलाओं के बारे में पश्चिमी मान्यताओं को उजागर करती है, लेकिन महिलाओं के प्रति पश्चिम की मान्यताओं के बारे में भी लोगों को अवगत होना आवश्यक है। यह जानकारी महिलाओं के प्रति स्वस्थ मानसिकता विकसित करने में सहायक रहेगी। पश्चिमी महिलाओं की स्थिति भी निर्दोष नहीं है। उन्हें आर्थिक आजादी जरूर है, परंतु वे पुरुष के नियंत्रण से पूर्णरूप से मुक्त नहीं हैं। वहां भी महिलाएं पण्य वस्तु के रूप में ही देखी जाती हैं। इन सबसे छुटकारा पाने के लिए वहां की महिलाएं भी संघर्षरत हैं। कहने का मतलब यह है कि पश्चिमी महिलाओं की स्थिति भारतीय महिलाओं के लिए कोई अंतिम आदर्श नहीं है। वह केवल एक नए दृष्टिकोण की ओर इशारा करती है।

दूसरी आवश्यकता आर्थिक विकास है। महिलाओं की बहुत सी समस्याएं गरीबी और आर्थिक पिछड़ेपन से जुड़ी हैं। परिवार में केवल लड़के को पढ़ाना, लड़कियों के स्वास्थ्य की ओर कम ध्यान दिया जाना आदि के पीछे मुख्य कारण आर्थिक तंगी है। अधिकांश परिवारों के पास केवल एक संतान को पढ़ाने-लिखाने की आर्थिक सामर्थ्य होती है और उन्हें चुनना पड़ता है कि लड़के को पढ़ाएं या लड़की को। शादी के बाद लड़कियां उनके पति के घर चली जाती हैं, इसलिए सामान्यतः लड़कों के पक्ष में ही अधिकांश परिवार निर्णय लेते हैं। एक दूसरा कारण यह है कि देश में वृद्ध जनों की देखभाल न तो समाज करता है न सरकार। यह जिम्मा भी परिवार पर ही आता है। इसलिए भी परिवार लड़कों की पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान देते हैं, क्योंकि बुढ़ापे में ये ही परिवारजनों की देखभाल करेंगे और इन्हें आर्थिक दृष्टि से संपन्न बनाने में ही परिवार का हित है।

यदि आर्थिक विकास के फलस्वरूप देश में खुशहाली आती है, तो परिवारों के लिए सभी बच्चों की पर्याप्त देखभाल करना संभव हो सकेगा। दूसरी बात यह है कि देशभर में छोटे परिवारों की ओर रुझान बढ़ रहा है। इससे प्रत्येक परिवार में बच्चों की परवरिश पर खर्च कम होने लगा है। दक्षिण भारत में, खास तौर से केरल और तमिलनाड में, इस तरह का सामाजिक परिवर्तन आरंभ हो चुका है और शतप्रतिशत साक्षरता की ओर वहां का समाज बढ़ रहा है। इसका सबसे अच्छा प्रभाव महिलाओं पर ही पड़ा है। वे अधिक पढ़ी-लिखी, स्वस्थ एवं लंबी आयुवाली हो रही हैं।

आर्थिक विकास से रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे और महिलाओं को स्वतंत्र आमदनी प्राप्त हो सकेगी। इससे पुरुषों और परिवारों पर उनकी निर्भरता कम होगी और वे अपने जीवन पर अधिक नियंत्रण पा सकेंगी।

इस प्रकार बैंगलूर की स्त्री नुमाइश को भारतीय नारी की सभी समस्याओं के समाधान के रूप में अथवा भारतीय संस्कृति को जमीनदोस्त करनेवाली विकराल राक्षसी के रूप में देखकर बात का बतंगड़ बनाने में कोई तुक नहीं है। किसी भी प्रौढ़ एवं लोकतांत्रिक समाज में इस प्रकार की विरोधी विचारों को झेलने की क्षमता होती है। हिंदुत्ववादी पार्टियां इस नुमाइश का हिंसक विरोध करके समाज की इस क्षमता पर अनुचित शंका कर रही हैं। ये पार्टियां भारतीय संस्कृति की बात-बात पर दुहाई देती हैं और उसे विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति सिद्ध करने में कोई कसर बाकी नहीं रखतीं। इसे देखते हुए समाज की नैसर्गिक शक्तियों के प्रति इनका यह अविश्वास जरा अटपटा लगता है। इस नुमाइश की उपयोगिता इसी में है कि यह महिलाओं के प्रति समाज की मान्यताओं पर नए सिरे से विचार करने के लिए सभी को मजबूर करती है। यह विचार-मंथन उपयोगी हो सकता है और समाज में परिवर्तन की शीतल बयार उड़ा सकता है।

Saturday, March 07, 2009

क्रिकेट और मध्य वर्ग

बैंगलूर के चिन्नस्वामी स्टेडियम में आस्ट्रेलिया और भारत की टीमों के बीच हुई क्रिकेट मैच में अंपायर द्वारा अज़रुद्दीन को संदिग्ध ढंग से लेग बिफोर विकेट आउट दिए जाने का विरोध करते हुए भीड़ ने जो उग्र प्रतिक्रिया जतलाई, उसके विश्लेषण से काफी रोचक निष्कर्ष निकलते हैं। इसी संदर्भ में भारत-श्रीलंका मैच में भारत के खराब प्रदर्शन के विरुद्ध कलकत्ता की भीड़ ने जो तेवर दिखाए, वह भी द्रष्टव्य है।

भीड़ ने इस प्रकार की प्रतिक्रिया क्यों जतलाई? स्पष्ट ही मैच में अपनी टीम की निश्चित हार की स्थिति को बर्दाश्त न कर पाने से भीड़ क्रुद्ध हो उठी। परंतु यह उत्तर संतोष नहीं देता। भारत की टीम का मैच हारना भीड़ के लिए इतना असहनीय क्यों था कि वह मैच को ही आगे न बढ़ने देने जैसे गैरकानूनी कार्य पर उतारू हो गई? जरूर मैच जीतना भीड़ के लिए मनोवैज्ञानिक स्तर पर बहुत अधिक महत्व रखता है, वरना वह कानून को अपने हाथों न लेती।

पहले हम भीड़ की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर विचार करें। भारत में क्रिकेट मध्यम वर्ग का प्रिय खेल है। बहुत अमीर वर्ग और बहुत गरीब वर्गों को क्रिकेट से कोई खास लेना-देना नहीं है। अमीर वर्ग अपने क्लबों-होटलों में घुड़दौड़, बिलियर्ड्स, गोल्फ आदि व्ययसाध्य क्रियाकलापों में मगन रहते हैं, जबकि गरीब वर्ग जीवित रहने के महान खेल में ही इतने उलझे रहते हैं कि क्रिकेट में क्या रुचि लेंगे! क्रिकेट के खिलाड़ी भी इसी मध्यम वर्ग से आते हैं। कपिल देव, सचिन, कांबले आदि नामी खिलाड़ियों के सामाजिक पृष्ठभूमि को देखने से यह बात भली-भांति स्पष्ट हो जाती है। क्रिकेट मैचों को देखने आनेवाली अपार भीड़ भी इसी मध्यम वर्गीय स्त्री-पुरुषों की बनी होती है।

देश में इस वर्ग की स्थिति कुछ यों है कि "भारत संस्थान", यानी भारतीय राज्य का ताम-झाम, उसकी प्रतिष्ठा, उसके क्रियाकलाप, आदि-आदि पर इस वर्ग का अस्तित्व बहुत अधिक निर्भर करता है। उग्र राष्ट्रीयता की जो संकल्पना अंगरेजों की विघटनकारी, सांप्रदायिक नीतियों की प्रतिक्रिया स्वरूप पिछले दो-एक शताब्दियों से भारतीय मानस में घर कर गई है, वह भी बहुत अधिक हद तक मध्यम वर्ग के ही लोगों के मनों में।

इस वर्ग के लिए राष्ट्रीयता की भावना, उसके संकीर्ण अर्थों में, उतना ही आवश्यक है, जितना भोजन-पानी। यह इसलिए क्योंकि इस वर्ग के सदस्यों की आसमान छूती आशाओं-आकांक्षाओं की पूर्ति का साधन इनके पास नहीं है। मध्यम वर्ग संचार माध्यमों के जरिए उच्चवर्गीय जीवनयापन रीतियों को देख-परख सकता है, परंतु आर्थिक सामर्थ्यहीनता के कारण उन्हें अपना नहीं सकता। इससे मध्यम वर्ग के लोगों में तीव्र कुंठा ने घर कर लिया है। यही कुंठा क्रिकेट मैचों को देखकर और उनमें अपनी देशीय टीम को जीतते देखकर उनके जेहन से निकल आती है। इस कुंठा का इस प्रकार निकलना उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक है, क्योंकि देश की व्यवस्था इस प्रकार है कि उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति का साधन उनके पास नहीं है।

आजादी के आंदोलन के दौरान लोकतंत्र से जनता को नेताओं ने बड़ी आशाएं बंधाई थीं, कि अंगरेजों के चले जाने पर लोकतंत्र स्थापित हो जाएगा और इससे आम जनता की सभी तकलीफें मिट जाएंगी। वास्तव में यह नेताओं द्वारा जनता पर किया गया एक बहुत बड़ा छल था। संपन्न-महाजनवर्ग और सामंतवर्ग (राजा महाराजा, जमींदार, व्यापारी, उद्योगपति, आदि) यह अच्छी तरह समझ गए थे कि अपने बलबूते पर अंगरेजों को देश से निकालना संभव नहीं है, और उन्हें यहां से निकाले बगैर इन वर्गों की उन्नति भी नहीं हो सकती थी। राजनीतिक मंच पर गांधीजी के आने से और गांधीजी द्वारा जन साधारण की सहभागिता से आजादी आंदोलन चलाए जाने से इन वर्गों को अंगरेजों को मात देने का एक कारगर तरीका मिल गया। जनता की सक्रिय भागीदारी से देश आजाद हुआ, परंतु अंगरेजों के हाथों से निकलकर सत्ता की बागडोर इन्हीं देशी संपन्न वर्गों के हाथों में गई। कहा यही गया कि सत्ता जनता के हाथ में आई है, परंतु पिछले पचास वर्ष के अनुभव से सभी के लिए यह स्पष्ट हो गया है कि आजादी का असल फायदा किसको हुआ है। इस छलावे का सबसे बुरा असर मध्यम वर्ग पर ही पड़ा। आजादी को लेकर सबसे सुंदर सपने इसी वर्ग ने संजोए थे और इसलिए सबसे बड़ा मोहभंग भी इसे ही हुआ। आजादी की लड़ाई के दौरान जो सिद्धांत, नीतियां एवं आदर्श स्पष्ट-अस्पष्ट रूप से मुखरित हुए थे, उन सबको एक-एक करके नकारे जाते देखकर यह वर्ग अपने आपको अत्यंत विक्षुब्ध और नपुंसक महसूस करने लगा है। आजकल जोरों से फूंके जा रहे खगोलीकरण और उदारीकरण के मंत्र से उसके सामने उसके प्रति और देश के प्रति किए गए छलावे का भयानक चेहरा और भी स्पष्ट रूप से घूमने लगा है। वह देख रहा है कि आज देश गरीबी की रेखा के नीचे पिस रहा है, निरक्षर, निर्वस्त्र, निराश्रित और भूखा है, पर इसकी परवा न करते हुए देश के नेता अपनी तिजोरियां भरने और संपन्न वर्गों के लिए सुख-सुविधा के साधन जुटाने में ही लगे हुए हैं। चाहे कोई राजनीतिक दल हो, यहां तक कि साम्यवादी दल भी, किसी को भी देश के गरीबों और सत्ताच्युतों की परवा नहीं है और न ही देश की प्रतिष्ठा की ही।

खगोलीकरण-उदारीकरण के बल पकड़ने से इस वर्ग के लिए यह भी स्पष्ट हो गया है कि "भारतीय संस्थान" अब किसके हितों के संरक्षण के लिए ऐड़ी-चोटी एक कर रहा है। स्पष्ट ही ये महाजनों और रईसों के हित हैं। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, "भारतीय संस्थान" से मध्यम वर्ग का गहरा आर्थिक-सामाजिक नाता है। अधिकांश मध्यम वर्गीय सदस्य सरकारी-अर्धसरकारी संगठनों, जैसे बैंक, बीमा कंपनी, रेलवे, सेना, पुलिस आदि में कार्यरत हैं, कुछ छोटे-मोटे निजी व्यवसायों में लगे हैं, और इन सबके बच्चे सरकारी विद्यालयों, कालेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं, तथा बीमार होने पर ये सरकारी अस्पतालों में ही भर्ती होते हैं। इस प्रकार भारतीय संस्थान से उसकी रोजीरोटी जुड़ी है। अब तक वह इस छलावे में था कि इस भारतीय संस्थान पर उसका भी कोई नियंत्रण है। परंतु आज उसे स्पष्ट हो गया है कि यह संस्थान देशी-विदेशी पूंजीपतियों और उनके हाथों बिके नेतावर्ग का कठपुतला है और उन्हीं के हित-साधन का यंत्र है। न गरीबों की उसे परवा है न मध्यम वर्ग की ही। यह प्रतीति मध्यम वर्ग के लिए एक करारा तमाचा साबित हुआ है, जिसने उसे पूरा-पूरा विश्वासहीन, दिशाहीन, खिन्न एवं हिंसक बना डाला है। मध्यम वर्ग के बहुत से सदस्य इस कटु सचाई को स्वीकारना नहीं चाहते, और वे खेलों में, फिल्मों में और कलाओं में इसके झुठलाए जाने की आशा रखते हैं।

ओलिंपिक्स ने मध्यम वर्ग को दिखा दिया है कि अन्य खेलों से कुछ ज्यादा आशाएं रखना बेकार है। बस एक क्रिकेट है जो उसके लिए यह भ्रम पैदा कर सकता है कि अब भी हम नियंत्रण में हैं। क्रिकेट के मैदान में सचिन या अज़रुद्दीन नहीं खेल रहे होते, बल्कि मध्यम वर्ग का वही कुंठा एवं विषाद ग्रस्त व्यक्ति अपने प्रति भारतीय संस्थान द्वारा किए गए छल का प्रतिकार कर रहा होता है। सब ओरों से निराश मध्यम वर्ग के लिए क्रिकेट का मैदान ही "न्याय" का अंतिम जरिया बचा रहा है। जब वह देखता है कि यहां भी वह हार रहा है, वह छला जा रहा है--और वास्तव में वह छला ही जाता रहा है--तो अपनी असीम निराशा में सचाई को हिंसा द्वारा बदलने की नपुंसक कोशिश करने लगता है।

मध्यम वर्ग द्वारा शेषन, खैरनार आदि में राष्ट्रीय हीरो ढूंढ़ने के पीछे भी यही मनोवृत्ति काम करती है। इसके पीछे यही निराशापूर्ण विश्वास है कि "नहीं, भारतीय संस्थान मुझे धोखा नहीं दे सकता, और यदि उसने मुझे धोखा दिया भी है, तो शेषन या खैरनार मेरी ओर से उसे दंड देगा और जल्द ही सब कुछ ठीक हो जाएगा!"

मध्यम वर्ग निराशा के वशीभूत होकर पलायनवादी हो गया है। ये सब घटनाएं इसी भयंकर तथ्य को उजागर करती हैं। आनेवाले दिनों इस वर्ग के और उग्र और हिंसक होने की ही संभावना है।

मध्यम वर्ग हमेशा यह भ्रम सालता रहा है कि वह उच्च वर्ग का ही एक अंग है। अब उसे धीरे-धीरे स्पष्ट हो रहा है कि महाजनी व्यवस्था में मध्यम वर्ग उच्च वर्गों से बराबरी कभी नहीं कर सकता। मध्यम वर्ग की त्रासदी यह है कि वह निम्न वर्गों के साथ मिलकर, उनके सुख-दुख में शरीक होकर अपने आपको उत्पीड़न से छुड़ाने का साझा प्रयत्न अपनी झूठी शान एवं अभिमान के चलते नहीं कर सकता। जब तक वह ऐसा नहीं करता, उसकी मुक्ति नहीं हो सकती। आजादी की लड़ाई से उसे यही सीख लेनी चाहिए। उस लड़ाई में भी मध्यम वर्ग तभी सफल हो सका था जब गांधीजी के नेतृत्व में वह किसानों, मजदूरों और भूमिहीनों का साझेदारी प्राप्त कर सका। इन्हीं वर्गों के योगदान के सुफलस्वरूप ही भारत ने प्रजातांत्रिक, समाजवादी व्यवस्था अपने शासन हेतु चुना।

परंतु आजादी के बाद इस व्यवस्था को जनता की भलाई से मोड़कर महाजनों और सत्ताधीन वर्गों की भलाई किस प्रकार साधी गई, यह इस देश की जनता पर किया गया एक महान विश्वासघात है। मध्यम वर्ग का भी देश पर किए गए इसमें मिलीभगत है, क्या इससे इनकार किया जा सकता है? विडंबना यह है कि आज इस विश्वासघात का शिकार स्वयं मध्यम वर्ग हो रहा है, और यह सचाई उसे बिलकुल रास नहीं आ रही। अपने ही जाल में फंसना किसे अच्छा लगता है? क्रिकेट के मैदान में हुल्लड़ मचाना अपने ही जाल में फंसे मध्यम वर्ग का छटपटाना ही है।

Friday, March 06, 2009

तमिल महाकवि सुब्रमण्य भारती

तमिल भाषा के प्रखर कवि और स्वतंत्रता सेनानी श्री सुब्रमण्य भारती का जन्म 11 दिसंबर 1882 को तमिल नाड के एट्टायपुरम नामक छोटी जमींदारी रियासत में हुआ था। वे चिन्नस्वामी अय्यर के पुत्र थे। सुब्रमण्य भारती ने अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय बहुत कम उम्र में ही देना शुरू कर दिया था। सात साल की उम्र में वे कविता रचने लगे थे। जब वे मात्र 11 साल के थे उन्होंने कविताई में अनेक जानेमाने कवियों को हरा दिया था। तबसे उन्हें भारती की पदवी हासिल हो गई। भारती का अर्थ सरस्वती है। उनकी पढ़ाई तिरुनलवेली और एट्टायपुरम के स्कूलों में हुई। पंद्रह वर्ष की आयु में उन्होंने चेल्लम्माल से विवाह किया।

उनेक पिता के देहावसान के बाद 1818 में वे वाराणसी चले गए। वहां वे अपनी मौसी कुप्पम्माल और उनके पति कृष्णशिवम के साथ दो साल रहे। वाराणसी में रहते हुए उन्होंने हिंदी और संस्कृत का गहन अध्ययन किया और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की ऐंट्रेन्स परीक्षा अव्वल दर्जे में उत्तीर्ण की। पढ़ाई पूरी करके वे एट्टायपुरम लौट आए और उन्हें वहां के जमींदार के दफ्तर में तुरंत नौकरी मिल गई।

बेहतर आमदनी की तलाश में कुछ समय उन्होंने तमिल भाषा के शिक्षक के रूप में सेतुपत हाई स्कूल, मदुरै, में काम किया। मदुरै से वे चेन्नै चले गए जब उन्हें तमिल दैनिक स्वदेशमित्रन में पत्रकार की नौकरी मिली। स्वदेशमित्रन में काम करते हुए उन्हें देश की तत्कालीन दयनीय स्थिति और आजादी के लिए किए जा रहे प्रयत्नों की जानकारी मिली। स्वदेशमित्रन के संवाददाता के रूप में उन्होंने वाराणसि (1905) और कलकत्ता (1906) में आयोजित कांग्रेस अधिवेशनों में भाग लिया।
सुब्रमण्य भारती के राजनैतिक गुरु स्वामी विवेकानंद की शिष्या बहन निवेदिता थीं। इनसे सुब्रमणय भारती की मुलाकात कांग्रेस अधिवेशन के दौरान कलकत्ता में हुई। बहन निवेदिता के संसर्ग से सुब्हमण्य भारत में देशप्रेम की प्रखर भावना प्रज्ज्वलित हो उठी जो उनकी कविताओं में फूट निकलीं।

सुब्रमण्य भारती ने अपना एक अखबार भी शुरू किया जिसका नाम उन्होंने भारत रखा। इसमें उन्होंने भारत की आजादी, विकास, महिला उन्नति आदि के बारे में लेख, कविताएं और एकांकियां लिखे। इन रचनाओं ने अनेक पाठकों में देशभक्ति की भावना जगाई। परंतु इन रचनाओं के कारण वे शासकों की नजरों में भी आ गए और उन्हें पुलिस उत्पीड़न का शिकार बनना पड़ा। आत्मरक्षा के लिए उन्होंने पांडिच्चेरी में शरण ली जहां फ्रांसीसियों का शासन था और इसलिए अंग्रेजों की पुलिस उन्हें परेशान नहीं कर सकती थी। वे दस साल पांडिच्चेरी में रहे और निरंतर कविता रचते रहे। उनकी प्रसिद्ध कविताओं में कन्नन पाट्टु, पांचाली शपथम और कुइल पाट्टु हैं। कन्नन पाट्टू में उन्होंने कृष्ण भगवान पर कविताएं लिखी हैं। पांचाली शपथम में द्रौपदी की कहानी कहते हुए उन्होंने स्त्रियों की उन्नति की आकांक्षा की है। कुइल पाट्टू रहस्यवादी रचना है।

नौकरी के अभाव में उन्हें अपने पांडिच्चेरी प्रवास के दौरान बहुत अधिक आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। आखिरकार और कोई विकल्प न रहने पर उन्हें पांडिच्चेरी छोड़कर वापिस मद्रास आना पड़ा। लेकिन 1918 नवंबर में वे मद्रास पहुंचने से पहले ही कुडप्पूर नामक स्थान में पुलिस द्वारा कैद कर लिए गए। ऐनी बेसेंट, सीपी रामस्वामी अय्यर आदि प्रभावशाली नेताओं के कहने पर वे बाद में छोड़ दिए गए। सुब्हमण्य भारती ने 1920 में एक बार फिर स्वदेशमित्र में काम शुरू कर दिया और देश भक्ति की कविताएं लिखते रहे। सन 1921 को 11 सितंबर को 39 वर्ष की उम्र में उनकी अचानक मृत्यु हो गई। कहते हैं कि वे रोज मंदिर के हाथी को केले का गुच्छा अपने हाथों से खिलाते थे। उस दिन हाथी मस्त में था और महावतों ने उनसे हाथी के पास न जाने की सलाह दी थी। पर सुब्रमणय भारती नहीं माने। जैसे ही वे हाथी के पास गए, उसने उन्हें सूंड़ में पकड़कर उछाल दिया। वे बुरी तरह घायल हो गए और वहीं दम तोड़ दिया।

भारती उन विचारक कवियों में से एक थे जो मानव कल्याण में रुचि रखते थे। वे कहते थे लोगों को पढ़ाना-लिखाना हजार मंदिर बनाने से बेहतर है। कविताओं के अलावा भारती ने अनेक कहानियां, निबंध, एकांकियां आदि रचे हैं जिनका अनुवाद भारत की लगभग सभी भाषाओं सहित रूसी, अंग्रीजी, फ्रेंच, जर्मन आदि अनेक विदेशी भाषाओं में भी हुआ है।

Thursday, March 05, 2009

कलाकार की आजादी

एम एफ हुसैन को लोग जितना उनके उत्तम चित्रों के लिए जानते हैं, उतना ही उनके इर्दगिर्द समय-समय पर उठते विवादों के लिए भी। इनमें से बहुत से विवादों में जनसाधारण की सहानुभूति इस चित्रकार के साथ रही है, जैसे तब जब इन्हें किसी अभिजातीय क्लब में नंगे पैर जाने पर क्लब से बाहर निकाल दिया गया था। इस घटना को लोगों ने इसलिए पसंद किया क्योंकि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभिजातीय क्लबों की उपस्थिति एक असंगति है और हुसैन ने अपने ढंग से इसी असंगति की ओर इशारा किया था।

पिछले कुछ महीनों से अस्सी वर्ष के ये कलाकार हिंदी फिल्मों की मल्लिका माधुरी दीक्षित में जो आसक्ति दर्शा रहे हैं, उसमें भी जनता ने बहुत मजा लिया है। हुसैन पिछले कई सालों से अपनी कला के जरिए धार्मिक समन्वय साधने और धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने के प्रयास में लगे हैं। एक ऐसे मुसलमान होने के नाते जिसने हिंदू धार्मिक भावनाओं को निकट से अनुभव किया है, हुसैन मानते हैं कि यह कार्य उनके लिए सहज एवं स्वाभाविक है।

लेकिन हुसैन जिस विवाद में अबकी बार उलझे हैं, उसके प्रति जन-साधारण ने सहानुभूति नहीं दिखाई है। हाल ही में हुसैन ने हिंदू देवी-देवताओं के नग्न चित्र बनाकर उन्हें एक चित्रशाला में प्रदर्शित किया। चूंकि इन देवी-देवताओं को करोड़ों लोग आस्था एवं सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, इसलिए हुसैन के इस प्रयास से जनमानस को बहुत ठेस पहुंचा। इस सारे घटनाचक्र ने एक नाटकीय मोड़ तब लिया जब विश्व हिंदू परिषद-बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने अहमदाबाद की एक चित्रशाला में घुसकर हुसैन के चित्रों की होली जलाई।

संचार माध्यमों ने इस घटनाक्रम पर काफी चर्चा-परिचर्चा चलाई और कलाकारों, बुद्धिजीवियों और धार्मिक नेताओं ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए। कलाकारों ने अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देकर दलील की कि हुसैन को इस प्रकार के अश्लील चित्र बनाने का अधिकार है। पश्चिमी विचारधारा वाले धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने कहा कि भारत में और अन्य देशों में देवी-देवताओं के नग्न चित्र एवं मूत्रियां धड़ल्ले से बनती रही हैं। खजुराहो की संभोगरत मूर्तियों की ओर उन्होंने हमारा ध्यान दिलाया और बड़ी उद्विग्नता से पूछा कि बेचारे हुसैन ने ही क्या गुनाह किया है? उन्होंने संस्कृत साहित्य का भी हवाला देते हुए कहा कि पुराणों, महाकाव्यों आदि में देवी-देवताओं के शरीर के प्रत्येक अंग का बहुत ही स्पष्ट वर्णन किया गया है। देश के बाहर की ओर ध्यान ले जाते हुए इन बुद्धिजीवियों ने कहा कि पाश्चात्य कलाकारों ने वहां के गिरिजाघरों में धार्मिक विषयों को लेकर जो चित्र बनाए हैं, उनमें पुरुष और नारी के अनावृत्त शरीर को दर्शाया है।

इन सभी दलीलों की मुख्य कमजोरी यह है कि ये सब कला के सामंतवादी मानदंडों के आधार पर हुसैन के चित्रों के सामाजिक औचित्य को आंकते हैं। इस शताब्दी की शुरुआत से पहले के वर्षों तक कला मुख्य रूप से सामंतवर्गों के उपयोग की चीज थी। यह खासकर के चित्रकला एवं स्थापथ्यकला पर सही उतरती है। सामंतवर्ग ही इस कला का पोषक और आस्वादक था। कहने की जरूरत नहीं कि यह वर्ग विलासिता में डूबा हुआ था और इसके लिए कला का उपयोग कामुकता को उकसाने के साधन के रूप में ही था। यही कारण है कि मंदिरों के स्थापथ्य, चित्रकला व साहित्य में अश्लीलता का पुट बहुत अधिक है।

इस शताब्दी के आरंभ से विश्वभर में सामंतवर्ग का अंत होने लगा और सभी जगह लोकतांत्रिक-पूंजीवादी/साम्यवादी व्यवस्था फैल गई। इसके आदर्श और नैतिकता सामंती युग के आदर्श और नैतिकता से भिन्न हैं। साहित्य में जो परिवर्तन पिछले डेढ़-दो सदियों में दिखाई देता है, वह इस अंतर को बखूबी दर्शाता है। न केवल साहित्य के रूप एवं विषयवस्तु में परिवर्तन हुआ है, बल्कि उसके उपयोगकर्ता भी आज सामंतवर्ग नहीं बल्कि जनसाधारण है। परिणामतः साहित्य के आदर्श एवं नैतिकता लोकोन्मुख हो गई है।

इस हद तक परिवर्तन चित्रकला में देखने में नहीं आया है। चूंकि यह कला व्ययसाध्य है, इसलिए बहुत हद तक इसके पोषक अब भी समृद्ध वर्ग ही है। परंतु इसके उपयोगकर्ताओं की सूची में अब जनसाधारण भी शामिल हो गया है। एक उत्कृष्ठ कलाकृति की कीमत लाखों रुपए हो सकती है, जिसे कोई रईस ही अपनी बैठक की शोभा बढ़ाने के लिए खरीद सकता है। लेकिन इस कलाकृति की सस्ती प्रतिलिपियां पत्र-पत्रिकाओं, कैलेंडरों और टीवी के जरिए घर-घर तक पहुंच सकती हैं। दूसरी ओर सार्वजनिक चित्रशालाओं में जाकर जनसाधारण भी अमूल्य कृतियों का आस्वादन कर सकता है।

इतना होने पर भी आज तक कोई जन-चितेरा नहीं हुआ है, जैसे कि साहित्य में लोककवि हुए हैं, जिनका पोषण जनसमुदाय करता हो। इसलिए चित्रकारों को अपने आश्रयदाताओं की अभिरुचियों का ख्याल रखना पड़ता है। लेकिन उनके चित्रों को संग्रहालयों, पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों, टीवी आदि के जरिए हर कोई देखता है और जब ये चित्र उन सबकी अभिरुचियों के अनुकूल नहीं होते, तो वे क्षुब्ध हो उठते हैं। हुसैन द्वारा बनाए गए देवी-देवताओं के नग्न चित्रों के साथ भी यही हुआ है। यदि ये चित्र अमीरों के घरों की ही शोभा बढ़ाते तो किसी को आपत्ति न होती, क्योंकि ये चित्र अमीरों के आदर्शों और नैतिकता के अनुकूल हैं, परंतु जनसाधारण के लिए देवी-देवता विलासिता के विषय नहीं, आस्था के विषय हैं। इस आस्था को ठेस पहुंचाने से उन्हें मानसिक कष्ट होता है। लोकतंत्र इस आक्रोश को प्रकट करने का अधिकार उन्हें देता है। हां, आक्रोश प्रकट करने के रूप को लेकर कुर्सीदां बुद्धिजीवी विवाद कर सकते हैं, लेकिन विरोध करने के उनके अधिकार को नकार नहीं सकते।

इस प्रकार यहां टकराहट तीन चीजों में हैं:- अमीर वर्गों की अभिरुचि, कलाकार की आजादी और जनसाधारण की आस्था। इनमें से किसको तरजीह देनी चाहिए, इसका निर्णय करना सरल नहीं है। यह जरूर कहा जा सकता है कि लोकतंत्र के इस युग में जनसाधारण की सुविधा को ध्यान में रखना ही युगानुकूल लगता है। इस दृष्टि से देखने पर हुसैन आदि कलाकारों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि अपने ऊपर आत्मनियंत्रण लाकर ऐसी कला कृतियों की सृष्टि न करें जिनसे आम जनता को मानसिक अथवा सांस्कृतिक आघात पहुंचे, और यदि उन्हें ऐसी कलाओं का सृजन करना ही है, तो उन्हें सार्वजनिक माध्यमों से प्रदर्शित न करें।

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट